हाँ हाँ, यादों में है अब भी
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सभी तस्वीरें- Elliott Erwitt |
क्या सुरीला वो जहाँ था
हमारे हाथों में रंगीन गुब्बारे थे
और दिल में महकता समां था।
वो तो ख़्वाबों की थी दुनिया
वो किताबों की थी दुनिया
साँस में थे मचलते हुए जलजले
आँख में वो सुहाना नशा था।
क्या ज़मीं थी, आसमां था
हमको लेकिन क्या पता था,
हम खड़े थे जहाँ पर
उसी के किनारे पे गहरा सा अन्धा कुँआ था...
- पीयूष मिश्रा, गुलाल (2001-2009-?)
लालकिले के
ठीक सामने मैं दरियागंज को ढूंढ़ रहा था। वहाँ से लहराता तिरंगा दिख रहा था, जो न
जाने क्यों आज़ादी की बजाय ग़ुलामी का अहसास करवा रहा था। बहुत भीड़ थी। लालकिले के
सामने से गुज़रने वाले क़रीब चालीस प्रतिशत लोग मुँह उठाकर उसे देखते हुए चलते जाते
थे। इस तरह आसानी से उन लोगों को पहचाना जा सकता था, जो दिल्ली से बाहर के थे। कुछ
लोग पन्द्रह या बीस सालों से भी दिल्ली में रह रहे होंगे लेकिन वह हर आदमी सामने
से गुज़रते हुए हसरत भरी निग़ाह लालकिले पर ज़रूर डालता है, जिसका बचपन दिल्ली में
नहीं बीता। यह ग़ौर करने लायक बात है कि आक्रमणकारियों द्वारा जनता को लूट कर बनवाई
गई इमारतें ही उन मुख्य पर्यटन स्थलों में हैं (उनमें से अधिकांश लाल हैं जो कि
संयोगवश खून का रंग भी है), जिन्हें देखने मासूम से बच्चे स्कूल की मैडमों के साथ
कतार बनाकर आते हैं।