सिर में लोहा

वे जब भी मेरी नाप लेते
गरदन पर ठहरते थोड़ी ज़्यादा देर
इसीलिए जो जो कपड़े चमकते थेजिनसे आता था रुआब
वे सब गले पर तंग थे
जितने भी जूते थे अच्छे
सब काटते थे,
जब घर था
मैं उसमें कम रहता था
जब नहीं थातब ज़्यादा 

वे सब जल्दी में थे अच्छे लोग और विनम्र,
जिन्हें मैंने अपनी भूख के बारे में बताया
उछलकर नाले में गिरा आख़िरी सिक्का
जब मैं दौड़ रहा था,
मैं इतना नीचे था गहरे धंसा कि हमारी ज़बान एक थी,
यह ख़ुशकिस्मती है धरती की और आपकी 


और क्या आप वही समझते थे
जो मैं कहता था?
यह कि मेरे सिर में लोहा रहता था 


एक शब्द था, जो कल सुबह आपके घर छूटा
क्या मैं झुकूं और खोज लूं उसे?
कौनसी वर्दी पहनूं, कैसे रंगूं माथे को
कैसे आऊं, कैसे लौटूं कहते हुए शुक्रिया मेरे राम!

एक दिनबताऊँ आपको 
कि घेरा गया आउटर सर्कल पर 
वे आठ थेमैं अकेला

छोड़िए कि यह मज़ेदार बात नहीं 

बस भाषा में कहना हो तो इतना ही कि एक आवाज़ लगातार
कभी सिर में, कभी दीवार के पार
हर आदमी एक तिराहा है
मेरे होने में हैं सौ चिराग
जिन्हें तोड़कर मेरी तुम्हारी आँखों में भरा है तेज़ाब

हमें जो दिखता है
उस पर एक बच्चा फिसलकर गिरा
उसके हाथ में थी बंदूक
जो कहाँ से आई से ज़रूरी है कि
गिरने से पहले से क्यों सूजा था उसका माथा
एक शनिवार था बहुत साल पहले
जिसमें मैं सोचता था कि मेरे सिर को तोड़कर निकाला जाए वह बाहर
जो चाकू पर चल रहा है

बताना है कि मैंने कोई बात झूठ नहीं कही
मैंने कहीं नहीं कहा औरत को नदी, ज़िन्दगी को जेल
जो वो थी भी
पर मैंने कहीं नहीं कहा कि आग एक फूल है

वह पीली थी आग
गर्म और भारी


वह जो लोहा था, उसे उन्हें गर्म करके पीटना था
और इसका कोई दूसरा अर्थ नहीं