वे मेरे लिए पूरियां
लेकर आए हैं। ट्रेन चलने वाली है। वे चाहते हैं कि मैं अभी खा लूं, उनके सामने।
मुझे भूख नहीं है और मैं उस ट्रैफ़िक पुलिस वाले पर अभी तक झल्ला रहा हूं जिसकी वज़ह
से आज ट्रेन छूट सकती थी। उन्हें लौटना है क्योंकि वे जिन जगहों पर लौटते हैं
हमेशा से, जिन कस्बों में वे रहते हैं और जिनमें उन्होंने हमें सुन्दर पाला है,
उनके लिए कहीं से भी अक्सर छ: या सात बजे शाम के बाद बसें या रेलगाड़ियां नहीं
मिलतीं। वे फिर से कहते हैं कि मैं पूरियां खा लूं क्योंकि उन्हें प्लास्टिक का यह
टिफिन लेकर लौटना है। मुझे सच में लगता है कि उन्हें जल्दी टिफिन लेकर लौटने की
है। मैं पूरियों का अखबार लेकर टिफिन उन्हें दे देता हूं और कहता हूं कि रेल चलने
पर खाऊंगा। वे उतर जाते हैं।
रेल चल दी है। मैं दरवाजे पर खड़ा हूं। जाते हुए वे बार-बार गिरने को होते हैं। मैं चिल्लाकर किसी से कहना चाहता हूं कि मेरे पिता हैं वे, उन्हें संभालो। लेकिन मैं चुप देखता रहता हूं। अचानक वे रुककर मुड़ते हैं और मुस्कुराते हैं। कुछ चिल्लाते हैं, जो मुझे नहीं सुनता। वे ट्रेन की दिशा में तीन-चार कदम तेजी से बढ़ते हैं और फिर चिल्लाते हैं। मुझे अब भी नहीं सुनता। फिर अपने साथ चल रहे एक आदमी को रोककर मेरी ओर इशारा करके कुछ कहते हैं।
वे रेल के पिता नहीं हैं इसलिए रेल बेझिझक प्लेटफॉर्म से निकल आई है। वे मेरे पिता हैं लेकिन मैं भी निकल आया हूं।
ऐसे कहाँ जाता हूं और क्यों?
जैसे अब सब ठीक है या हो जाएगा वाला हाथ
हम बस अड्डे से लौट रहे थे। पिता के कन्धों पर एक खाकी सा झोला और हाथ में एक गैलन था। हमें जो सब्जियां खरीदनी थीं, वे नहीं मिली थीं। मिट्टी का तेल मिल गया था। मै कुछ गुनगुना रहा था। अँधेरा होने लगा था। उन्होंने एक खाली गोदाम के सामने से गुज़रते हुए मुझे अपने क़रीब खींचकर मेरे कंधे पर कसकर हाथ रखा था, जैसे वे ईश्वर हों वाला हाथ, जैसे अब सब ठीक है या हो जाएगा वाला हाथ, और कहा था कि बरसों बाद किसी शाम अँधेरा पड़ने पर जब तुम्हारे पास लौटने के लिए कोई घर न हो तो याद करना – और इस समय पर हँसना या रोना मत – कि एक इतवार की शाम हम दोनों इस तरह लौट रहे थे, तुमने लाल निकर पहन रखी थी, तुम एक दुकान के बोर्ड पर लिखी लाइनों को गाने की तरह गुनगुना रहे थे, तुम टीवी पर कुछ देखने के लिए उतावले थे और तुम्हें यक़ीन था कि मैं तुम्हें हमेशा इस दुनिया से बचाकर रखूंगा।
मैं बेवकूफ़ों की तरह हँस रहा था। साढ़े सात वाली ट्रेन उस दिन लेट थी। मैंने घर के बाहर खड़ी गाय का कान छुआ था और वह अपना चेहरा मेरे चेहरे के पास ले आई थी। दरवाजा खुला मिला था। लाइट नहीं थी और हम सबने छत पर खाना खाया था।