लो हम डूबते हैं

हाँ हाँ, यादों में है अब भी
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क्या सुरीला वो जहाँ था
हमारे हाथों में रंगीन गुब्बारे थे
और दिल में महकता समां था।
वो तो ख़्वाबों की थी दुनिया
वो किताबों की थी दुनिया
साँस में थे मचलते हुए जलजले
आँख में वो सुहाना नशा था।
क्या ज़मीं थी, आसमां था
हमको लेकिन क्या पता था,
हम खड़े थे जहाँ पर
उसी के किनारे पे गहरा सा अन्धा कुँआ था...
                                  - पीयूष मिश्रा, गुलाल (2001-2009-?)

लालकिले के ठीक सामने मैं दरियागंज को ढूंढ़ रहा था। वहाँ से लहराता तिरंगा दिख रहा था, जो न जाने क्यों आज़ादी की बजाय ग़ुलामी का अहसास करवा रहा था। बहुत भीड़ थी। लालकिले के सामने से गुज़रने वाले क़रीब चालीस प्रतिशत लोग मुँह उठाकर उसे देखते हुए चलते जाते थे। इस तरह आसानी से उन लोगों को पहचाना जा सकता था, जो दिल्ली से बाहर के थे। कुछ लोग पन्द्रह या बीस सालों से भी दिल्ली में रह रहे होंगे लेकिन वह हर आदमी सामने से गुज़रते हुए हसरत भरी निग़ाह लालकिले पर ज़रूर डालता है, जिसका बचपन दिल्ली में नहीं बीता। यह ग़ौर करने लायक बात है कि आक्रमणकारियों द्वारा जनता को लूट कर बनवाई गई इमारतें ही उन मुख्य पर्यटन स्थलों में हैं (उनमें से अधिकांश लाल हैं जो कि संयोगवश खून का रंग भी है), जिन्हें देखने मासूम से बच्चे स्कूल की मैडमों के साथ कतार बनाकर आते हैं।

इतवार था और मुझे दरियागंज की सड़कों पर लगने वाले इतवारी बाज़ार से एक किताब खरीदनी थी। मैं रास्ता नहीं जानता था और न ही किसी से पूछ रहा था। दो साल से दिल्ली में रहने का आत्मसम्मान मुझे ऐसा करने से रोक रहा था। दूसरी वज़ह यह थी कि पिछले दो सालों से मैं किसी भी अजनबी से बात करने में बहुत घबराता था। मैं बहुत बदल गया था। वह बदलना, जिसे देख सुनकर रूह काँप जाती है। मेरे अपने डर थे, जो उस गौरवशाली बताए जाने वाले इतिहास का हिस्सा थे, जिसमें मुझे यह किसी ने नहीं बताया था कि 1783 में सरदार बघेल सिंह धालीवाल के नेतृत्व में सिख लालकिले के दीवान-ए-आम तक घुस आए थे और मुग़लों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। सारा इतिहास किसी ने गड्ड मड्ड कर दिया था। अक़बर महान था।

पसीने में भीगा हुआ मैं कभी इस दिशा में चलता तो कभी उस दिशा में जैसे अचानक मुझे कहीं दरियागंज की दिशा बताता हुआ बोर्ड दिख जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मैं हारकर अपनी हालत पर रो देने वाला ही था कि एक रिक्शावाला मेरे बिल्कुल सामने आकर रुक गया। वह उसी तरह मेरे और लालकिले के बीच में था, जिस तरह उसके और लालकिले पर भाषण देने वाले प्रधानमंत्री के बीच में ख़ुद लोकतंत्र ही आ गया था।
- कहाँ जाइएगा?
उन हड़बड़ी के क्षणों में वह मेरे लिए किसी देवदूत से कम नहीं था।
- दरियागंज...
- बैठिए।
और मैं अपने नियम को तोड़कर बिना किराया तय किए ही रिक्शा में बैठ गया।
- आप किताबें खरीदने जा रहे हैं?
उसने रिक्शा चलते ही मुझसे पूछा।
- हाँ। क्या वहाँ सब किताबें खरीदने ही जाते हैं?
- मुझ जैसे लोग सवारी छोड़ने भी जाते हैं साहब।
- यह पुरानी दिल्ली कहाँ तक है?
- जहाँ तक आपकी नज़र जाती है, सब पुरानी दिल्ली ही है। ऊपर पुराना आसमान है और नीचे पुरानी सड़क। मैं भी अपनी रिक्शा की तरह पुराना हो गया हूँ साहब। बस यहाँ आप नए हैं, इसीलिए आप पीछे बैठे हैं और मैं आगे चला रहा हूँ।
- तुम्हारे अन्दर बहुत आक्रोश भरा है ना?
- नहीं साहब, मैंने वोट दिया मगर सरकार नहीं बदल पाया। अब मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए।
- चलो, हम कहीं रुकते हैं और किसी पेड़ की छाँव में बैठकर बात करते हैं। नाम क्या है तुम्हारा?
उसने मुड़कर हैरानी से मेरी ओर देखा और थम गया। जैसे ही मैं उतरकर चला, वह रिक्शा लेकर चला गया। मेरे पुकारने पर भी उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब मैं अपने पहले वाले प्रस्थान बिन्दु से दो सौ मीटर इधर था और मुझे पेड़, रिक्शा या रास्ता ढूंढ़ना था। मैंने सोचा कि दरियागंज किस दिशा में है, अब कम से कम मैं यह तो जानता हूँ। यह बात और थी कि जिस दिशा में वह मुझे लेकर चला था, दरियागंज उससे विपरीत दिशा में था। बाद में बहुत बार मैंने बहुत तरह से उस रिक्शावाले के बारे में सोचा, लेकिन कभी नहीं समझ पाया कि उसके मन में था क्या?
तो जी, मैं अब दरियागंज से तीन किलोमीटर था, यदि लालकिले के झंडे के ठीक सामने से उसकी दूरी अठाईस सौ मीटर हो और चार किलोमीटर था, यदि वह अड़तीस सौ मीटर हो। मुझे दूरी का कुछ भी अनुमान नहीं था लेकिन संख्याओं को इस तरह से सोचकर मुझे अच्छा लगा। मैंने अपने बैग में से एक हरी ज़िल्द वाली किताब निकाली और सड़क किनारे लोगों के आने जाने के लिए बने पक्के रास्ते पर बैठकर पढ़ने लगा।

हाँ हाँ, मैं जानता हूँ कि यहाँ अचानक दो प्रश्न उठ सकते हैं। पहला, क्या ऐसे समय में कोई किताब निकालकर पढ़ने लगना इतना ज़रूरी था और दूसरा, यह बैग अचानक कहाँ से आ गया?
तो हुज़ूर, आप इस मुश्किल समय में भी दृश्यों की कंटीन्यूटी में बहुत आस्था रखते हैं तो जब मैं पहली बार आपको दिखा, तभी मेरे कन्धे पर एक लाल-काला बैग टाँग दीजिए, जैसा डॉक्टरों से हर मरीज़ को अपनी कम्पनी की दवाई ही लिखकर देने का आग्रह करते रहने वाले एम आरों के पास होता है और जिसमें डॉक्टरों के लिए महंगे पेन, पेनस्टैंड, डायरी, घड़ियाँ, गणेशजी और मिठाई होती हैं। और निवेदन है कि भूल से भी मुझे एम आर मत समझिए।

दूसरे प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं एक गिलास पानी पी लेना चाहता हूँ। पास ही एक पानी बेचने वाला खड़ा है, इसलिए ज़्यादा मुश्किल नहीं होगी। मेरे पास दो का सिक्का है इसलिए वह ज़ोर देता है कि मैं दो गिलास पानी पी लूँ। दिल्ली की इस बेरहम गर्मी में एक अनजान आदमी का ऐसा आग्रह भला लगता है चाहे इसके पीछे उसका फायदा ही क्यों न छिपा हो। पानी पीकर मैं फिर लालकिले की ओर देखता हूँ। धूप में एक ठंडक सी घुल गई है।
क्या कहा? किताब पढ़ना क्या इतना ज़रूरी था?
ओहो! आप भी बिल्कुल आम हिन्दुस्तानियों की तरह ही हैं। बहुत सवाल करते हैं और कितनी भी मीठी ठंडी बातों में उलझाया जाए, उन्हें भूलते नहीं। लेकिन आपमें कमी भी वही आम हिन्दुस्तानियों वाली ही है। सवाल तो बहुत पूछते हैं, मगर वे मूल सवाल कभी नहीं, जिन्हें पूछते पूछते जान भी चली जाए तो भी उन्हें पूछा जाना चाहिए। आपने अब तक एक भी मर्तबा यह नहीं पूछा कि जेठ की इस भरी दुपहरी में इतनी परेशानियाँ मोल लेकर मैं कौनसी किताब खरीदने जा रहा हूँ?

तो जब मैं अकेला, आहत और खुरदरा हो रहा था और मई की एक शाम में एक फ़िल्म देखते हुए फूट फूटकर रोने लगा, जिसमें मुझे कम से कम कुछ जगहों पर हँसना चाहिए था और बाकी जगहों पर भी चुप रहकर देखना अपेक्षित था। मेरी पुरानी प्रेमिका ने मुझे मेरे नए नम्बर पर फ़ोन किया। वह पुरानी इस तरह थी जैसे वक़्त बढ़ता जाता है और बूढ़े होते हैं, पुराने होते हैं। वह पुरानी शराब जैसी थी और ऐसा लगता था कि शाम ढलने से पहले ही पीने लगती होगी। वह शराब पीती थी और कुरकुरे खाती थी और बेदर्द हँसियाँ हँसती थी, किताबें लिखती थी, नाम कमाती थी। वह मेरी ज़िन्दगी को छिपकली बना चुकी थी कि सिर्फ़ समय बढ़ता था और दुनिया की दीवार या फ़र्श पर मैं बिना कुछ हुए, किए बूढ़ा होता जाता था। समय की सुन्दर रेखा पर बताऊँ तो यह मसककली के बहुत पहले से बहुत बाद तक का बड़ा अंतराल था। जब उसने फ़ोन किया तो उसे दुबारा फ़ोन करना पड़ा क्योंकि पहली बार के फ़ोन के बाद मैंने आँसू पोंछे, मुँह धोया और गला साफ करने की कोशिश की। वह मीठी और नशीली थी। उसने मूँग के सिवा कोई दाल नहीं खाई थी और उसे कहानियों में लिखने के लिए उत्तर भारत में खाई जाने वाली सब दालों के नाम और स्वाद याद थे। यह संदर्भ से परे की बात है कि वह पसीने से भीगी हुई हाँफती रातों की चादरों की सलवटों से लेकर वातानुकूलित ऑडिटोरियमों के राजीव गाँधी, पंडित नेहरू और इन्दिरा गाँधी सम्मान समारोहों के आभारी और गदगद मंचों तक तक एक जैसी थी। जबकि मैं लाल मिर्च से लेकर गन्ने तक था।

- कैसे हो? क्या तुम अकेले हो?
- क्या तुम सिगरेट पी रही हो?
- हाँ, लेकिन मैं छोड़ दूँगी।
- इतने महीनों में मुझे लगा कि तुम्हारे जीवन में बहुत चकाचौंध हो गई है और तुम मुझे भूल गई हो।
- मैं शिमला में थी। मुझे एक किताब पूरी करनी थी।
- मुझे अब तक आश्चर्य होता है कि कोई इंसान किताब कैसे लिख सकता है जबकि मैं कोई बच्चा नहीं हूँ। यह तुम जानती हो। तुम्हें याद होगा। याद है?
- हाँ...
- शुक्रिया और जब मैं बच्चा था, तब समझता था कि कोई मशीन होती है...जैसे प्रिंटिंग प्रेस, जहाँ से किताबें अपने आप छपकर बाहर निकलती रहती हैं।
- आज मुझे तुम्हारी ऐसी ही बातों की बहुत याद आ रही थी।
- मेरी नहीं?
- शायद नहीं, लेकिन दोनों क़रीब क़रीब एक ही तो हैं।
- तुम्हारी सिगरेट ख़त्म हो गई?
- तुमने कैसे जाना?
- तुम क्या बताना चाहती हो?
- मैं चाहती हूँ कि तुम यह किताब पढ़ो।
- कौनसी?
- मेरी नई किताब, जो मैंने शिमला में लिखी है।
- क्या इसमें मैं हूँ?
- हाँ, तुम भी हो।

और जिन महीनों में मैं उसकी ज़िन्दगी में नहीं था, उसकी किताब में था। यह ख़ुश होने लायक बात थी, लेकिन न जाने क्यों मुझे पहाड़गंज के सीले चौबारे याद आए। मुझे छिपाने और खा जाने वाले उस घर के इकलौते दरवाज़े पर मैं बहुत देर तक चौंका हुआ सा खड़ा रहा। मैं जल्दी से जल्दी वह किताब पढ़ना चाहता था।

बहरहाल, मैं आपको अंडरएस्टिमेट नहीं कर रहा, लेकिन जानता हूँ कि आप अपना मूल प्रश्न भूल चुके हैं। वह जो हरी ज़िल्द वाली किताब थी, उसमें पूरी दिल्ली के नक्शे थे। मैं उनमें दरियागंज या आश्रय ढूंढ़ना चाहता था।

कभी ऐसे दिन भी थे, जब मैं समझता था कि शाम को सूरज मेरे घर की छत पर रखी सिंटेक्स की टंकी में डूबता है और इसी ख़ुमारी में डूबते उतराते मैं सुनहरे कलों के सपने देखता था। अपनी ठंडी ख़्वाबगाह का मैं अकेला राजा था और अपने अमीर पिता को अय्याश समझता था। सोचता था कि लानत है। सारी अमीर निठल्ली अमीर औरतों की तरह मेरी माँ एक समाज-सेविका थी और मैं सोचता था कि अपनी किस्मत ख़ुद बनाऊँगा, कुछ करूँगा। इसी सिलसिले में मैं अपने अहंकारी और मृदुभाषी पिता के प्रति कठोर होता गया। माँ के साथ कभी-कभार घूमते हुए जो सूनी सूनी सी आँखों वाले लुटे पिटे से लोग मैंने बचपन से देखे थे, मैं उनकी आँखों का रंग बदल देना चाहता था। माँ ऐसा नहीं चाहती थी। माँ उनकी आँखों पर बर्फ़ रख देना चाहती थी जिससे ठंडक होती और जब गर्मियाँ आती तो बर्फ़ पिघल जाती। फिर वे दुबारा माँ के पास आते या माँ उनके पास जाती और रिक्शों पर लदकर बर्फ़ आती, जिन्हें आदमी खींचते। माँ तब लाल रिबन काटती, बर्फ़ उठाती और उनकी कीच भरी गर्म आँखों पर फिर से रख देती। ऐसे क्षणों में माँ की आँखें सुख से मुँद जाती थीं और मैं हैरानी से उस कमज़ोर आदमी को देखता रहता, जिसके मज़बूत कन्धों पर माँ खड़ी होती। फिर जयघोष होता, मालाएँ लाई जाती-पहनाई जातीं और अर्थहीन लम्बे भाषण दिए जाते। मैं भी दुनिया बदलना चाहता था और दुनिया बदलने के लायक होने के लिए ज़रूरी था कि मैं कतार में सबसे आगे खड़ा रहूँ और सबसे ऊँचे पत्थर पर, जहाँ से मैं दूर दूर तक देखा जा सकूँ। मेरी आवाज़ इतनी बुलन्द हो कि भीमकाय मशीनें और खचाखच ट्रेफ़िक का शोर उसे दबा न पाए। मैं वही बात कहूँ, जो बहुत से और लोगों की बात हो, जिससे बहुत से और लोग मेरी बात मानें और मेरे साथ व पीछे चलें। मैं तब कॉलेज में था। माँ के नाम और पिता के धन से मैं नेता बन गया। यूनिवर्सिटी का प्रेजिडेंट। मैं मंजिल और मंजिल का महत्व जानता था, इसलिए उन रास्तों पर भी चला, जिन पर मैं थूकता था। मैं जवान था और सिर ऊँचा करके सपने देखता था। अब ऐसे लोग थे जो मेरे लिए जान भी देने को तैयार थे। भारत जवान हो रहा था और बहुत उम्मीद के क्षणों में मेरी आँखें ख़ुशी से भर आती थी। छात्रों की किसी सभा को सम्बोधित करते हुए पसीने से भीगे उनके उन्नत ललाट देखकर मेरा गला भर्रा जाता था और मैं पानी माँगता था, रूमाल माँगता था। मैं जोश में आकर माइक फेंक देता था और चिल्ला चिल्लाकर बोलता था। सब तालियाँ पीटते थे और मिलकर निर्णय करते थे। अकेली रातों में मैं उन सभाओं के बारे में सोचता था तो पाता था कि वे सब निर्णय मेरे मन के ही होते थे, जो मिलकर किए जाते थे। मैं सोचता था कि मैं बहुत पढ़ता हूँ और बहुत सोचता हूँ, इसलिए वे सब मेरी बात मानते हैं। वे सब मेरे साथ हँसते और मेरे साथ रोते थे। मैं उन्हें अपने पिता के पैसे उधार देता और भूल जाता। उनमें लड़कियाँ भी थीं। जो सुन्दर लड़कियाँ थीं, उनमें वह थी। वह सबसे पीछे रहती, सबसे कम बोलती और लगातार मेरी ओर देखती रहती।

- एक लड़की है कंचन। तुमसे मिलना चाहती है।
रघु, जो छात्रसंघ का उपाध्यक्ष था, एक दिन मेरे दफ़्तर में आया और जब तक मैं अख़बार से नज़रें ऊपर उठाता, कहकर चला गया। वह आई तो मैंने उस पीछे खड़ी रहने वाली लड़की का नाम कंचन जाना। मैं यहाँ से सीधे उस दृश्य पर कूदना चाहता हूँ, जिसमें तीन दिन बाद के इतवार की शाम में उसी दफ़्तर में हम दोनों फिर से हैं। शाम के कमरा-खुले उजाले में मैं उसे उसके बचपन के नाम गुड़िया से पुकारता हूँ, कहता हूँ, फुसफुसाता हूँ, बुदबुदाता हूँ, फूँकता हूँ, चबाता हूँ, पी जाता हूँ। लेकिन पहले बृहस्पतिवार।

वह आई और सामने बैठ गई। हमारे बीच की मेज पर जलती हुई मशाल हाथ में लेकर खड़े एक लड़के की छोटी सी मूर्ति रखी थी और उसके सिवा कुछ नहीं था।
- क्या आप वाकई बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसी बातें करते हैं?
उसने पहली बात यही पूछी। मुझे हैरत हुई और मैं हँस पड़ा।
- यदि आप ज़रा भी वैसी हैं, जैसी बात आपने अभी कही है तो आप मुझे अपनी ओर लुभाने लगी हैं।
- मैं बिल्कुल ऐसी ही हूँ।
- इनके बारे में आप क्या सोचती हैं?
महात्मा गाँधी की एक बड़ी सी फ़ोटो मैंने अपने पीछे की दीवार पर लगा रखी थी। मैंने उसकी ओर इशारा करके पूछा। किसी भी इंसान को एक बार में जानने के लिए मैं उससे यही प्रश्न पूछता था।
- मैं कोशिश करती हूँ कि मैं एक व्यक्ति के नहीं, हम सबके बारे में सोचूँ।
और उसकी आँखों में दृढ़ निश्चयी झूठ था जैसा मैंने कभी किसी और की आँखों में नहीं देखा। उसके हाथ, जो स्थिर थे और उसके पैर, जो ज़मीन पर ऐसे जमे थे जैसे हमेशा से वहीं हों, उसके हर शब्द के अभिनय में उसका साथ दे रहे थे। मैं उठकर उस तक गया और उसके पीछे उसकी कुर्सी की पीठ पर हाथ रखकर खड़ा हो गया। वह ज़रा भी नहीं काँपी, जैसे आगे खड़ी होकर नारे लगाने वाली और चिल्लाने वाली लड़कियाँ एकबारगी काँप जातीं। मैंने उसे छुआ नहीं। आख़िर उसके हाथ उठे और वह मशाल वाली मूर्ति उठाकर उसे घुमा घुमाकर देखने लगी। उसने मुड़कर मेरी ओर नहीं देखा।

- तुम मुझसे क्या चाहती हो?
उसकी उपस्थिति में कुछ था, जो बार बार अनौपचारिक हो जाने को प्रेरित करता था।
- मैं बस इतना चाहती थी कि आप सब सच समझें। और कुछ नहीं।
वह उठकर मुस्कुराकर पलटी और कहकर चली गई।

उस शाम मैंने ग़ौर किया कि मेरी माँ के संगठन में माँ को छोड़कर एक भी औरत नहीं है। न ही मेरे घर में कोई नौकरानी थी और न ही छात्रसंघ के पदाधिकारियों में कोई लड़की। जबकि पार्टी में बहुत सी लड़कियाँ थी जो परीक्षाओं में अव्वल आती थीं, दावतों में कहकए लगाती थी और वार्षिक समारोहों में स्टेज पर नाचती भी थी। मैंने उन्हें भीड़ में खड़े तो देखा था लेकिन उस मंच पर या उसके बराबर में कभी नहीं, जहाँ रघु, कुलदीप, सुरेश, जीवन और मैं खड़े होते थे। उसी शाम मैंने एक बैठक बुलाई और कहा कि एक पद होगा – पार्टी में भी और छात्रसंघ में भी – जिस पर सिर्फ़ लड़कियाँ होंगी, अब से हमेशा तक।

पद का नाम रखा गया जॉइंट सेक्रेटरी यानी संयुक्त सचिव। यूँ मैंने इतिहास से स्त्री विमर्श की छेड़खानी की और नीचे अपने हस्ताक्षर कर दिए।
शुक्रवार को संयुक्त सचिव पद के लिए मैंने कंचन का नाम प्रस्तावित किया जबकि नीलम नाम की रघु की एक पक्की प्रेमिका थी, जो बहुत ख़ूबसूरत थी; कुलदीप की बहन मनप्रीत थी जिसके पीछे सारी सिख लड़कियाँ थी और राधा थी, जिसके पिता डीन थे। हमेशा की तरह मेरा प्रस्ताव सबने मान लिया। फिर शाम को एक नाटक हुआ क्योंकि नई संयुक्त सचिव ग़ायब थी। उसके घर पर ताला लगा मिला, उसका फोन स्विच्ड ऑफ था और मेरे दफ़्तर से निकलने के बाद से उसे किसी ने नहीं देखा था। वह अपने भाई, भाभी और बूढ़ी माँ के साथ गायब थी और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था। जब शाम को मैं अपने कमरे में शर्ट बदल रहा था और शर्ट लाल भी नहीं थी और लेटरबॉक्स भी नहीं, उसकी जेब में से एक कागज़ निकलकर नीचे गिरा। मैंने उठाकर देखा। लिखा था- मैं इसके लिए आपसे मिलने नहीं आई थी

लिखावट बहुत साफ थी और मुझे बहुत अच्छा लगा। उसी रात दस बजे मैं उसके घर पहुँचा। वे सब लौटकर आ चुके थे। उसके भाई के मुँह से शराब की बू आ रही थी। वह दरवाज़े पर ही मुझसे कई बेतुके सवाल पूछता रहा। फिर वह आई और उसने अपने भाई को अन्दर भेज दिया।
- मैं कोई पद नहीं चाहती।
- हाँ, मैं जानता हूँ।
- मुझे लगा कि आपने मुझे उन लड़कियों की तरह समझा है जो छोटी छोटी उपलब्धियों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं।
- नहीं, मैंने किसी भी दूसरी लड़की की तरह तुम्हें नहीं समझा।
- मुझे आप पर भरोसा है – उसने रुककर अन्दर की ओर देखा – लेकिन प्लीज़...आइन्दा आप ऐसे समय पर घर मत आइएगा।
- मैं नहीं चाहता कि किसी भी समय तुम्हारे घर आऊँ।
- नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था।
- मैं सच में चाहता हूँ कि तुम यूनिवर्सिटी के इतिहास की पहली संयुक्त सचिव बनो।
- मैं संगठन के लिए काम करना चाहती हूँ।
- वह तुम संयुक्त सचिव बनकर भी करोगी।
- आप नीलम को बना दीजिए। मेरे कहने पर...
पहली बार वह थोड़ी नर्म पड़ी थी और उसने ऐसा कुछ कहा था, जिसे आग्रह की श्रेणी में डाला जा सके। उस दिन मैं बाहर से ही लौट आया मगर वह सब रास्तों पर बहुत अन्दर तक आ चुकी थी। मैं चाहता था कि नीलम को संयुक्त सचिव बनाने का प्रस्ताव वह रखे, लेकिन उसने इनकार कर दिया। हाँ, मेरे कहने पर वह उस बैठक में ज़रूर आई, जिसमें हम सबने मिलकर नीलम को संयुक्त सचिव घोषित किया।

शनिवार शाम को नीलम ने एक बड़ी पार्टी दी। शराब बहुत थी और लड़के-लड़कियाँ देर तक नाचते रहे। मैं अपने बचपन से ही ऐसी पार्टियाँ देखता आ रहा था, इसलिए मुझे ख़ास उत्साह नहीं होता था। दूसरी वज़ह यह भी थी कि मैं शराब नहीं पीता था। मैं पार्टी में नहीं गया। यह किसी ने माँ को बता दिया और वह मुझ पर बहुत नाराज़ हुई। माँ के बड़े सपने थे जिन्हें मैं शराब जैसी छोटी चीज के लिए कभी कभी ताक पर रख देता था।

एक ‘नहीं’, नकार की एक ध्वनि तमाम संसाधनों और संभावनाओं के बावज़ूद कानों और दिमाग पर चिपककर बैठ गई है। वह शाम आज भी हर छोटे बड़े शहर में वैसी की वैसी मौज़ूद है। मगर वे लोग, जो बेसुध होकर नाच रहे थे और अपने जैसे दूसरे लोगों के आलिंगन में थे, उनमें से ज़्यादातर की याददाश्त इतनी कमज़ोर थी कि अब याद करने पर भी उन्हें वह शाम याद नहीं आती होगी। उनमें से बहुत सी लड़कियाँ शादी करके कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में बस गई हैं। सप्ताहांतों में वे अपने थुलथुले बदन वाले पतियों के साथ पबों में जाकर वोदका पीती हैं और बेढंगा नाचती हैं। उनकी कमरों की उस शाम की लचक को अपने साथ लेकर रघु पार्टी में से गायब हो गया। उसे आख़िरी बार किसी ने नहीं देखा। किसी ने उसे नीलम के साथ नाचते देखा, किसी ने पानी पीते हुए और किसी ने कुर्सी पर अकेले गुमसुम बैठे हुए, लेकिन सबको यक़ीन था कि वह आख़िरी बार नहीं था। जब ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ करवाई गई तो यह नहीं लिखवाया जा सका कि उसे अंतिम बार किसने और कहाँ देखा था।

संगठन में मेरे बाद रघु दूसरा था। मैं बीमार या बाहर होता था तो वही सारे निर्णय लेता था। हम दोनों एक दूसरे की बहुत इज्जत करते थे और हमारे बीच दोस्ती जैसा कुछ नहीं था। रघु में ऐसी स्वाभाविक कोमलता थी जो मेरी माँ के गर्भ में नौ महीने रह चुकी संतान में लाख कोशिश करके भी नहीं आ सकती थी। वह मासूमियत, जो बिना खिलौनों और आईसक्रीम वाला बचपन ही पैदा कर सकता है। अपने जोशीले भाषणों के उलट वह आमतौर पर शांत ही दिखता था। उसके बहुत सारे दोस्त थे, लेकिन ऐसे एक दो लोग ही होंगे, जिनसे वह अपने मन की बात कहता था। मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता था, जो उसका विरोधी हो। हमारी विरोधी पार्टी के बीसियों लड़के उसके अच्छे दोस्त थे।

          जब वह इतवार सुबह तक घर नहीं पहुँचा तो ढूँढ़ मची। मैं भी बाकी लड़कों के साथ घंटों तक शहर भर में ढूँढ़ता रहा लेकिन वह हमारे बीच से अपना आख़िरी शनिवार लेकर हमेशा के लिए लापता हो गया था। हम अस्पतालों में जाकर पूछते थे तो एक झल्लाई हुई नकार मिलती थी, घरों और गलियों में एक उत्सुक नकार अपने अपने दरवाज़े पर खड़ी होकर हमें दौड़ते और हताश होते देखती रहती थी। संगठन के लड़कों की माँएं चिंतित होती थीं और बहाने ढूँढ़-ढूँढ़कर अपने बेटों को बार बार फ़ोन करती थी। ऐसा कई दिन तक चला, लेकिन पहले इतवार।

शाम के सात बजे थे। यूनिवर्सिटी में उसी नकार का सन्नाटा पसरा था। दिनभर की भागदौड़ से थका मैं छात्रसंघ के दफ़्तर में अकेला बैठा था। वह आई। कंचन। उसने काले रंग की ब्रा पहन रखी थी। रुकिए, सबसे पहले मैं उस अनुभव से अपने आपको पूरा अलग करता हूँ। क्योंकि उस शाम के बाद मुझे कभी नहीं लगा कि मैं उसमें शामिल था। मैं जैसे बाहर बास्केटबॉल कॉर्ट के अब तक गर्म फ़र्श पड़ा सब कुछ देख रहा था। कमरे की दीवारों का पलस्तर उखड़ा हुआ था और उसी तरह मैंने जाना कि मैं पहला आदमी नहीं था, जिसने काला रंग उसके शरीर से उतार फेंका हो। बहुत ज़गह नहीं थी। मेज थी, जिसके कोने टूटे हुए थे और तीन चार कुर्सियाँ थीं। फ़र्श पर अख़बार के पन्ने और एक चिप्स का खाली पैकेट गिरा पड़ा था। ऊपर पंखा चल रहा था जो कभी कभी दूर से सुनाई देती मन्दिर की घंटियों सी आवाज़ करता था। कमरे में धूल थी, दीवारों से उतर गिरने को तैयार कीलें थीं, कीलों पर तस्वीरें और कैलेंडर थे। कुछ भी रूमानी नहीं था। मैं चाहता था कि नीचे हरी घास होती जो मेरे कपड़ों पर यहाँ वहाँ चिपक जाती जिसे अगली सुबह तक छुआ और सूँघा जा सकता। मैं घर लौटता और कपड़े बदलता तो दो तीन लम्बे लम्बे बाल मेरी शर्ट के कॉलर पर चिपके होते। मैं आईने में अपना चेहरा देखता और हँस पड़ता। मगर ऐसा कुछ भी नहीं था। सब कुछ बहुत हिंसक था। हम इतनी हड़बड़ी में थे कि हमने चौपट खुले दरवाज़े की ओर देखा और उसे बन्द नहीं किया। मुझे याद नहीं आता कि हमने एक भी शब्द एक-दूसरे से कहा हो।

मैंने उसके कान में जो बार बार गुड़िया गुड़िया कहा था, क्या वह कुछ हफ़्तों या सालों बाद के किसी दिन की बात थी या मैं किसी लम्बे सपने में देर तक बड़बड़ाता रहा था या उस दिन भी बैठकर हमने चाय पीते हुए ढेर सारी बातें की थीं और उसने अपने बचपन के बारे में बताया था, जब उसका सपना था कि एक दिन वह सौ दो सौ गोलगप्पे खाए और कुछ भी नहीं था, केवल एक भ्रम था, जिसमें मैं गले तक डूब गया था?

मगर मुझे इतना याद है कि मेरी पीठ पर खरोंचें थीं, जिन्हें मैं नहीं देख पा रहा था और घर लौटने के बाद बार बार आईने के सामने मुड़कर खड़ा होता था और गर्दन घुमाकर कुछ देखने की कोशिश करता था और नाकाम होता था।

हमारे हवादार कमरों और गद्देदार बिस्तरों के बाहर एक बहुत बड़ा देश है, जिसमें पचास करोड़ से ज़्यादा लोग हर रात सोने से पहले यह नहीं जानते कि वे कल सुबह कुछ खाएँगे या नहीं। यह विश्वविद्यालय और यह पार्टी हमारा रास्ता है, जिसके जरिए हमें उन लोगों की नींदों तक पहुँचना है और उनके सोने में यह यक़ीन भर देना है कि बाहर खेतों में एक सुबह उगेगी, जिसमें उनका भी हिस्सा होगा। हमें इस शहर की चिकनी सड़कों से होते हुए गाँवों के उन कच्चे घरों में जाना है और उनके आँगनों में अपने अधिकार पाने की ज़िद रोपनी है। आओ.... – और रघु शेर की मानिन्द दहाड़ता था- ...और इस तपते सूरज को साक्षी मानकर मेरे साथ प्रण लो कि जब तक वह दिन नहीं आएगा, हम एक भी रात चैन से सो नहीं पाएँगे। तब तक हम हर पल यूँ जिएँगे, जैसे दिन काट रहे हों, किसी पर अहसान कर रहे हों।

जबकि अगले कई दिनों तक नहर और रेलवे लाइनों पर बाईस तेईस की उम्र के लड़कों की कई न पहचानी जा सकने वाली लाशें मिलीं, मुझे पूरा विश्वास है कि रघु मरा नहीं था। वह ऐसा था कि जब तक उसका मिशन पूरा नहीं होता, भीष्म पितामह की तरह मृत्यु को प्रतीक्षा करने के लिए कह सकता था। इसीलिए कुछ महीनों बाद जब बाड़मेर से ख़बर आई कि एक दाढ़ीवाला लड़का है, जो कुरता पाजामा पहनता है और गाँवों में घूम-घूमकर जल संरक्षण के नए नए तरीके विकसित कर रहा है (...और राजधानी में बहुत सारे मंत्री हैं जो अपने भाषणों से बहुत हँसाते हैं और भीड़ बटोरते हैं। पानी नहीं बरसता, पाँच साल से अकाल है और इस पर उन्हें बहुत सारी तुकबन्दियाँ याद हैं...) तो मैंने यही माना कि वह रघु ही है।

कुछ और महीने बाद बिहार में एक इंजीनियर को मार दिया गया (नहीं, वह नहीं मरा, मैं कहता हूँ), जो सड़क निर्माण के एक बड़े घोटाले की कलई खोल रहा था तो मैंने यही माना कि वह रघु ही है, जिसने पिछले कई सालों तक रातों में छिप छिपकर हम सबको बताए बिना इंजीनियरिंग की पढ़ाई की होगी। कुछ और महीने बाद मैंने सुना कि छत्तीसगढ़ में एक नौजवान आदिवासियों को पढ़ा रहा है। कुछ और महीने बाद वह महाराष्ट्र के पिछड़े जिलों में गरीबों का मुफ्त इलाज़ कर रहा था।

कितनी क्षमताएँ थी उसमें! हमारे साथ की उन रातों में छिप छिपकर कितना पढ़ा होगा वह!
फिर एक था, जो उत्तरप्रदेश के भू-माफिया से अकेला लड़ रहा था। फिर एक औरत थी, जो कलकत्ता की तंग गलियों से कोढ़ियों को उठा उठाकर लाती थी और उनकी सेवा करती थी। उस औरत को छोड़कर बाकी सब रघु ही था।

अगली शाम जब मैं अँधेरे में था, नीलम ने मुझे फ़ोन किया।
- मुझे लगता है कि मेरे जॉइंट सेक्रेटरी बनने का रघु के गायब होने से कुछ लेना देना है।
- हो सकता है।
- मैं यह पद छोड़ना चाहती हूँ।
- पहले तुम मुझसे मिलो।

कभी कभी मुझे भ्रम होता है या यह मेरी ध्वस्त चेतनाओं का परिणाम भी हो सकता है कि मेरी ज़िन्दगी में जो भी औरतें थीं, सब एक जैसी दिखती थी। मैं उन्हें याद करता हूँ तो एक ही चेहरा याद आता है, एक ही बोलने का ढंग , एक ही हँसी, एक ही रोना। यह वैसा ही है जैसे बचपन में मुझे सब सरदार एक जैसे लगते थे या जैसे मैं तितलियों या बन्दरों को उनके अलग अलग चेहरों से नहीं पहचान सकता। वह चेहरा सबका है और किसी का भी नहीं है। वह खूबसूरत है लेकिन उसमें एक विकृति है जिसे पिन पॉइंट करके भी नहीं बताया जा सकता। वह हँसी भयानक भी है और भोली भी। उनका रुदन निरीह है और निर्लज्ज भी। वह चेहरा मेरे दिमाग को पूरा ढक लेता है और मैं कुछ भी नहीं कर पाता। जब नीलम आई तो मुझे लगा कि माँ आई है। माँ के हाथ में दूध का एक गिलास है और उसके हाथ में कुछ भी नहीं था। जैसे वह कोई अय्यार है, जो रूप बदलना जानती है या जैसे दो हाथ मेरा गला दबोचने के लिए बढ़े आ रहे हैं।

हम बहुत देर तक चुप रहे। वह और रघु जल्दी ही शादी कर लेने वाले थे। मैं न तो उसे कोई सांत्वना दे सकता था और न ही देना चाहता था। फिर चाय आ गई।
- मुझे लगता है कि रघु की किसी ने हत्या कर दी है।
बिना किसी भूमिका के वह अचानक बोली।
- किसने?
- मैं नहीं जानती। कोई भी हो सकता है। तुम भी।
- क्या तुम्हें सचमुच ऐसा लगता है?
- सचमुच नहीं, लेकिन मुझे किसी पर भी भरोसा नहीं होता।
- लेकिन भरोसा न करने का कोई कारण भी तो होना चाहिए।
- बहुत कारण हो सकते हैं। मसलन हो सकता है कि तुम्हें वह अपनी कुर्सी के लिए ख़तरा लगता हो। तुम जानते ही हो कि लड़के पागलों की तरह उसकी बात मानते हैं...या हो सकता है कि कोई और हो, जिसके पास और भी बड़ी वज़ह हो, जो हम सोच नहीं पा रहे।
- तुम बहुत दुखी हो नीलम। तुम कुछ दिन तक कुछ मत सोचो।
- मैं संयुक्त सचिव नहीं रहना चाहती। मैं ऐसी किसी चीज के साथ नहीं जी सकती, जिसने मेरे रघु को मुझसे छीना है।
- तुम जानती हो कि ऐसे वक़्त में यह कितनी गैर ज़िम्मेदाराना हरक़त है? तुम पद छोड़ोगी और फिर पूरे कॉलेज में यह बात कहती फिरोगी कि हो सकता है, मैंने ही उसे मारा हो। वे पूछेंगे...क्या तुम्हें सच में मुझ पर शक़ है? तुम कहोगी...नहीं, मैं पक्का नहीं कह सकती। क्या वे यह बात मानेंगे? वे सब बेवक़ूफ हैं...सबके सब आधी बात सुनते हैं और उसका आधा याद रखते हैं। उन्हें बस पहला हिस्सा ही याद रहेगा कि हो सकता है कि मैंने रघु को मरवाया हो....यह दिन भर उनके बीच में और उनके भीतर गूँजेगा। उन सबकी याददाश्त का कितनी तेजी से क्षरण होता है...तुम नहीं जानती। यह ‘हो सकता है’ वे धीरे धीरे भूल जाएँगे....और उन्हें तीन शब्द ही याद रहेंगे...और उन शब्दों की ध्वनियाँ....मैं...रघु...हत्या।
- क्या तुम सच में उन सबको बेवक़ूफ मानते हो?
- क्या यह प्रश्न अपना उत्तर पा लेने के बाद नहीं पूछा गया है?
- मैं सच में जानना चाहती हूँ।
वह ऐसे पूछ रही थी जैसे उसके पास कोई टेप रिकॉर्डर है और अब मैं एक बार भी यह बात बोला तो वह टेप कर लेगी और फिर एक रिक्शा पर लाउड स्पीकर रखकर यह गली गली सुनवाती घूमेगी, जैसे वे बोलते हैं- आपके शहर में तारीख़ पन्द्रह से आ रहे हैं जादूगर शंकर।
- मैं नहीं बताना चाहता और तुम चाहो तो पद छोड़ सकती हो।
वह चलने लगी तो मैंने कहा- मुझे तुमसे सहानुभूति है और मैं चाहता था कि तुम्हारे लिए कुछ कर पाऊँ।
वह रुक गई।
- क्या तुम सच में यह चाहते हो?
- तुम इस तरह हर प्रश्न में ‘सच में’ जोड़कर क्यों पूछती हो जैसे मैं वर्षों से सुबह शाम झूठ बोलता रहा हूँ?
- मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.... – वह एकाएक आई और मुझ से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी -  लेकिन मैं मज़बूत नहीं हूँ और मज़बूत दिखना चाहती हूँ। इस चक्कर में मैं पागल सी हो गई हूँ...और बहुत चिड़चिड़ी। मुझे सँभाल लो। बचा लो मुझे।

मैं भी भावुक हो गया। मैंने बोलना चाहा तो पाया कि मेरा गला भर्राया हुआ है। मैंने सोचा कि कभी कभी दिलासा के ग्रंथ लिख देने से बेहतर होता है कि आप किसी के गले लगकर खड़े रहें, उसकी तड़पती हुई साँसों को अपने सीने के स्पन्दनों में महसूस करते हुए, ‘फा’ के परफ़्यूम को अपनी साँसों में उतरते सुनते हुए और अचानक आप उसके भीगे हुए चेहरे को अपनी हथेलियों से पोंछें और माथे पर गिरे हुए बाल हटाकर माथा चूम लें। यह बेहतर विकल्प है जो कभी कभी आपको डुबा ले जाता है।

हाँ, मुझे याद है कि एक देश है, इन गद्देदार बिस्तरों से दूर, लेकिन नीलम के नाक में सोने की एक नथ है और रोते रहने से उसकी नाक लाल हो गई है। हाँ, पहुँचना है हमें उन कच्चे लोगों...नहीं, कच्चे घरों में रहने वाले लोगों की नींदों तक, लेकिन उससे पहले एक नशा मुझ पर तारी है, जिसमें डूबकर मैं सोना चाहता हूँ। बहुत सारी लम्बी सड़कें हैं, बहुत शब्द और उन शब्दों में गहरी आस्था, मगर नीलम, जितनी लड़कियाँ मैंने देखी हैं, उनमें से तुम दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की हो और तुम जानती हो....मैं इस देश को बदल देना चाहता हूँ...और मुझे तुम्हारी फिक्र भी है...रघु मुझमें भी एक खालीपन भर गया है...वह तब मुझे छोड़कर गया है, जब मुझे उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। मैं संसार की किसी नैतिकता को नहीं मानता और अनीतियों को भी रौंद डालना चाहता हूँ। मैं तुमसे प्रेम तो दूर, कुछ भी नहीं करता नीलम...और न कभी कर पाऊँगा..पर मैं इस वक़्त तुम्हें अपने बेड पर बैठे हुए देखते रहना चाहता हूँ...और हम तय करेंगे कि हमें क्या करना है...भूखों को रोटी, अन्धों को आँखें और दिमागों को किताबें देनी हैं...मेरी माँ जैसी औरतों को मिटा देना है...मेहनतकश लोगों को महान कहना है...लेकिन नीलम, क्या तुम सुन पा रही हो, जो मैं सुन रहा हूँ? मैंने तुम्हें सँभाला है या तुम मुझे सँभाल रही हो? तुम तकिया हो गई हो नीलम, तुम ही चादर, तुम ही लिहाफ़, तुम छत, तुम आसमान।

बहुत दिन तक ऐसा होता रहा कि मुझे लगने लगा, मैं शराब पीने लगा हूँ। एक निर्वात मेरे अन्दर भरता रहा। वे लेखक, जो मुझे बहुत पसन्द थे, उनकी किताबें पढ़ना शुरु करता तो मुझे किताबों से वितृष्णा होने लगती। सब गहरी बातें सतही लगतीं और सतही बातें मुझे अपनी ओर खींचती। मैं अपने नियंत्रण से बाहर होता जा रहा था। ऐसे में अचानक एक दोपहर कुलदीप ने आकर मुझसे कहा कि ऐसा ही चलता रहा तो संगठन में अराजकता फैल जाएगी। कई विद्रोह एक साथ होंगे और सब कुछ डूब जाएगा, जिसमें मैं भी रहूँगा। मैं स्तब्ध सा था। पिछले कुछ दिनों की निष्क्रियता के लिए मेरे पास कोई स्पष्टीकरण नहीं था। हालाँकि मैं किसी को ज़वाबदेह नहीं था, लेकिन मुझे लगा कि मैं भूल से सोया रह गया था और अब, जब जाग गया हूँ तो मुझे सब फिर से सँभालना चाहिए।

बहुत दिन भी नहीं बीते थे। नीलम से मिलने के बाद के चार-पाँच दिन ही, मगर मैं रघु के गायब हो जाने पर एक दिन भटकने के बाद से घर में ही बैठा रहा था और नीलम मुझसे मिलने आई थी और...और कुछ नहीं।

मैंने कुलदीप से कहा कि वह एक आपातकालीन बैठक बुलाए। बैठक अगले दिन ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी के सीनेट हॉल में हुई। वह संसद की तरह अर्द्धवृत्ताकार हॉल था। बिल्कुल बीच में मैं बैठता था। वे सब मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं लम्बी कैद काटकर बाहर आया था। उनके चेहरों पर आक्रोश तनकर बैठा था।

- दोस्तों – कुलदीप ने बोलना शुरु किया – यह परीक्षा की घड़ी है। हम सब हताश हैं लेकिन हारे नहीं हैं। माना कि हम अपने दुश्मन को नहीं पहचानते लेकिन हमें इतना ज़रूर मालूम है कि वह है। निराशा की इस घड़ी में हमें कम से कम इस बात का तो संतोष होना चाहिए कि हम अधिकांश दुनिया की तरह इस भ्रम में नहीं जी रहे कि हमारा कोई शत्रु नहीं है...और यदि वह है तो हम उसे ढूँढ़ भी निकालेंगे और ख़त्म कर देंगे।

सब एक स्वर में कुछ चिल्लाए। मैं जैसे बाहर की दुनिया का कोई आदमी था और दफ़्तर जाता था, सब्जी खरीदता था और उनकी शब्दावली को नहीं जानता था। मैं खोया खोया सा बैठा रहा। कुछ लड़के उठकर मुझ तक आए और बोले कि उन्होंने सुना है कि मैंने रघु को मार दिया है। उनके ऐसा बोलने पर पीछे से भी कुछ लड़के चिल्लाए। मैं उन सबको जानता था। उनमें से चार सेकंड ईयर के थे और बाकी का नाम भी कहीं दर्ज़ नहीं था। पीछे वाले लड़कों ने जोश में आकर गाली दी और लड़कियाँ थी और वे लड़के अपने आप को भगतसिंह समझ रहे थे। दो लड़कियाँ भी चिल्लाईं। वे कॉमर्स की थीं। एक के कन्धे इतने उघड़े थे कि....

नहीं! यह समय है जो इतिहास में नए अध्याय की भूमिका में लिखा जाता है, जिसमें नंगापन होता है, युद्ध होते हैं और औरतें नहीं होतीं। औरतों को बाद के किसी पृष्ठ पर आना होता है।
मुझे क्रोध आया और वह नया पन्ना फाड़ फेंकने को मैं उठा। जो लड़का मेरे सामने था और जिसने सफेद टीशर्ट पहन रखी थी, जिस पर लिखा था – आई लव एन वाई, उसे मैंने थप्पड़ मारा। वह सीनेट हॉल का पहला थप्पड़ था, जिसके बाद एक ज़रूरी शांति छा गई। वह लड़का रो ही पड़ा और वे सब एक एक करके चले गए। मैं हथेलियों में चेहरा छिपाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। कुलदीप और जीवन ने आकर लाड़ से मेरा कन्धा थपथपाया। लड़के-लड़कियाँ मेरे चारों ओर इकट्ठे हो गए और कुछ भी कहने लगे। उन्होंने कहा कि वे सब मेरे साथ हैं और मैं ही उनका नेता हूँ। यह कहना ऐसा लगा जैसे अभी अभी दो चार लड़के-लड़कियों ने नहीं, उन सभी ने बेइज्जत करके मेरा पद और मुझ पर से विश्वास छीन लिया था और अब वापस लौटा रहे हैं। क्या वे अचानक डर गए थे कि मैं टूट जाऊँगा और मैं यूँ हथेलियों में चेहरा छिपाकर न बैठा होता और हँस रहा होता तो क्या वे मुझे उठाकर बाहर फेंक देते और मारते?

उन सबसे, जिनका मैं इकलौता और पसंदीदा नेता था, मुझे बहुत डर लगा। सब कुछ फिर से शुरु हुआ। मैं चुप ही बैठा था। कुलदीप ने कहा कि जब तक रघु का कुछ पता नहीं चल जाता, तब तक उपाध्यक्ष का पद सँभालने के लिए किसी और को चुन लेना चाहिए। कंचन उस दिन भी सबसे पीछे खड़ी थी और लगातार मेरी ओर देख रही थी। एकदम से सब लोग फिर कुछ चिल्लाए, जिसमें से मुझे बस तीन अक्षरों का एक शब्द ‘नीलम’ समझ आया। मेरी नज़रें और ध्यान कंचन पर ही था। उसने एक क्षण को सिर झुकाया और आँखों पर हाथ फेरा। क्या वह रो रही थी?
नहीं, वह कभी नहीं रो सकती।

कुलदीप ने आकर मुझसे कहा कि नीलम के बारे में मेरी क्या राय है? मैं कुछ बोलूँ।
- क्या बोलूँ मैं?
- क्या तुम भी यही चाहते हो?
- यही क्या?
- जो सब चाहते हैं?
हाँ दोस्त, चूंकि मैं सबका प्रतिनिधि हूँ और मुझे वही चाहना चाहिए, जो सब...। लेकिन क्या चाहते हैं सब? मैंने नहीं सुना। मेरे कान कहीं और लगे थे। कोई बताओ मुझे। सब चिल्लाते ही क्यों हैं? एक एक कर शांति से अपनी बात क्यों नहीं कहते?

मैंने देखा कि कुलदीप फिर से खड़ा हो गया है और कह रहा है कि मैं भी इसी में ख़ुश हूँ कि नीलम को उपाध्यक्ष बना दिया जाए। सब फिर से चिल्लाए। लड़कियों ने नीलम को अपने कन्धों पर उठा लिया और नाचने लगीं। नीलम मुस्कुरा रही थी और मैं जानता था कि मुस्कुरा नहीं रही है।

तभी वह तेजी से मेरे सामने की भीड़ को चीरती हुई मुझ तक आई। वह। कंचन। वह मुझ पर झुकी और उसने मेरे होठों पर अपने होठ रख दिए और उसकी आँखें बन्द हो गईं, मेरी नहीं। वह मेरी गति, स्थिरता, होश और बेहोशी पीती रही। उसने अपनी बाँहों से मेरी पीठ पा ली और अपनी परछाई में मेरा अस्तित्व छिपा लिया। सब कुछ फ़्रीज़ हो गया।

रघु की एक माँ थी और एक पिता। बस रघु ही नहीं था। उस शाम जाने कहाँ से मेरा पता पूछकर उसकी माँ मेरे घर आ गई। मैं उन्हें नहीं जानता था। उनकी निरीह सी आँखें मेरे घर में इधर-उधर डोल रही थीं। जब वे बैठी थी और पीछे कोई फ्रिज़ खोलता तो वे तपाक से मुड़कर देखती थीं, जैसे मैंने उसे फ़्रिज़ में छिपाकर रखा हो। कुछ देर तक वे मुझे बेटा, बेटा कहकर कहती रही कि मैं कोशिश करूँगा तो वह मिल जाएगा। मैंने कहा कि हाँ, मैं कोशिश कर रहा हूँ। तभी अचानक – जैसे वे पहले से इसी के लिए तैयार होकर आई थीं और जैसे मैंने उनके पैर नहीं छुए थे और जैसे उन्होंने आशीर्वाद नहीं दिया था – वे उठीं और मैं बैठा था, मेरे पैरों से आकर लिपट गईं और रोने लगीं। कहने लगी कि भगवान के लिए मेरे बेटे को लौटा दो। मैं उसे लेकर कहीं और चली जाऊँगी। कोई हमारा पता भी नहीं जानेगा। वह कुछ नहीं बोलेगा, कहीं नहीं जाएगा, कुछ नहीं करेगा। उसे वापस दे दो...मैं पहले ही उसे समझाती रहती थी कि यह राजनीति हम लोगों के बस की चीज नहीं, मगर ज़िद्दी था वह...था नहीं बेटा, ज़िद्दी है मेरा रघु...मगर दिल का बहुत साफ है बेटा। उसके बदले मुझे यहीं मार दो बेटा। मैं एक भी आँसू नहीं बहाऊँगी।

मैंने रघु को कई बार धूप में अपनी माँ के साथ कॉलेज में देखा था। मुझे लगता था कि वे कभी कभी ज़िद करके उसके साथ चली आती होंगी। जब वे साथ होती थी तो वह छतरी लेकर आता था। वह छतरी हाथ में थामे रखता और वे दोनों उसके नीचे बने रहने की कोशिश में सटकर चलते थे। छतरी शायद एक बहाना ही थी और हो सकता है कि वे कुछ दूर पास पास रहकर चलना चाहते हों। तब रघु बिल्कुल आठ-नौ साल का बच्चा दिखता था। सड़क पार करते हुए वे दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। वे दोपहर में यूनिवर्सिटी की कैंटीन में खाना खाते थे। लड़के लड़कियों के शोर-गुल, गाली-गलौज और हँसी-मज़ाक के बीच में बैठकर और उन सबसे बिल्कुल अलग। वे ज़्यादातर परांठे और छोले की सब्जी खाते थे। उसकी माँ एक मिडिल स्कूल में पढ़ाती थी और मुझे जाने क्यों लगता था कि जब वह सच में छोटा होगा...चार-पाँच या आठ-नौ साल का तो अक्सर ज़िद करने लगता होगा कि वह अपने स्कूल नहीं, माँ के साथ जाएगा और माँ उसे अपने साथ बस में बिठाकर गाँव के स्कूल में ले जाती होगी। वह लड़कियों का स्कूल था। माँ पढ़ाती तो बड़ी लड़कियों का लाडला बनकर उनके बीच में बैठा वह मुग्ध सा होकर माँ को देखता रहता।

यह धूप है बाहर...और एक अस्त-व्यस्त सी औरत, जो बन्द कमरे की कूलर की ठंडक में भी पसीने से भीगी हुई है और तुम्हारे पैरों को चूम चूमकर गिड़गिड़ा रही है कि तुम उसके बेटे को छोड़ दो। वह पचास बावन साल की औरत कहती है कि कुछ भी कर लो मेरे साथ, मगर मेरे बेटे को लौटा दो। तब तुम चाहते हो कि काश, अपने घर के किसी अँधेरे कमरे को तुमने क़ैदख़ाना बना रखा होता और तुम तेजी से जाते, ताला खोलते और भीतर एक कोने में सिमटकर बैठे हुए रघु से कहते कि वह यहाँ से निकलकर भाग जाए, वहाँ जहाँ आसमान, हवा और माँ है।

ऐसा क्यों होता है कि बदहवास से होकर महीनों तक तुम हर रोज़ अपने घर का चप्पा-चप्पा, कमरा-कमरा छान मारते हो और फिर हारकर निढाल से अपने बिस्तर पर औंधे पड़ जाते हो और तुम्हारे पैरों पर एक नंगी शर्मिन्दगी चिपकी हुई है जो नींद में भी तुम्हारा पीछा करती है। तुम हर रात सपने में एक धारदार कुल्हाड़ी या चाकू या ब्लेड से एक पेड़ काटते हो और भरे-पूरे जंगल में देर तक लेटकर रोना चाहते हो, लेकिन एक आँसू भी नहीं टपकता। बाहर, जहाँ शहर है और शोर, जहाँ सपने, हौसला और जीवन है, जहाँ लड़कियाँ, शरीर और प्रेम है, जहाँ साहस, संघर्ष और बलिदान है, वह बाहर तुमसे अपनी पहचान खो देता है और तुम अपने अन्दर के अँधेरे में उतरते चले जाते हो।
नि:शब्द, अकेले, नंगे।

अन्दर कौन है? कुहासे में लिपटे खड़े सूखे हुए ठूंठ और शून्य, जिसे लोग ईश्वर कहते होंगे। लेकिन ईश्वर कहीं नहीं है। सिर्फ़ एक अँधेरा है जिसमें तुम ऐसे दुबक जाना चाहते हो, जैसे जन्म के तुरंत बाद माँ ने तुम्हें अपनी छाती के सुरक्षित ब्रहांड में छिपाकर बहुत सारा प्यार किया होगा। वह तुम्हारी एक दुनिया थी। यह एक और दुनिया है- बाकी सब लोगों की दुनिया, जिसमें तुम मेहमान हो या मेहमान भी नहीं, सिर्फ़ पेइंग गेस्ट। यहाँ लोग तुम्हारे पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाते हैं, भीख माँगते हैं। यहाँ तुम्हें लोग बेवज़ह थप्पड़ मार देते हैं और तुम सिर झुकाकर चुपचाप खड़े रहते हो जैसे वे बच्चे, जिनकी माँएं या पिता उन्हें यह कहकर पीटते रहते हैं कि रोने की आवाज़ आई तो और पिटोगे। वे पाँच-छ: साल के बच्चे, जिन्हें उस गहन दुख से उबरने के लिए फिर उन्हें निर्दयी माँ-बापों की शरण में आना पड़ता है और वे तुरंत सब कुछ भूल जाते हैं क्योंकि उनके पास जीने के लिए कोई और विकल्प नहीं है और फिर माँएं उन्हें अपनी गोद में लेकर दुलारती हैं, जैसे यह प्रायश्चित है, उनके उस गुस्से का, जो अक्सर उनके लालच, झूठ और विश्वासघात से कलंकित होता है। लेकिन प्रायश्चित कभी नहीं होता। नर्क कहीं नहीं है, लेकिन प्रायश्चित है कि वे माँएं उसे ढूँढ़कर लाएँ और ढूँढ़ नहीं सकती तो अपनी ज़िन्दगी में एक नर्क रचें और मरने तक उसमें जलती रहें।

यह एक और दुनिया है जिसमें तुम किसी अजनबी शहर के रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े होकर कंचन का इंतज़ार कर रहे हो और वह ऑटो में बैठकर आती है। रात भर के सफ़र की थकान के निशान तुम्हारे चेहरे पर हैं। तुम्हारे बाल बिखरे हुए हैं और तुम इस तरह खड़े हो, जैसे संसार की कोई भाषा नहीं जानते। वह ऑटो से उतरते ही तुम्हारे गले लग जाती है। तुम्हारे होठों पर मुस्कान खिलती है। तुम सौ का एक नोट निकालकर ऑटो वाले को पकड़ा देते हो और बचे हुए पैसे वापस नहीं लेते। यह उसकी बोहनी का वक़्त है। सुबह के साढ़े सात बजे हैं। कंचन के बाल गीले हैं और जब वह अपनी बाँहों के दायरे में तुम्हें भींचे हुए है, उन्माद पैदा करने वाली एक ख़ुशबू तुम्हारी आत्मा तक उतरती जाती है। कुछ क्षण के लिए तुम्हें एक अभूतपूर्व तृप्ति का अहसास होता है। तुम चाहते हो कि वह कुछ न बोले, क्योंकि बोलते हुए चेहरे अक्सर अपने दृश्यों की महानता को फीका ही करते हैं। जैसे लोग तब तक ज़्यादा महान लगते हैं, जब तक तुम उन्हें देख नहीं लेते। जब तुम देख लेते हो और उन्हें बोलते हुए नहीं सुनते, तब तक भी कुछ ठीक लगते हैं। लेकिन जब वे बोलते हैं - कोई एक नहीं, सब के सब – तो जैसे अपने इर्द-गिर्द बने आभामंडल पर थूकते हैं और जब तुम उन्हें छू पाते हो तो वे सब के सब बहुत मैले और बदसूरत होते हैं, इतने कि तुम वह छवि भी याद नहीं कर पाते, जो उन्हें देखने से पहले तुम्हारे मन में बनी थी।

इस मामले में वह समझदार है। वह कैसे जान जाती है, जब तुम उसे सुनना नहीं चाहते और तब वह चुप ही रहती है। तुम कुछ दूर उसके साथ पैदल चलना चाहते हो। तुम उसे बताते हो कि अभी कुछ देर पहले, जब तुम ट्रेन में जगे थे तो बाहर गहरा अँधेरा था और ट्रेन इतनी तेज दौड़ रही थी कि तुम्हें लगा, वह उस अँधेरे से बचकर भाग रही है। वह हँसती है। वह कहती है कि उसे भूख लगी है। तुम कहते हो कि नहाने के बाद छोटे बच्चों को भूख लगती है और नींद भी आती है। अचानक तुम कहते हो कि रास्ते में जितने भी गाँव थे, सब अँधेरे में डूबे थे।

क्या तुम्हें रघु याद है कंचन? अविनाश याद है तुम्हें? अविनाश, जिसे बस कुछ और दिन बाद अख़बार और लोग भूल जाएँगे। रघु, जिसे भूल जाना हम हमेशा याद रखते हैं। रघु की माँ मेरे पैरों में गिरकर बिलख रही थी कंचन...

और सोमवार था, जिसमें तुमने सोचा था कि आज रात जल्दी सो जाओगे और पूरी रात एक मिनट के लिए भी सो नहीं पाए थे।  अगली सुबह जब तुम यूनिवर्सिटी पहुँचे थे तो पिछले कई दिनों की कमज़ोरी और वितृष्णा तुमने उतार फेंकी थी। तुम्हारे पास युवाओं की एक असाधारण फौज़ थी जो तुम्हारे इशारों पर महाभारत भी लड़ने को तैयार थी। तुमने सुबह सुबह ही फ़रमान सुना दिया था कि तुम्हें नतीज़े चाहिए, बहाने नहीं।

- उस पार्टी में मौज़ूद एक एक आदमी, एक एक परिन्दा, एक एक सामान मुझ तक आए...या मेरे पास लाया जाए और बताए कि रघु के लापता होने में मैं उसे दोषी क्यों न मानूँ?
मैं सबसे मिला। एक सौ इकतालीस लड़कों और पैंसठ लड़कियों से। बारह वेटरों और चार डीजे वाले लड़कों से। मैंने एक एक कुर्सी, एक एक मेज, खाली बोतलें, गिलास, नमकीन के खाली पैकेट और सिगरेट की डिब्बियाँ छू छूकर देखी। डी जे वाले चारों लड़कों ने एक ही बात कही कि उसने उन्हें ‘कहो न प्यार है’ का एक गाना चलाने के लिए कहा था और यह गाना उनके पास नहीं था। इस पर वह चिल्लाने लगा था। मज़बूरन उन्हें एक लड़के को सीडी लाने के लिए भेजना पड़ा था और जब तक सीडी आई, मुश्किल से पन्द्रह मिनट लगे होंगे, वह वहाँ नहीं था।
- क्या वह नशे में था?
- नहीं, हमें तो लगता है कि पूरी पार्टी में अकेला वही था, जिसने बिल्कुल भी नहीं पी रखी थी।
ऐसा उन्होंने अलग अलग मुझसे कहा, बारह वेटरों और चार डीजे वाले लड़कों ने। उनकी भाषा भी बिल्कुल एक जैसी थी। कुलदीप का कहना था कि उसे याद नहीं कि रघु ने पी थी या नहीं। कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने उसे एक प्लेट में से गिलास उठाते हुए देखा था। लेकिन वह प्लेट किसी वेटर के हाथ में तो रही होगी और कोई वेटर यह स्वीकार ही नहीं कर रहा था कि रघु ने शराब पी है। वे सब उसे जानते थे। पार्टी के सब इंतज़ामात उसी ने किए थे।
- क्या तुम्हें हर पार्टी में याद रहता है कि किसने पानी पिया है और किसने शराब?
- हाँ साहब, जैसे बस के कंडक्टर को हर सवारी याद रहती है कि वह कहाँ से चढ़ी है और कहाँ उतरेगी...
- क्या वह नशे में था?
सबसे अंत में नीलम आई थी। उसने पहचानी सी नज़रों से मुझे देखा और मुस्कुराई। उस पहचान और मुस्कान में मेरी आँखों में पाप खोज लेने का यत्न था, जिसमें वह नाकाम रही। वह सोच रही होगी, जैसे उस दोपहर की स्मृति उसे मेरी आँखों में कहीं छिपकर बैठी हुई दिख जाएगी और उसे पकड़ते ही वह मेरे हलक में उंगली डालकर मेरी आत्मा बाहर निकाल लेगी और मैं कहूँगा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ नीलम। हुँह!
- हम दोनों एक अँधेरा कोना ढूँढ़ रहे थे...
- क्या रघु नशे में था?
- शुरु से हर बात तो बताने दो मुझे।
- लेकिन सिर्फ़ ज़रूरी बातें...
- तुम जानते हो कि मैंने क्या पहना था उस दिन?
- नहीं।
- मेरी एक गुलाबी स्कर्ट है...यहाँ तक की – उसने एक हाथ अपने घुटनों पर रखकर कहा – तुमने देखा है मुझे कभी उस स्कर्ट में?
मैं चुप देखता रहा। वह फिर बोलने लगी।
- तुमने नहीं देखा होगा। रघु को वह स्कर्ट बहुत पसन्द थी। इसीलिए हम कोई कोना ढूँढ़ रहे थे, जहाँ एकांत हो और अन्दर मैंने गुलाबी रंग की ही...
- फिर?
मेरे टोकने पर वह मुस्कुराई।
- आज तुम्हें शर्म आ रही है सुनने में?
- फिर क्या हुआ?
- उसने कहा कि वह आसपास देखकर अभी आता है और फिर नहीं लौटा।
वह गम्भीर हो गई थी। एक उदासी ने उसके घुटने ढक लिए थे और स्कर्ट भी।
- लेकिन प्रिया ने बताया कि तुम बीच में एक बार उसके साथ बाहर की तरफ गई थी और पाँच-सात मिनट बाद अकेली लौटी थी।
- हाँ, पार्टी शुरु होते ही। मुझे प्यास लगी थी और वहाँ पानी नहीं था। फिर मैं लौट आई थी और वह कुछ देर बाद पानी मँगवाकर लौटा था।
- फिर?
- फिर मैंने पानी पिया।
- और शराब?
- मेरी पार्टी थी। क्या मैं शराब न पीती?
- रघु ने पी रखी थी?
- मुझे नहीं मालूम...क्योंकि जब हम नाच रहे थे और उसके हाथ मेरी कमर पर थे....देखो, यहाँ थे...नहीं, थोड़ा और नीचे – वह अपनी कमर को छू रही थी – तो उसने मुझे अपने पास खींचकर मेरे होठ चूम लिए थे। अब मुझे कैसे मालूम पड़ता कि किसकी साँसों की गन्ध है वह? सब कुछ आपस में मिल गया था।
- क्या चाहती हो तुम इस तरह मुझसे?
वह कुछ कहती, इससे पहले ही हाँफता हुआ जीवन कमरे में घुस आया था।
- जल्दी आओ तुम लो। फर्स्ट ईयर के अविनाश ने मेन गेट के बाहर तेल छिड़क कर अपने आप को आग लगा ली है।

क्या आपने कभी बिल्कुल गहरी पीली धूप में या छोड़िए, किसी भी रंग की धूप में खड़े होकर पत्थर तोड़े हैं या पत्थर छोड़िए, कभी नर्म घास भी काटी है? क्या आपने देखी है पीली आग की लपलपाती जीभ और उसके अन्दर जलता हुआ एक ज़िन्दा कोमल शरीर?

       कहाँ चले गए वे सब लड़के और क्यों, जो सुनहरे सपने देखते थे, खिलखिलाकर हँसते थे और एक हैपनिंग सी सुबह में उन्हें अपने शरीर को आग लगा लेनी पड़ी और हम सबने यह ऐसे देखा, जैसे यही देखने के लिए हमने जन्म लिया हो। अठारह साल के लड़के की आग में भीगी हुई चीखें डर पैदा करती हैं कि अब कभी कुछ नहीं हो सकता। यह एक ऐसा अपशकुन है, जिसके काले प्रभाव को टालने का कोई टोटका नहीं है। वे लड़के, जो निबन्ध प्रतियोगिताओं में प्रथम आते थे और किशोर कुमार की तरह गाते थे, वे लड़के जो सपनों में गणित के सवाल हल कर लेते थे और समाज को बदल देना चाहते थे, उन्हें भी रोटियाँ चाहिए थीं और एक छत, जो बरसात रोक सके। इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। लेकिन इसके लिए भी उन्हें पैसों की ज़रूरत थी और पैसे के लिए नौकरी की। नौकरी के लिए मौके की और सब मौकों को उनके हाथ से छीन लिया गया था क्योंकि उनके पुरखे मंत्र पढ़ते थे, युद्ध लड़ते थे और व्यापार करते थे। वे ब्राह्मण, बनिया और राजपूत थे और चाहकर भी चमार, मीणा या पासी नहीं हो सकते थे, जबकि इसके लिए वे अपने दाएँ हाथ की पाँचों उंगलियाँ भी काटने को तैयार बैठे थे।

संविधान में बार बार संशोधन होते थे और ख़ूबसूरत से लड़के जल जाते थे। वे लड़के, जिन्होंने ठीक से आँखें खोलकर दुनिया भी नहीं देखी होती थी। महीनों तक हकबकाए हज़ारों लड़के गुस्से में चिल्लाते थे, भूखे रहते थे-डीहाइड्रेटेड होते थे और फिर मार्च आ जाता था, जब आउट होते पेपरों की तैयारी में बैलों की तरह जुत जाना पड़ता था। सब धरने ख़त्म। आरक्षण बढ़ता था, पहले सत्ताईस फीसदी, फिर साढ़े उनंचास, फिर प्राइवेट सेक्टर, फिर घरों में, फिर मोहब्बत में, सपनों में, ज़िन्दगी में और युवा होता भारत कुंठित होकर आठवीं मंजिल से कूदता था या तटस्थ रहकर फिर से बैंक पी ओ और रेलवे की परीक्षाओं की तैयारी करने लगता था। चश्मे का नम्बर एक और बढ़ जाता था।
    
बिना बात के जलकर मर गया अविनाश। शहर का एक एक आदमी अपनी आवाज़ में टुच्ची सहानुभूति भरकर यही कहता रहा और आलू टमाटर की सब्जी खाकर मच्छरदानी लगाकर सो गया। एक जवान लड़का सुबह घर से नाश्ता करके निकलता है और कॉलेज पहुँचकर अपने आप को आग लगा लेता है। यह एक दिन में नहीं होता। यह उसके जन्म से पहले से चली आ रही एक लम्बी घटना है। यह आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या हवा में हिलता हुआ एक खाली शब्द भर है, एक झूठी संकल्पना। हर आदमी, जो असमय मरा है, उसकी हत्या हुई है।

- तुम अपने मक़सद से भटक रहे हो।
- माँ, तुम्हारी आँखें लाल सुर्ख़ हैं...और मैं नहीं जानता कि मैं तुम्हें किस रंग का दिखाई दे रहा हूँ। ये नीले परदे तुम्हें लाल दिख रहे हैं?
- आख़िर क्या करना चाहते हो तुम इन रिजर्वेशन वालों के साथ मिलकर?
- माँ, बहुत पी रखी है तुमने। तुम्हें सो जाना चाहिए...और हम रिजर्वेशन वालों के साथ नहीं, खिलाफ हैं।
- यही तो मैं पूछना चाह रही हूँ डैम इट। व्हाय आर यू अगेंस्ट ऑफ़ एनीथिंग? यू शुड ऑलवेज बी डिप्लोमेटिकली न्यूट्रल।
- माँ, तुम्हारी भाषा बिगड़ती जा रही है। हम सुबह बात करेंगे।
- मैं पूरे होश में हूँ। मुझे अभी जवाब चाहिए।
- लेकिन सवाल क्या है?
- मैंने जन्म दिया है तुम्हें...और ये पैसे...जो तुम उड़ाते हो...तुम्हारे पापा ने पसीना बहाकर कमाए हैं।
- इनमें से सवाल कौनसा है?
- व्हाय द हैल डू यू थिंक कि तुम दुनिया में सबसे होशियार हो?
- पता नहीं माँ...क्यों, लेकिन अन्दर से ऐसा लगता है।
मैं माँ को छोड़कर एक और बैठ गया था, नीचे फ़र्श पर। सोफ़े का एक कुशन मेरे पास गिरा पड़ा था। उसे उठाकर मैंने गोद में रख लिया। माँ सोफ़े पर ही बैठी रही। अब मैं उसके पैरों के पास बैठा था। मैं इस तरह माँ के कदमों में नहीं बैठना चाहता था, लेकिन वहाँ से उठकर कहीं और बैठने का मन भी नहीं किया।
- यह जो झूठी महानता तुमने अपने दिमाग और व्यक्तित्व पर चढ़ा रखी है, यही एक दिन तुम्हें ले डूबेगी।
- माँ, जो चीजें तुम्हारी समझ से बाहर की हैं, उन पर मत बोलो और कम से कम रात के एक बजे शराब में धुत होकर तो नहीं।
- मैं क्या बनाना चाहती हूँ तुम्हें और तुम क्या बनते जा रहे हो....
वह निराश और धीमी सी हो गई।
- बाहर सुनो माँ। क्या तुम्हें शोर सुनाई दे रहा है?
- कैसा शोर?
- तुम नशे में हो माँ, नहीं तो यह हो दुख बाहर उठ रहा है, जो शोर है....तुम्हारे कान फाड़ डालता।
- क्या कह रहे हो तुम?
- माँ, तुम नशे में हो और तुम्हें मेरी बातें पागलपन लगेंगी। लेकिन माँ, मैं यहाँ अभी इस खिड़की का काँच तोड़कर कूद जाना चाहता हूँ। यह शोर और चीखें मुझे जीने नहीं देतीं।
- तुम पागल हो गए हो...
- हाँ, मैंने कहा न कि मेरी बातें तुम्हें पागलपन लगेंगी।
- तुम वादा करो कि इन सब लड़कों का साथ छोड़ दोगे। सबसे पहले रघु को अपने पास से हटाओ।
वह तब की बात थी, जब रघु खोया नहीं था।
- तुम माँ...तुम्हारे कानों में यह कीचड़ भर गया है, जिसमें तुम पूरी की पूरी धँसी हुई हो।
- यू बास्टर्ड.... यू डॉन्ट नो हाउ टू बिहेव।
वह फिर से नागिन की तरह फुफकारने लगी।
- क्या पिया है तुमने? मुझे लगता है कि तुम ड्रग्स भी लेती हो।
- तुम मेरी ज़िन्दगी में ज़रूरत से ज़्यादा दखल देने की कोशिश मत करो।
माँ ने एक उंगली मेरी ओर तानकर कहा। उसकी उंगली पूरे शरीर की तरह ही काँप रही थी। वह लगातार दो सेकंड से ज़्यादा आँखें खोलकर भी नहीं रख पा रही थी। बार बार उसकी पलकें बन्द होती थीं और वह एक काली सी तीव्र चेष्टा के साथ उन्हें खोलती थी।
- फिर तुम भी मेरी ज़िन्दगी में दख़ल मत दो और जाकर चुपचाप सो जाओ। सुबह उठना, सिरदर्द की एक गोली लेना, सादी साड़ी पहनना और मुस्कुराना, रिबन काटना...
- तुम्हें पता है कि हमारे नाम के बिना तुम कुछ भी नहीं हो? जिन चार-छ: लड़कों के बल पर तुम उछल रहे हो, एक साल के भीतर वे सब यह सारा जोश भूलकर दफ़्तरों के चक्कर काट रहे होंगे...हाथ जोड़ जोड़कर नौकरियाँ माँगते हुए।
मैं मुस्कुराया और उठकर चल दिया। वह पीछे से चिल्लाती रही।
- बहुत पछताओगे तुम एक दिन...यह नैतिकता सिर्फ़ भूख पैदा करती है, रोटी नहीं...और तुम एक दिन...देख लेना, भूखे मरोगे। घुप्प अँधेरे में भूखे, जहाँ से स्टेज बहुत दूर होगा...और स्टेज पर हँसी का कोई नाटक खेला जा रहा होगा। यू ब्लडी फ़किंग स्यूडो इंटेलेक्चुअल...तुम्हें शेक्सपियर बहुत पसन्द है ना? यू विल डाई लाइक हिज काइंड ऑफ़ ट्रेजेडीज...और सब लोग उसी की कोई कॉमेडी देख रहे होंगे। यू विल डाई हंगरी एंड अलोन....
भूखे और अकेले!

क्या यह शाप था? कच्ची सी नींद में क्या आपको भी कभी कभी सपना दिखता है कि चलते चलते किसी गड्ढ़े में गिर पड़े हैं? नीची छतों और तंग दरवाज़ों वाले घरों के सपनों में क्या आप भी कभी कभी डरकर जाग जाते हैं? गहरे सन्नाटे में अकेले, सूखा हुआ गला और पेट में कुलबुलाती भूख।
भूखे और अकेले!

- मुझे कुछ पैसों की ज़रूरत है।
कहते हुए कंचन ने सिर झुका लिया था।
- कितने?
- मैं लौटा दूँगी।
- लौटाने ही हैं तो किसी और से ले लो। मैं नहीं दे पाऊँगा।
- तीन लाख...
वह धीरे से बोली और मैं तेजी से चौंक उठा। मुझे लगा था कि ज़्यादा से ज़्यादा चार-पाँच हज़ार की ज़रूरत होगी।
- कितने?
- सही सुना है तुमने।
- मगर क्या करोगी इतने पैसों का?
- अभी नहीं बता सकती, लेकिन बता दूँगी तुम्हें।
- मैं कहाँ से लाऊँगा इतने पैसे?
- कोई बात नहीं, रहने दो।
और वह उठकर चल दी।

उसी रात, जब वह अपने घर में सहेली की शादी का बहाना बनाकर मेरे घर में रुक गई थी और बाहर हल्की हल्की बारिश हो रही थी। हम मेरे कमरे की बालकनी में गद्दा बिछाकर लेटे हुए थे। मुझे नींद आ रही थी और नहीं भी आ रही थी। मैं उसकी छाती के तकिये पर सिर रखकर लेटा था और बहुत पास से उसके होठ निहार रहा था और वह एक हाथ से मेरी गर्दन सहला रही थी, जैसे कभी भी अचानक दबा देगी।

- क्या सच में पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पाएगा?
वह नशीले से अन्दाज़ में ऐसे फुसफुसाई कि मुझे भ्रम हुआ कि मेरी आँखें चूम रही है। मैंने पलकें बन्द कर लीं।
- नहीं होगा?
उसने फिर पूछा।
- क्या नहीं होगा?
जब मेरी आँखें कई सेकंड तक नहीं चूमी गईं तो मैंने आँखें खोलकर हैरानी से पूछा। ‘नहीं होगा?’ से मुझे बचपन में अंग्रेज़ी व्याकरण में पढ़ी हुई ‘टैग क्वेश्चन्स’ की परिभाषा याद आई। परिभाषा के अनुसार ‘नहीं होगा?’ से तुरंत पहले एक सकारात्मक वाक्य होना चाहिए था, जिसका अंत ‘होगा’ से होता हो। तभी मुझे लगा कि मैं कई परिभाषाओं में कनफ्यूज़ हो गया हूँ।
- तुम कहाँ खोए रहते हो?
अब उसने मेरी आँखों को अपने होठों से छूते हुए कहा।
- मुझे लगता रहता है कि मेरी आँखों में कई काँटे चुभे हुए हैं। कभी कभी इतना दर्द रहता है कि सुंई लेकर सब काँटे निकाल देने का मन होता है।
- तुम्हारी आँखें तप रही हैं।
- और मेरे होठ?
- उनका मुझे नहीं पता।
वह थोड़ा सा हँसी।
- तुमने उस दिन झूठ क्यों बोला था कि तुम किसी एक के नहीं, हम सबके बारे में सोचती हो?
- वे लोग मेरे भाई को मार डालेंगे।
- कौन लोग?
मैं चौंककर उठकर बैठ गया। वह लेटी रही और मेरी गर्दन वाला हाथ अब उसने अपने वक्ष पर रख लिया।
- भाई सट्टे के चक्कर में लाखों हार चुका है...और अब अगर अगले हफ़्ते तक उसने उनके रुपए नहीं चुकाए तो वे कुछ भी कर सकते हैं।
वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, जैसे हमेशा देखा करती थी। मैं कुछ पल तक उसे देखता रहा और फिर बाहर लॉन की घास को देखने लगा, जो दूधिया रोशनी में चमक रही थी।
- कौन लोग हैं वे? मुझे बताओ।
- तुम उनके चक्कर में मत पड़ो प्लीज़।
- मुझे नाम बताओ सिर्फ़। बाकी काम मेरा है।
- छोडो...मुझे कुछ नहीं चाहिए।
फिर एक लम्बी ख़ामोशी रही।
फिर सुबह, अन्दर कमरे में बिस्तर पर बैठकर चाय पीते हुए उसने कहा कि उसे कॉलेज छोड़ना पड़ेगा क्योंकि जान बचाने के लिए वे लोग कहीं और जाकर रहेंगे।

- क्या यह कोई तरीका है किसी भी प्रॉब्लम से लड़ने का? बिस्तरबन्द बाँधो और भाग जाओ?
गुस्से में मेरी आवाज़ ऊँची हो गई थी। माँ ने बाहर से चिल्लाकर कहा कि यह शरीफ़ों का घर है, इसलिए मैं धीरे बोलूँ। मैंने चिल्लाकर पूछा कि हममें से शरीफ़ कौन है? कोई जवाब नहीं आया।
- मुझे लगा कि तुम कुछ कर पाओगे...
- नाम पूछ रहा हूँ तो बताती नहीं हो।
- मैं नहीं चाहती कि तुम पर कोई संकट आए।
- क्यों नहीं चाहती?
- बस नहीं चाहती।
- मैं किसी दिन मार डालूँगा तुम्हें।
- यह मेरा सौभाग्य होगा।
- मैं कोई विष्णु का अवतार नहीं हूँ कि मेरे हाथों मरने पर तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा।
- यह गुस्सा किस बात पर है?
- बहुत सारी बातों पर।
तभी माँ आई और हम दोनों के बीच की ज़गह में आई ड्रॉप की शीशी रखकर चली गई।
- क्या तुम्हारी आँखों में सचमुच दर्द है?
- मुझे जाने क्यों लग रहा है कि यह मैं पहले भी तुम्हें बता चुका हूँ।
- सॉरी...मैं आजकल बहुत ज़रूरी बातें भी भूल जाती हूँ।
उसने हाथ में शीशी उठा ली। मैं उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। तभी माँ फिर से अन्दर आ गई। उसके हाथ में अख़बार था। वह उसने दूर से ही मेरे ऊपर फेंक दिया। मैं वैसे ही लेटा रहा। कंचन ने इस दौरान एक बार भी माँ की ओर नहीं देखा।
- डॉक्टर क्या बोलता है
उसने दोनों आँखों में बारी बारी से दो-दो बूँदें टपकाईं।
- किस बारे में?
- तुम्हारी आँखों के...
- कौनसा डॉक्टर?
- तुम गुस्सा क्यों हो?
- यह जो औरत अभी आई थी, यह मेरी माँ है...और मेरे एक पिता हैं, जिन्हें मैंने हफ़्तों से नहीं देखा। कभी कभी मैं उनका चेहरा भी भूल जाता हूँ। मुझे दुनिया से नफरत होती है...और तुम जानती हो कि मैं दुनिया से इतना प्यार करता हूँ...और जीवन से भी कि उसमें डूबकर उसे बदल देना चाहता हूँ।
- तुम बदल दोगे। मैं जानती हूँ तुम्हें।
- मैं डूबूंगा भी। क्या तुम यह नहीं जानती?
- क्या तुम यह सोचकर उतरे थे कि तैरकर सही सलामत पार निकल जाओगे?
- हाँ, और वे कहते हैं कि आप कुछ बदलना चाहते हैं तो आपको ज़िन्दगी का मोह त्यागना पड़ेगा और कंचन, वह मोह मुझमें कूट-कूटकर भरा है। वह मेरी एक एक साँस, एक एक शब्द में है।
- वे कौन?
- वे...
मैंने खिड़की की ओर इशारा किया, जहाँ से बाहर की सड़क दिखती थी। लोग तैयार होकर तेज कदमों से दफ़्तरों में जा रहे थे, जहाँ वे दिन भर कम्प्यूटरों के सामने बैठकर एक्ससेल शीट बनाते थे और मोटे होते थे।
- अविनाश के मरने के बाद से तुम ऐसे अपराधबोध के साथ बोलते हो, जैसे तुमने ही उसे जलाया हो।
- तीन लाख से कुछ कम में काम नहीं चलेगा?
- कितने कम में?
- डेढ़ दो लाख?
- तुम स्टूडेंट काउंसिल के फंड की बात कर रहे हो?
- हाँ...
- मगर कैसे होगा?
- एक दो महीने में मैं माँ से पैसे लेकर पूरे कर दूँगा।
- और तब तक?
- तब तक किसी को पता चला तो मैं बता दूँगा कि मुझे ज़रूरत थी, मैंने निकाले हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझ पर कोई अविश्वास करेगा।
- और वकील की फ़ीस का क्या होगा?

हम लोगों ने बढ़े हुए आरक्षण के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। उसके लिए एक महंगा वकील करना पड़ा था जो इतनी फ़ीस लेने वाला था कि हमें उस साल का अपना पूरा बजट उसी के नाम कर देना पड़ा था। अभी उसे एक लाख एडवांस दिए थे और लाखों और देने थे। यह पूरा आन्दोलन रघु की अगुवाई में शुरु हुआ था और कुछ दिन बाद ही वह अचानक गायब हो गया था। सारी रणनीति बनाने का ज़िम्मा उसी का था और हम एकदम से समझ भी नहीं पाए थे कि क्या करें? मैं इतना आश्वस्त था कि इस बारे में मैंने उससे कोई बात भी नहीं की थी। रघु के लापता हो जाने के बाद हम ठीक से कुछ सोच पाते, उससे पहले ही अविनाश ने आग लगा ली थी और फिर कई शहर और कई लड़के उस आग में जलने लगे थे। आन्दोलन ने अपनी तपती हुई राह ख़ुद चुन ली थी और हम हैरान से उस पर नंगे पाँव बढ़े जा रहे थे। हमारे पैरों में छाले पड़ गए थे और हमारे कोष खाली हो रहे थे। जो बड़ी पार्टियाँ हमें अपनी छत्रछाया में पालती थी और चुनावों के समय हमारी उबलती हुई जवानी का ख़ूब इस्तेमाल करती थी, इस मसले पर एक गहरी चुप्पी में डूब गई थी और उनके शांत गलियारों से हमारे लिए सख्त हुक्म आए थे कि हम भी चादर ओढ़कर घरों में सो जाएँ। एम पी ने मुझे फ़ोन पर कहा था कि मैं लड़कों को चुप रखने में कामयाब रहा तो जल्दी ही मुझे बड़ा ईनाम दिया जाएगा। माँ हर शनिवार उससे मिलने जाती थी और वह अक्सर देर रात में माँ को फ़ोन किया करता था। एक रात उसी ने माँ से कहा था कि वह मुझसे बात करना चाहता है और माँ ने अपना सेल लाकर मुझे थमा दिया था। माँ मुस्कुरा रही थी और फ़ोन रख देने के बाद मेरा मन किया कि मैं उसे...

माँ उसे नेताजी कहकर पुकारती थी।

वकील की फीस याद आने पर मुझे कोई रास्ता नहीं सूझा। मैं आँखें बन्द किए उसकी गोद में सिर रखकर लेटा रहा। दवा का कुछ अंश बन्द आँखों की कोरों से बाहर निकलकर ठहर गया था। वह मेरे माथे पर उंगलियाँ एक निश्चित आवृत्ति में थपथपाने लगी। इस तरह बहुत देर बीत गई। बाहर बरसात होने को थी और कभी कभी पास के जंगल से मोरों की आवाज़ सुनाई पड़ती थी।

- क्या वकील का पेमेंट भी एक-दो महीने डिले नहीं किया जा स्काता?
- किया जा सकता है लेकिन तुम जानती हो ना कि हमें जल्दी सुनवाई और जल्दी फैसले की ज़रूरत है। यह पूरे देश के फ्यूचर का सवाल है। फ्यूचर के फ्यूचर का भी।
मैंने आँखें खोल ली थी।
- तुम सही कह रहे हो – झूठी सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई – अपनी परेशानी में इंसान कुछ स्वार्थी सा हो जाता है...और वह उस तरह से पूरी दुनिया का भला नहीं सोच पाता, जैसे तुम सोच रहे हो...
उसकी उंगलियाँ धीमी हो गई थी।
- किसने कहा कि तुम स्वार्थी हो गई हो?
- मुझे पता है कि तुम्हारे मन में यही आया होगा।
- मैं तुम्हारे लिए...तुम्हारे लिए...
मैं हकला सा गया।
- मेरे लिए क्या?
वह बहुत मीठी हो गई थी। मैंने चाहा कि मैं उसकी आवाज़ को चख लूँ। मैं बैठ गया और मैंने उसके दोनों गाल अपनी हथेलियों में भरकर बहुत क़रीब जाकर बहुत धीरे से कहा- मैं तुम्हारे लिए पाप भी कर सकता हूँ।
- मैं जानती हूँ – और उसने मेरा चेहरा अपनी छाती में भींच लिया।
क्या यह वही सुरक्षित ब्रह्मंड था, जिसे मैं जली हुई दुपहरियों और जमी हुई रातों में शहर भर में ढूँढ़ता फिरता था या कुछ भी नहीं था, सिर्फ़ एक छलावा था जो बार बर रूप बदलकर मुझे उम्मीद का चेहरा दिखाता था और अदृश्य हो जाता था?
- तुम्हारे शरीर की एक खुशबू है कंचन...और मुझे लगता है कि कस्तूरी में भी ऐसी ही ख़ुशबू होती होगी। मैं तुम्हें पा लेता हूँ, मगर उस ख़ुशबू को नहीं पा पाता।
- जिस दिन उसे पा लोगे, उस दिन मुझे नहीं चाहोगे।
- किसने कहा कि मैं तुम्हें चाहता हूँ?
मैं उससे अलग होकर मुस्कुराया। उत्तर में वह सिर्फ़ मुस्कुराई और मुझे अपलक देखती रही। संवेदना की ऊपरी परत छीलकर उतारो तो या तो विवशता दिखती है या साहस। उसकी आँखों में कुछ नहीं दिखता था।

हम दोनों में से किसी एक ने निश्चय किया कि हम छात्र-निधि में से दो लाख रुपए निकाल लेंगे और दूसरे ने चुपचाप उसकी बात मान ली। यह आध्यात्मिक रूप से दो लोगों का एक हो जाना नहीं था, फिर भी इस निर्णय में हम इतने एक थे कि याद करो तो याद नहीं आता था कि पहल किसने की थी और फिर साथ किसने दिया था? चूंकि उस साझे खाते के दो ही मालिक थे, मैं और रघु, और अब रघु नहीं था, इसलिए हमने सोचा कि जब तक एक-दो महीने में हम वह धन वापस डालेंगे, किसी को पता भी नहीं चलेगा। अब नीलम उपाध्यक्ष बन गई थी, लेकिन उस खाते में उसका नाम अब तक शामिल नहीं हुआ था, इसलिए उसे भी पता न चल पाता।

बाहर बारिश होने लगी थी और वह जानबूझकर बिना छतरी लिए भीगती हुई गई। मैं बालकनी में खड़ा होकर दूर तक उसका जाना देखता रहा। अगले कुछ हफ़्तों में वकील के कई फ़ोन आए, जिन्हें मैं काटता रहा। नतीज़ा यह हुआ कि अगली तारीख पर वह अनुपस्थित था। क्या मैं इतिहास के इतने महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर खड़ा था कि मुझे ही भविष्य की दिशा तय करनी थी? यह अतिशयोक्ति लगती है कि लेकिन हाँ, यदि आप बीस-तीस या पचास साल बाद दूरबीन से मेरे समय की सड़कें देखेंगे तो वहाँ एक तिराहा दिखेगा और शायद आप देख पाएँ कि कैंची के आकार में कटने वाले उन दो रास्तों में से एक को मैं और कंचन अपनी इच्छाओं की मिट्टी से (या कीचड़ से?) बन्द कर रहे हैं। वह मेरी ओर देखकर मुस्कुराती है, आकर मेरे होठों को चूमती है और बेल की तरह देर तक मुझसे लिपटी रहती है। क्या उसने मुझसे कुछ माँगा है? नहीं, बिल्कुल नहीं। उल्टे उसने तो मुझे याद दिलाया है कि वकील की फ़ीस का क्या होगा? उसका एक भाई है, जो सट्टे की आदत की वज़ह से मार दिया जाएगा। लड़कियाँ कितनी कोमल होती हैं और वह अपने शराबी भाई की जान बचाना चाहती है और उसने मुझसे उधार ही तो माँगा है। वह कहती है कि लौटा देगी। क्या हुआ है कि.....आप दूरबीन से ठीक से देख तो पा रहे हैं ना? ये नॉब घुमाइए और इसका फ़ोकस थोड़ा ठीक कीजिए। क्या हुआ है कि मैं अचानक एक हरे-भरे पेड़ पर कुल्हाड़ी लेकर चढ़ गया हूँ और उसकी डालियाँ काट-काटकर नीचे डाल रहा हूँ। वह प्यार से कहती है कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए और वे डालियाँ उठा-उठाकर उस दूसरी सड़क पर हमारी इच्छाओं के कीचड़ के ऊपर रख देती है। धीरे धीरे मैं पूरा पेड़ काट देता हूँ और अब हमने उस रास्ते को इतना बन्द कर दिया है कि हमारे पीछे आने वाले लोग समझते हैं कि यह पेड़, दलदल या कोई सुन्दर चित्र है। वे एक क्षण ठिठककर उसे देखते रहते हैं और फिर इकलौती बची हुई राह पर चल देते हैं। उन बीच के दिनों में कुलदीप कई बार आकर मुझसे झगड़ता है कि जब छात्रों का आन्दोलन अपने चरम पर है और पूरी लगन से केस लड़ा जाए तो शायद जीता भी जा सकता है, ऐसे में मैं क्यों अचानक लापरवाह हो गया हूँ? मैं उससे झूठ कहता हूँ कि मैं बीमार हूँ। नहीं, सच में मेरी आँखें कमज़ोर होती जा रही हैं और मैं आराम करना चाहता हूँ, लेकिन फिर भी यह सोच समझकर बोला गया झूठ ही है कि मैं बीमार हूँ।

- इस तारीख पर वकील ही नहीं आया। मैं उससे मिलने गया तो व्यंग्य से बोला कि कारण तुमसे पूछूँ। अब मैं तुमसे कारण पूछ रहा हूँ।
वह पूछता है तो मैं अपनी आँखें बन्द कर लेता हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरी आँखें कोई भी आसानी से पढ़ सकता है। अगली बार उसके साथ नीलम भी आती है। हम तीनों उसी कमरे में हैं। वह बदली हुई सी है। बिल्कुल अपरिचित और दूर, जैसे हमने कभी एक दूसरे को छुआ भी नहीं।
- वकील को वक़्त पर पैसे क्यों नहीं दिए गए?
वह पूछती है।
क्या तुम भी सबका भला सोचती हो नीलम?
मैं पूछना चाहता हूँ, मगर नहीं पूछता। आज उसकी नाक में सोने की वह नथ भी नहीं है।
- क्या तुम्हारी ज़िन्दगी में कोई पुरुष है?
मैं उससे पूछता हूँ तो वे दोनों ही बौखला से जाते हैं।
- यह क्या बकवास है?
- क्या तुम दोनों नहीं जानते कि हम दुनिया का सबसे अच्छा वकील भी लाकर खड़ा कर दें तो भी हम जीत नहीं पाएँगे? उनके पास एक पूरा का पूरा ख़ज़ाना है, जिसे तुम्हारे और मेरे पिताओं ने इनकम टैक्स और चन्दे दे देकर भरा है। वे जजों की सात पुश्तें खरीद सकते हैं। क्या तुम सब वाकई इतने जोश में हो कि यह सब भूल जाते हो?
- यह बहाना है। पहले तुम यह क्यों नहीं बताते कि जब हमने मिलकर सब कुछ तय किया था, फिर उसे समय पर पैसे क्यों नहीं दिए गए?
कुलदीप चुप है, मगर नीलम तीखे स्वर में मुझसे पूछती है। मैं अपने तकिए के नीचे रखा अख़बार उठाकर उन्हें दिखाता हूँ, जिसमें मानव संसाधन और विकास मंत्री ने विश्वास जताया है कि यह कदम देश के कुचले हुए लोगों के हित में उठाया गया है, इसलिए उन्हें उम्मीद है कि न्यायपालिका भी उन्हें सही ठहराएगी। उनकी तस्वीर है, जिसमें वे बेशर्मी से मुस्कुरा रहे हैं।

मैं कहता हूँ- क्या इसका चेहरा देखकर तुम्हें नहीं लगता कि यह पूरे सुप्रीम कोर्ट के कर्मचारियों की सब शर्टों और पैंटों की जेबें ठसाठस भर सकता है? मैं तुम्हें यह भी बता देता हूँ कि आखिर में किस तरह का निर्णय देगी अदालत...वे कहेंगे कि बढ़ा हुआ आरक्षण लागू किया जाए और सर्वेक्षण किए जाएँ कि इसका कितना लाभ सही लोगों को मिल रहा है...और तुम जानते हो कि सर्वेक्षण हुए या नहीं, यह कोई किसी से कभी नहीं पूछेगा। क्या तुम लोग अन्धे हो गए हो और सोचते हो कि तुम्हारा दस लाख का वकील दुनिया बदलकर रख देगा?
- यह तुम कह रहे हो?
नीलम ही बोलती है। आश्चर्यचकित सा कुलदीप मुझे देख रहा है। वह मेरा आदर करता रहा है और अब उसे समझ में नहीं आता कि क्या कहे, क्या करे।
- तो तुम चाहते हो कि हम इस आन्दोलन को बन्द कर दें और घरों में बैठकर तमाशा देखें? क्या तुम बाहर लड़कों के सामने जाकर यह कह सकते हो? है तुममें हिम्मत?
- कौन है बाहर?
- देखो खिड़की से झाँककर...
मैं उठकर खिड़की से देखता हूँ। कम से कम चार सौ लड़के मेरे लॉन की धूप में खड़े हैं। वे सब चुप हैं और पसीने में भीगे दूसरी मंजिल की उस खिड़की को देख रहे हैं, जहाँ मैं हूँ।
- इतने लोग क्यों आए हैं यहाँ?
मैं पूछता हूँ तो कुलदीप सकपकाकर सिर झुका लेता है। इस बीच माँ भी कमरे में आ खड़ी होती है। वह कुछ कड़वा कहना चाहती है, लेकिन मैं उसकी ओर नहीं देखता। फिर से नीलम ही उत्तर देती है। उसके स्वर में चमकती हुई कटार की सी धार है।
- ये सब भी उसी सवाल का जवाब सुनने आए हैं, जो मैं तुमसे तीसरी बार पूछ रही हूँ।
- मेरी मर्ज़ी। मैं अध्यक्ष हूँ और इन सब लोगों ने बिना किसी दबाव के, अपनी इच्छा से मुझे यह अधिकार दिया था कि हम सबके लिए जो मैं सही समझूँ, वह करूँ।
- मगर वह अधिकार गबन करने के लिए नहीं था।
- क्या तुमने गबन किया है?
पूछते हुए माँ आँखें फाड़ फाड़कर मुझे देख रही है।
- क्या यह सच है?
अब कुलदीप भी बोलता है। मैं हतप्रभ सा उन सबकी ओर देख रहा हूँ। फिर मैं नीचे लॉन में खड़े लड़के लड़कियों की ओर देखता हूँ। मुझे लगता है कि उन्होंने अपने कपड़ों में चाकू, तलवारें और कृपाण छिपा रखी हैं और किसी भी क्षण एक हुंकार के साथ वे चलेंगे और सीढ़ियों से होते हुए उस कमरे तक आ पहुँचेंगे।

कुछ है, जो बीच के किसी क्षण में अचानक बहुत पीछे छूट गया है। जैसे ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं, क्रोधित युवाओं की एक भीड़ है और मुझे उसे चीरकर जाना है। और कोई उपाय नहीं। कैंटीन के कहकए, चाय की चुस्कियाँ, देर रात तक चलती हुई पार्टियाँ, थिरकते हुए शरीर और पसीने में भीगा हुआ चिल्लाता हुआ मैं, सीनेट हॉल में...लाइब्रेरी के बाहर की सीढ़ियों पर माइक फेंक देता हुआ, सूरज की आँखों में आँखें डालकर ललकारता हुआ, बदलाव के सब ज़िद्दी आह्वान और पीछे खड़ी हुई एक लड़की, उसकी आँखें जो झपकती नहीं, छात्रसंघ का कार्यालय, मेरी कुर्सी, पीछे की दीवार के गाँधीजी और सारे सपने जैसे किसी और के जीवन में थे और मैं कहीं और खड़ा हूँ, पाताल में और किसी भी क्षण वे तीनों मेरे पाताल पर ढक्कन लगा देंगे और चैन की साँस लेंगे।
      
मैं धम्म से सोफे पर ढह गया हूँ। मैं सिर पकड़कर बैठा हूँ और माँ आकर मुझे झिंझोड़कर फिर पूछती है – सच में गबन किया है तूने?
- हाँ माँ...मगर वह गबन नहीं, कुछ और है, जिसका नाम मैं नहीं जानता और भगवान के लिए तुम तो चली जाओ यहाँ से।
मेरी आँखें लाल हैं। लाल नहीं, गुलाबी।
- कितने का?
माँ अब नीलम से पूछती है। उसके पूछने में चिंता नहीं, उत्सुकता है। नीलम पहले मेरी ओर देखती है कि क्या मेरे चेहरे पर ग्लानि और गिड़गिड़ाहट है और दुर्बलता? नहीं, वहाँ कुछ भी नहीं है। पूरे चेहरे को मेरी गुलाबी हो गई आँखों ने ढक लिया है।
- दो लाख आंटी।
फिर वे सब बारी बारी से अपने अपने संवाद बोलते हैं। बीच में बाहर एक हलचल से होती है और कुलदीप उठकर नीचे चला जाता है। माँ और नीलम मुझसे बहुत कुछ पूछती हैं और मुझे शब्दों के एक अर्थहीन गट्ठर के अलावा कुछ नहीं सुनता। मैं कुछ नहीं बोलता और मुझे लगता है कि मैं बास्केटबॉल कॉर्ट के तपते हुए फ़र्श पर लेटकर अपने कमरे को देख रहा हूँ और आसमान में ‘गुड़िया’ गूँज रहा है।

- मैं जब ट्रेन में जगा कंचन...तीन बजे होंगे और आसपास की बर्थों पर लोग आराम से सो रहे थे। मुझे बहुत तेज प्यास लगी थी और मेरे पास पानी नहीं था। मैंने कुछ दूसरे लोगों के सामान को भी टटोल डाला। तुम कहोगी कि मैं पहले ही पुलिस से बचकर भाग रहा था और इस तरह पकड़ा जाता तो जाने क्या होता! मगर मुझे सचमुच बहुत प्यास लगी थी और सूखकर मेरा गला ऐंठा जा रहा था...और मैं बाथरूम की टोंटियाँ भी देख आया, उन्हें तोड़ डालने की हद तक घुमा घुमाकर, मगर उनमें भी पानी नहीं था। बाहर अँधेरा था और मुझे कोई तालाब या कुँआ दिख जाता तो मैं चलती ट्रेन से भी कूद जाता। मैं किसी को उठाकर पानी माँगता तो वह पक्का मना ही करता, इसलिए मैं उन सबके बैग सीट के नीचे से निकाल निकालकर खोलने लगा...और एक लाल रंग के बैग में तुम जानती हो, मैंने क्या देखा?
- पानी?
वह चलते चलते रुक कर खड़ी हो गई है। हम एक चौराहे पर हैं, जिसका एक रास्ता पुल है और दो रास्ते नहर। हम पुल के इस तरफ हैं और सड़क के इस ओर एक मन्दिर है, उस ओर एक ढाबा।
- चलो यहीं कुछ खा लेते हैं।
वह सड़क पार कर रही है। मैं उसके पीछे पीछे चल रहा हूँ। अजनबी शहरों का ट्रैफिक भी दुश्मन सा लगता है। लाल और हरी बत्तियों को छोड़कर हर शहर के यातायात के अलग अलग नियम होते हैं, जो कहीं लिखे और सिखाए नहीं जाते।
हम बाहर लगी कुर्सियों पर बैठ गए हैं। मैं गुमसुम सा हो गया हूँ। मेरा चेहरा देखकर उसे बात का टूटा हुआ क्रम याद आता है।
- हाँ, क्या देखा तुमने उस लाल बैग में?
- तुम अन्दाज़ा लगाओ कि क्या होगा?
- पानी?
वह पानी पर ही अटकी हुई है।
- रघु था उसमें...
- रघु?????
- रघु की फ़ोटो थी उसमें। वैसा नहीं, जैसा हमने उसे देखा था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वह नीले रंग के कुरते में था। फ़ोटो की पिछली तरफ उसी की लिखाई में रघु लिखा था। मैं अच्छे से पहचानता हूँ उसकी लिखाई।
- क्या कह रहे हो तुम? दिस इज़ इम्पॉसिबल।
- और क्या तुम कल्पना कर सकती हो कि मुझे कितनी खुशी हुई होगी? मैं वहाँ ज़ोर ज़ोर से पागलों की तरह रघु रघु चिल्लाने लगा।
- और फिर?
- लेकिन कुछ नहीं हुआ। सबने अपनी अपनी चादर में से सिर निकालकर एक बार मुझे देखा और फिर मुँह ढककर सो गए।
- तुम सपना देख रहे थे। प्यास का सपना।
- मैं नहीं जानता। मगर मैंने उसकी तस्वीर देखी थी और तस्वीर के पीछे लिखा हुआ नाम।
- रघु मर चुका है।
वह दृढ़ता से कहती है और मैं अबोध बच्चे सा उसे देखता रहता हूँ जैसे वह तुरंत ही कोई रहस्य खोल देने वाली है। हमसे कुछ दूर जो टेबल है, उस पर पढ़े लिखे से दिखने वाले दो आदमी आकर बैठ गए हैं। उनमें से एक हमारी ओर देख रहा है और दूसरा मोबाइल पर बात कर रहा है।
- मुझे डर लग रहा है कंचन।
मैं आँखों से उनकी ओर इशारा करते हुए उससे कहता हूँ। वह मुड़कर उन्हें देखती है।
- डरो मत। मैं इन्हें यहाँ रोज़ देखती हूँ।
- तुम यहाँ रोज़ आती हो?
- हाँ।
- कितने दिन से हो तुम यहाँ?
- परसों से।
- रोज़ आने वाले लोग भी तो पुलिस वाले हो सकते हैं।
- तुम एक ही दिन में इतने शक्की कैसे हो गए हो?
- तुम्हें.... – मैं उसकी हथेलियाँ अपनी हथेलियों में कस लेता हूँ – तुम्हें कैसे पता कि रघु मर चुका है?
- सबको पता है।
- किन सबको?
- पूरी यूनिवर्सिटी को...पूरे शहर को।
- क्या क्या पता है?
मैं फुसफुसाकर पूछता हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरा स्वर काँप रहा है। मैं सपने और सच में अंतर नहीं कर पा रहा और मुझे डर लगता है कि मैं कहीं पागल न हो जाऊँ।
- सिर्फ तुम्हें ही नहीं पता, जबकि तुमने सीबीआई की तरह पूरी तफ़्तीश भी कर डाली।
- लेकिन क्या पता है सबको?
- सब कहते हैं कि वह तुम्हें कम्पीटिशन देने लगा था, इसलिए तुमने उसे मरवा दिया....और अब तो गबन के बाद तुम्हारे खिलाफ एक और सबूत जुड़ गया है।
- क्या कहा तुमने? – मैं उसके हाथ छोड़कर पस्त सा कुर्सी पर पीछे पड़ जाता हूँ – तुम भी इसे गबन कहती हो?
वह मुस्कुराती है। क्या यह कोई इशारा है कि वे दोनों आदमी अब खड़े हो गए हैं?
वह आगे झुककर फुसफुसाती है- लेकिन मैं तुम्हें हत्यारा नहीं मानती क्योंकि मैं सच जानती हूँ।
- क्या है सच?
मुझे लग रहा है कि वे सादी वर्दी में पुलिस वाले ही हैं।
- कि रघु को तुम्हारी माँ ने मरवाया है। नीलम की मदद से।
- कौन माँ? कौन नीलम? कैसा सच कंचन? क्या सच है कहीं या उसके अपने अपने वर्ज़न ही हैं?

यही सच है। वैसा ही साफ सच, जैसा उस दीवार के पीछे सूरज है और एक और सच है। सच का मेरा संस्करण। कल शाम जब मैं भागकर छिपता हुआ स्टेशन पर पहुँचा और वहाँ से मैंने कंचन को फ़ोन किया तो उसका फ़ोन बिजी जा रहा था। फिर जाने किस फितूर में मैंने माँ को फ़ोन मिलाया, यह जानते हुए भी कि माँ, माँ नहीं, कोई और, कुछ और है। माँ का फ़ोन भी बिजी था और क्या यह नहीं हुआ था कि संसार की नज़रों में जब मैं भगोड़ा था और खो गया था, तब वे दोनों आपस में बात कर रही थी? फिर कंचन का फ़ोन आया था और उसने कितनी बेताबी से कहा था कि मैं तुरंत गाड़ी पकड़कर उसके पास चला आऊँ और फिर हम कहीं और चले जाएँगे। जहाँ दुनिया बदल देने का पागलपन नहीं, एक छोटा सा घर, उसके बाहर उगी थोड़ी सी दूब और अपनी सीमाएँ होंगी। वह रात गाड़ी में उसी छोटे से घर के सुरूर और उस पाताल की याद के बीच झूलती हुई बीती थी, जिसे मैं स्वर्ग बनाना चाहता था। लेकिन क्या सच यह नहीं था कि मेरा फ़ोन कटते ही उसने तुरंत माँ को फ़ोन करके यह बताया था और गाड़ी में जब मैं प्यासा था...या प्यासे सपने में था तो चादरें तानकर लेटे सब लोग पुलिस के भेदिये थे?
वे दोनों चलकर मुझ तक आते हैं और मैं बहुत पहले उठकर भाग जाना चाहता था, मगर मेरे पैर बहुत बाद तक जमे रहे हैं, सो गए हैं। यह डर नहीं है। सुनो, ध्यान दो, यह डर नहीं है। काँपकर टूट नहीं जाओ, ज़िन्दा रहो। यह सिर्फ़ सच है।

उनमें से एक मेरे कन्धे पर हाथ रखता है, पहला हाथ। वह कहती है, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ और सूरज दीवार की ओट से बाहर निकलता है। माँ कहती है कि तुम उन लड़कों का साथ छोड़ दो...सबसे पहले रघु को अपने पास से हटाओ। किताबें कहती हैं कि माँ हमेशा सही कहती है।

घुप्प अँधेरा है। मैं पता नहीं, कितनी देर से स्थिर लेटा क्या देख रहा हूँ? मैं अचानक करवट बदलता हूँ तो मेरा हाथ अचानक किसी नर्म गुदगुदी त्वचा से टकरा जाता है।
- कौन हो तुम?
मैं चौंककर बैठ जाता हूँ। एक लड़की की बड़बड़ाहट सुनती है। फिर वह हिलती है और लाइट ऑन करती है। दो सेकंड बाद वह लाइट ऑफ़ भी कर देती है। इस अंतराल में मैं उसका चेहरा भी ठीक से नहीं पहचान पाया।

एक बड़ा सा मंच है, जिसके फर्श पर गहरे लाल रंग का कालीन बिछा है और सामने की सब कुर्सियाँ भरी हुई हैं। लोग बैठे हैं और वे हँसना चाह रहे हैं। मंच पर चार कलाकार आ गए हैं। दो पुरुष, दो स्त्रियाँ। एक स्त्री इतनी सुन्दर है कि वह मुस्कुरा भर रही है और लोग तालियाँ पीट पीटकर बेहाल हुए जा रहे हैं। वह नायिका है। वह सबसे अधिक कमाती है। नाटक के प्रचार के पोस्टरों में उसी के सबसे ज़्यादा चित्र थे। एक और लड़का स्टेज पर आ गया है, जिसका कद सामान्य से कुछ कम है। एक सौम्य सा दिखने वाला पुरुष, जो पहले दो पुरुषों में से एक है, टाँग अड़ाकर लड़के को गिरा देता है। कितनी ख़ूबसूरती से गिरा है वह लड़का और बच्चों की तरह रोने लगा है। ऐसे कि उसे देखकर पूरे हॉल में ठहाके ही ठहाके गूँज उठते हैं। तुम क्यों रोते हो पागल? क्या दुख है ऐसा, जो कहीं भी नहीं छिपा पाते तुम? हाँ, यह सही है कि वह गिरा है तो उसे चोट लगी होगी और वह इन पाँचों में सबसे अधिक प्रतिभाशाली अभिनेता है और हँसना पूरी तरह अकर्मक नहीं रह गया है, उस को हँसा जा रहा है। मगर यह भी तो देखो कि बाहर कितनी खिली हुई धूप है और मौसम बदलेगा तो बादल भी होंगे। बाहर कहीं बच्चे खेल रहे होंगे, कहीं कोई लड़की अपने प्रेमी का चेहरा देखकर मुस्कुरा रही होगी और पिकनिक कितना ख़ुशनुमा शब्द है, जिसमें वे सब हर इतवार डूबे रहते हैं और कितना अथाह सुख है दुनिया में!

कितना अथाह सुख है इस दुनिया में, जिसमें तुम्हारी सोच इतनी संकीर्ण है कि अपनी भूख के बारे में ही बोले जाते हो। रात के दो बजे हैं। अगर उजाला होता तो तुम अपने पास लेटी लड़की के साथ साथ अपना मोबाइल फ़ोन ढूँढ़कर उसमें समय भी देख स्काते थे। रात के दो बजे बाहर धूप है और अन्दर काला अँधेरा और तुम फिर पास लेटी लड़की को हल्के से छूते हो। इस बार के स्पर्श में तुमने उसे कंचन पहचान लिया है।
- मुझे भूख लगी है कंचन।
तुम धीरे से फुसफुसाते हो। वह नहीं सुनती। तुम फिर से छूते हो तो वह करवट बदल लेती है। तुम कुछ ज़ोर से फिर भूख दोहराते हो।
- सोने दो ना...
वह झुंझला जाती है।
- कैसे सोने दूँ? मुझे नींद नहीं आती भूख के मारे।
तुम लाइट जला देते हो। वह तकिया उठाकर अपने चेहरे पर रख लेती है।
- यह तुम्हारा घर है। मेरे घर में होते तो कुछ न कुछ दे देती तुम्हें।
- कुछ देर के लिए जगो कंचन। मुझे बातें करनी हैं तुमसे।
- हाँ, जल्दी बोलो। जगी तो हुई ही हूँ मैं।
वह उसी तरह तकिए से चेहरा ढके हुए है। मुझे अचानक बहुत गुस्सा आता है और मैं उसका तकिया खींचकर दूर फेंक देता हूँ। वह हड़बड़ा जाती है और आँखें फाड़ फाड़कर मुझे देखने लगती है।
- मुझे बताओ कि वे सब किताबें, जो लिखी जा रही हैं, वे सब फ़िल्में, जो तुम और मैं देखते हैं, वे सब अर्थशास्त्र और राजनीति के सिद्धांत जिनसे दुनिया चल रही है और जो किताबों में, लाइब्रेरियों में भरे पड़े हैं...दीमकें जिन्हें खाए जा रही हैं, वे सब शादियाँ, जो महंगे होटलों या सस्ती धर्मशालाओं में दिन रात लगातार चल रही हैं, गणित के सब सूत्र और फिजिक्स की तमाम अवधारणाएँ, जो ब्रह्मंड की सम्पूर्ण व्याख्या कर देने का दावा करती हैं, उनमें कहीं भी भूख का नामोनिशान क्यों नहीं है? वे लड़के, जो कम बोलते थे और ढेर सारे सपने देखते थे...वे लड़के जो पेट्रोमेक्स की रोशनी में रात रात भर अपनी आँखें फोड़ते थे, उन्हें गायब क्यों कर दिया गया है? ऐसा क्यों लगता है कि वे सब लोग, जो हिम्मती थे, नास्तिक थे और दावा करते थे कि एक दिन आएगा, जब हम समाज को बदल डालेंगे...उन सब लोगों के मुँह में कपड़ा ठूँसकर...बताओ तुम...ऐसा क्यों लगता है कि उनके हाथ पैर बाँधकर, उनके मुँह में कोई बदबूदार कपड़ा ठूँसकर उन्हें अन्धे तहखानों में सड़ने के लिए डाल दिया गया है? तुम बताओ मुझे कंचन कि ऐसे समय में तुम सब लोग कैसे ऐसी किताबें लिख सकते हो....- मैं अपने सिरहाने पर रखी उसकी किताब उठाकर उसे दिखाता हूँ, वह हैरान सी होकर मुझे देखे जा रही है, क्रोध से मेरे हाथ काँप रहे हैं, मेरी आँखों से निरंतर पानी बह रहा है – कैसे लिख सकती हो तुम कंचन ‘प्यार के पंछी’ नाम की कोई किताब...कोई भी कैसे लिख पा रहा है प्रेम की कविताएँ? यह पढ़ो..पेज नम्बर 81...तुम्हें तो याद होगा? एक एक अक्षर तुमने ही तो लिखा है...

मेरी आँखें बहुत लाल होंगी, मैं जानता हूँ। वह उसी तरह सन्न सी मुझे देखे जा रही है। मैं तेज आवाज़ में पढ़ना शुरु कर देता हूँ।
- उस हिल स्टेशन की एक सर्द रात में वे दोनों अपने बिस्तर पर लिहाफ़ में दुबके बैठे थे। उसने शिखा से कहा कि तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर हैं। शिखा उसे पा लेना चाहती थी। वह हर बार उसके कौमार्य को और भी अक्षत बनाता था। वह उसे पवित्र करता था...
पढ़ते पढ़ते मेरी साँस घुटने सी लगी और मैंने किताब ज़मीन पर फेंक दी।
- तुम कैसे लिख पाई यह सब कंचन...कहाँ से लाई यह झूठी कोमलता और सतीत्व और पवित्रता? क्या यह शब्द...यह शब्द ‘पवित्र’ लिखते हुए तुम्हें ज़रा भी याद नहीं थी वह सुबह, जब तुमने मुझे पकड़वाने के लिए पुलिस बुला रखी थी और...और मैं सोच रहा था कि हम शादी करेंगे, एक बेटी होगी हमारी, जिसका नाम हम ज्योत्सना रखेंगे और जब तुमने यह शब्द लिखा, तुम्हें मेरा सहमा हुआ चेहरा बिल्कुल भी याद नहीं आया?

वह उठकर बैठ गई है, लेकिन अब भी कुछ नहीं बोलती।
- पता है तुम्हें.... – मेरा स्वर अचानक कोमल और निरीह हो आया है – कि उस दिन मैं भाग न पाता तो अब तक जेल की किसी तंग कोठरी में सड़ रहा होता?
- हाँ, मैं जानती हूँ जानू...और तुम्हें नहीं पता कि मुझे कितना पश्चाताप होता है उस सुबह के लिए...मैं प्यार करती हूँ तुमसे।
वह मेरा बायाँ गाल सहलाने लगी है।
- क्या ऐसा ही होता है प्यार, जिसमें लोग कहते हैं कि उन्होंने स्वर्ग पा लिया है?
मैं लेटकर फफक फफककर रोने लगा हूँ। अब वह मेरा माथा सहलाने लगी है।
- तुम तप रहे हो...
- अब तुम अगली किताब लिखने लगोगी तो फिर से महीनों के लिए मुझसे दूर चली जाओगी। क्या ऐसा ही होता है प्यार?
- नहीं, हरेक के लिए ऐसा नहीं होता। लेकिन तुम बहुत ज़िद्दी हो ना।
- क्या ज़िद्दी लोगों को मर जाना चाहिए?
- हाँ, मैं सच में चाहती थी कि तुम मर जाओ या जेल में डाल दिए जाओ। मैं उन सबके बीच तुम्हें पागल होते नहीं देख सकती थी।

पिछले दो साल में वह यही बात कई बार मुझसे कह चुकी है। मैं उसकी उंगली की नोक के इशारे पर नाचता सा उसे देखता रहता हूँ। कुछ मिनट बाद वह उठती है। उसकी आँखें, नाक, कान प्लास्टिक के हैं। वह तेजी से कपड़े पहनती है। गुलाबी रंग का टॉप और गहरी नीली जींस। बाल ठीक करती है और फिर अपनी गाड़ी की चाबियाँ और पर्स उठाती है और मुस्कुराकर चल देती है। फिर वह रुकती है और पलटती है।
- बार बार ये सब बातें मत दोहराया करो। कोई सुन लेगा तो क्या होगा? पुलिस के रिकॉर्ड में तुम दो साल से फ़रार अपराधी हो।
भूखे और अकेले अपराधी! हंगरी एंड अलोन क्रिमिनल!
माँ जैसे मेरे कान में कविता पढ़ती है। उस किराए के खंडहर कमरे में, जिसकी छत से पपड़ी उतर उतरकर गिरती रहती है और जहाँ मुझे लगता है कि मेरी हड्डियाँ भुरभुराने लगी हैं, मैं बुदबुदाता रहता हूँ....मुझे प्यार करो माँ। यह भागना है, मगर पलायन नहीं है।

शराब पी लेने के बाद सड़क पर निकलो, क्या तब ऐसा लगता है कि सभी सड़कें एक ही तरफ जा रही हैं...या एक ही रास्ता है, जो हर दिशा में ले जाने का वादा सा करता है? क्या तब ऐसा होता है कि आप सड़क किनारे लगे सूचना पट्ट, घरों के बाहर टँगी नेमप्लेटें और ऊँची ऊँची इमारतों पर लिखे बड़े बड़े नाम ठीक से नहीं पढ़ पाते? आपको लगने लगता है कि अभी अभी जो लम्बी सी काले शीशों वाली कार गुज़री है, जिसका नम्बर 0001 है, उसके अन्दर बैठा मोटा सा आदमी आपकी प्रेमिका से सहवास कर रहा है और ड्राईवर ने ‘किस मी बेबी’ तेज आवाज में चला दिया है और फिर, जब आपकी दृष्टि धुँधलाने लगती है, आपको सब बड़ी बड़ी इमारतों पर उसी का नाम लिखा दिखाई देता है। वह मोटा आदमी अख़बारों के पहले पन्नों पर है, उसके मन्दिर बनाए जा रहे हैं और पूजा हो रही है, विश्वविद्यालयों में उसके जीवन पर आख्यान दिए जा रहे हैं, तमाम मानद डॉक्टरेट उसे ही दी जा रही हैं, सब सड़कों, पुस्तकालयों, प्रतिष्ठानों, चौराहों, खेल परिषदों, चन्द्रयानों, अनुसन्धानों, नहरों, परियोजनाओं, पुरस्कारों और अस्पतालों के नाम उसी आदमी के नाम पर हैं। वही एक साथ सदी का सबसे बड़ा दार्शनिक, विचारक, वैज्ञानिक, समाजवादी, भविष्यदृष्टा, उद्योगपति, कलाकार, लेखक और राजनेता है।

हम सब, जिनमें मैं, रघु, कुलदीप, जीवन, सुरेश, अविनाश, राधा, मनप्रीत और कई करोड़ और लोग हैं, जिनके नाम किसी को भी याद नहीं और न ही हम याद रखवाना चाहते हैं...हम सब, जिनकी जड़ों को मीठी छाछ डालकर जलाया जा रहा है और हमें यह अधिकार नहीं कि हम ईमानदारी से वे दो-चार काम कर सकें, जिन्हें करने के लिए हम पागल हुए जा रहे थे...हम, जो दो वक़्त की रोटियों के लिए अय्याश अधेड़ों के काले सपनों को पूरा करने वाली दफ़्तरी नौकरियाँ करते हैं और चुप रहते हैं...हम, जिनके पास संसद में युवाओं के बढ़ते हुए नकली प्रतिनिधित्व के बावज़ूद वॉकआउट कर जाने के लिए संसद की सीटें तो क्या, ठीक से मतदाता पहचान पत्र भी नहीं हैं और हम, जो पुलिस के रिकॉर्ड में भगोड़े, भूमिगत और आतंकवादी हैं और नकली नामों के साथ शाम भर अपने उदास कमरों में अकेले पड़े रहते हैं; हम सब ऐसे समय में उस अधनंगे फ़कीर बूढ़े को याद करते हैं, जो लन्दन में ईसामसीह की मूर्ति के गले लगकर फूट फूटकर रोया था, जो चरखा कातता था, चुप रहता था और ज़िद्दी था, विरोध में अपने आप को कष्ट देता था, भूखा मरता था।

लो माँ, आओ, आँखें खोलो, देखो और यक़ीन कर लो, चैन से सो जाओ। मेरा हाथ ठीक से पकड़ना रघु। कितने ख़ूबसूरत लग रहे हैं ना हम सब एक साथ?

यह जो तुम सबका सुख है माँ और इतना है कि पानी हो गया है, इसमें हम सब अपने सपनों और योग्यताओं के साथ, लो देखो, डूबते हैं।