Photo- 4 Months, 3 Weeks and 2 days |
मैं अपने शहर से निकाल दी गई थी। भाई उसी शहर की जेल में था। मुझे एक सौ अठानवें किलोमीटर दूर यहाँ लड़कियों के स्कूल में भेज दिया गया था, हॉस्टल में। यहाँ हॉस्टल में रहना ज़रूरी नहीं था लेकिन मम्मी पापा, जिन्होंने उस दिन के बाद मुझसे कोई बात नहीं की थी, मुझे पहले की तरह खुला नहीं छोड़ना चाहते थे। खुला शायद छोड़ भी नहीं सकते थे। मेरे ऊपर कोई मुकदमा नहीं था इसलिए मुझे जेल भी नहीं भेजा जा सकता था लेकिन मम्मी पापा ने मेरे लिए यह हॉस्टल जेल की तरह ही चुना जहाँ लड़कियों से बाहर का कोई आदमी नहीं मिल सकता था, सिवा उनके माँ बाप के। और मेरे माँ बाप पिछले चार महीनों में एक भी बार नहीं आए थे। बहुत मुश्किल से मेरी हॉस्टल वार्डन तैयार हुई थी कि मुझे जेल में अपने भाई से मिलने के लिए जाने दिया जाए। वह मेरे साथ जाती थी। दरअसल उसके कई प्रेमी भी हमारे पुराने शहर में रहते थे और मुझे साथ ले जाने से उसका बस का सफ़र आसानी से कट जाता था। बाकी भी कुछ काम मुझे करने पड़े थे, जिनका ईनाम यह पाँच या आठ तारीख की मेहरबानी होती थी। हम एक दूसरे की आज़ादी और विचारों की इज़्ज़त करते रहें तो हो सकता है कि मैं बाद में सब कुछ आपको बताऊँ।
पापा मम्मी ने वहाँ का घर बेच दिया था। हालांकि उनके लिए तो वह घर था ही
कहाँ! वे छुट्टियाँ मनाने ही तो आते थे। जो भी हो, शहर के लोगों में हमारे लिए
इतनी आग थी कि वे उस घर को न भी बेचते तो भी हमें उसके अन्दर बन्द करके उसे जला
दिया जाता। उस शाम से अगली सुबह जब पुलिस भाई को पकड़ने आई तो हमारे घर के आगे कम
से कम दो हज़ार लोग जमा थे और वे किसी भी पल दरवाज़ा तोड़ने वाले ही थे। पापा मम्मी
तब तक नहीं आए थे।
जब पुलिस भाई को लेकर चली तो मैं बाथरूम में बन्द हो गई थी। दो तीन लड़के
अन्दर घुस आए थे और भूखे शेर की तरह मुझे ढूंढ़ रहे थे। शायद उनमें बलजीत भी था या
हो सकता है कि यह मेरा वहम ही हो। हाँ, वहम ही है शायद। वो ऐसे नहीं आएगा।
मैंने एड़ियाँ उठाकर रोशनदान में से कुछ सेकंड के लिए बाहर देखा था और मुझे
याद है कि उनकी आँखों में क्या क्या था। वे मुझे नंगा करके बाज़ार में घुमाना चाहते
थे। वे मेरे शरीर से खेलना चाहते थे और ऐसा करते हुए इतिहास में अमर भी हो जाना
चाहते थे कि देखो, ऐसे देते हैं हम सजाएँ। इसके बाद जब वे सब घर पहुँचते तो उनकी
बेटियाँ, बीवियाँ, बहनें और माँएं उन्हें शुक्रिया कहती और घी पिलाती कि जब तक तुम
हो, हमें कोई नहीं छुएगा।
और यह पवित्र बदला उन सबकी आँखों में ही नहीं था, बल्कि वे ऐसा चिल्लाने
भी लगे थे। लेकिन इसी बीच दो पुलिसवाले दौड़कर आए और हमारे घर में घुसे लड़कों को
उठाकर बाहर ले गए। फिर उन्होंने बाहर ताला लगा दिया और वहीं खड़े हो गए।
भाई को जब दोनों तरफ़ से दस-दस पुलिसवाले घसीटकर जीप की तरफ़ ले जा रहे थे
तो कहीं से एक पत्थर आकर उसके माथे पर लगा था और खून बहने लगा था। कुछ लड़के खुशी
से चिल्लाए थे। भाई चोट को छूना चाहता था। दर्द से उसकी आँखों में पानी आ गया था
लेकिन वे सब जल्दी में थे। वे उसे कुत्ते की मौत मारना चाहते थे। वैसे मैंने कभी
कुत्ते की मौत नहीं देखी। मैंने अपनी ज़िन्दगी में अब तक चींटियों, ततैयों और
कॉकरोचों के अलावा सिर्फ़ अमरजीत को मरते देखा है। और इन सभी मौतों ने मुझे बराबर
परेशान किया है। क्या आदमी की मौत सिर्फ़ इसलिए ज़्यादा त्रासद है कि वह हमारी नस्ल
का है या फिर वह तड़पता है तो उसके हाथ पैरों की हरकतों और उसकी चीखों की भाषा हमें
समझ आती है?
जब मैं चार साल की थी और हमारे कमरे में लगातार इधर-उधर उड़ रहे एक ततैये
को भाई ने तकिये के कवर के अन्दर दबाकर मसल दिया था तो मैं सोचती रही थी कि इसका
भी कोई घर होगा, जहाँ यह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता होगा और उस शाम उसकी
पत्नी और बच्चे उसका इंतज़ार करते रहेंगे। वे तो शायद जान भी नहीं पाएँगे कि वह
कहाँ गया? उनके यहाँ तो एफ़आईआर भी नहीं होती और ऐसे अख़बार भी नहीं होते जो क्रूर
हत्याओं के इंतज़ार में होते हैं ताकि उनमें काम करने वाले पत्रकारों की रोज़ी रोटी
आराम से चल सके। मुझे हँसी आती है जब आप क्रूरता और मानवता जैसे शब्द बोलते हैं।
आप कितनी प्यारी छवि बनाना चाहते हैं ना अपनी दुनिया की और इसमें जो भी जीव आपको
दाग लगता है, उसे मारने के लिए कैसे कैसे तरीके ईज़ाद किए हैं आपने। लेकिन आपके पास
तर्क हैं जिनके कारण आप हर रात चैन से सो पाते हैं और अपने बच्चों को गुलाबी गालों
वाली परी की कहानी सुना पाते हैं। और यहाँ आप मेरे भाई से कहते हैं कि हत्या को
कोई तर्क जायज नहीं ठहरा सकता। और बुद्ध और ईसा और गाँधी की बड़ी बड़ी तस्वीरें
आसमान में बन जाती हैं।
मेरा भाई वैसे बुरा नहीं था, जैसे अख़बार उसके बारे में लिखते हैं। न ही
वैसा संवेदनहीन, जैसा वह अपने आप को दिखाता है। उसने भीड़ के बीच उस पुलिस की जीप
में बैठते हुए बाथरूम के उस रोशनदान की तरफ़ देखा था। मेरी तरफ़। यह देखने के लिए कि
क्या मैंने देखा है कि उसे चोट लगी है। कभी कभी इतना भर भी सुकून देता है कि कोई
है जो मेरी चोट को जानता है और अभी चाहता है कि इस भीड़ को चीरकर आ जाए और डेटॉल से
मेरा माथा धोए और फिर उस चोट को चूमे, जैसे जादू यहीं इस बीस फीट चौड़ी सड़क पर जन्म
लेगा।
मैं उस भीड़ में नहीं जा सकती थी। हालांकि कुछ मिनट बाद ही शायद मुझे नंगा
करके कंधों पर उठाकर उस भीड़ में ले जाया जाता लेकिन बीच में पुलिस के वे दो जवान आ
गए थे जो हमारे घर के दरवाज़े पर खड़े थे। उनमें से एक की आँखों में बहुत पहले का
कोई दुख था। वह कभी भी रो सकता था।
बाकी कहानी किताब में
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