(यह कहानी आउटलुक पत्रिका के नवम्बर, 2011 अंक में छपी है)
हम ऐसा कहते ज़रूर थे
कि हमारी जान निकल जाएगी लेकिन वो निकलती नहीं थी। जब वे मुझे मारते थे तो मैं
बचाव के लिए किसी चीज का इस्तेमाल नहीं करता था। ऐसे दीवार की तरह आँगन के
बीचोंबीच खड़ा रहता जैसे मुझे कोई नहीं हिला सकता। मैं कोई देवता नहीं था कि किसी
अस्त्र से उनकी गालियों और लाठियों को वापस लौटा सकूं। वे मेरे शरीर और आत्मा में
उतरती थीं और छिपकर बैठ जाती थीं। लेकिन मैं खड़ा रहता था, आँखें पूरी खोले। मुझे
एक भी दृश्य नहीं भूलना था।
जब वे थकने लगते थे, तब मैं कहता था कि मैं मर जाऊँगा। तब उन्हें तसल्ली हो जाती थी कि उन्होंने मुझे ठीक से मारा है। वे मुझे छोड़ देते थे और जाकर माँ के कमरे का दरवाज़ा खोल देते। वह रो रही होती थी जैसे रोने से अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर लेगी। मैं तब हँसता रहता और उससे बात भी न करता।
By Sally Mann |
जब वे थकने लगते थे, तब मैं कहता था कि मैं मर जाऊँगा। तब उन्हें तसल्ली हो जाती थी कि उन्होंने मुझे ठीक से मारा है। वे मुझे छोड़ देते थे और जाकर माँ के कमरे का दरवाज़ा खोल देते। वह रो रही होती थी जैसे रोने से अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर लेगी। मैं तब हँसता रहता और उससे बात भी न करता।
मुझे ठीक से याद
नहीं कि मैंने माँ को पहली बार कब देखा था। जो दृश्य मुझे याद आता है, वह उसके
नहाने का है। उस दृश्य में मैं अपना आसपास नहीं देख पा रहा हूँ लेकिन अब सोचूँ तो
ऐसा लगता है कि मैं एक तसले में बैठा हूँ और वह नहा रही है। इसके बाद अचानक उस
बाथरूम की बत्ती बुझ जाती है। तब मैं किसी सपने से जागता हूँ। यह मुझे अच्छी तरह
याद है कि उस बाथरूम की सामने वाली दीवार में से दो ज़गह से ईंटें निकली हुई हैं।
उनमें उसने अपनी बिन्दी और बालियाँ उतारकर रख दी हैं। मैं उन्हें खा जाना चाहता
हूँ। मैं ऐसी कोशिश भी करता हूँ लेकिन वह मुझे गिरने से बचा लेती है और उसके बाद,
जैसा कि मैंने कहा, बत्ती गुल हो जाती है।
वह एक खेल जैसा था।
मैं उस कमरे के बाहर कुर्सी पर बैठता था, जिसके दरवाज़े के ऊपर की दीवार पर शोर
करने वाली घड़ी टँगी हुई थी। समय का मुझे उस समय अनुमान नहीं था लेकिन अब लगता है
कि कम से कम एक डेढ़ घंटा रोज़ ऐसा बीतता होगा। वह मेरी मौसी थी, जो उस समय के बाद
उस कमरे से मेरे पिता के साथ बाहर निकलती थी, खिलखिलाती हुई जैसे अभी भीतर उन
दोनों ने दुनिया को बनाना सीख लिया है। तब मेरे पिता उस एक घंटे बैठने का मुझे एक
रुपया थमाते थे और सामने दीवान पर लेट जाते थे। मौसी रसोई में घुस जाती थी और कोई
गाना गुनगुनाती हुई चाय बनाने लगती थी। मुझे हैरानी है कि वह रोज़ उस समय एक ही
गाना गाती थी। कम से कम छ: महीनों तक एक ही गाना। वह गाना मुझे याद नहीं लेकिन उसमें
‘पायल’ शब्द ज़रूर आता था। बाद में मेरी क्लास में एक पायल
नाम की लड़की थी, जिससे मैं बहुत नफ़रत करता था और एक बार मैंने उसे परकार चुभाकर मारने
की नाकाम कोशिश भी की।
मौसी मेरी माँ की
बहन थी, ऐसा मुझे बहुत बाद में पता चला। मुझे हमेशा वह पापा की कुछ लगती थी। वह तब
आई थी, जब माँ मेरे लिए भाई या बहन लाने एक कमरे में गई थी। वह न भाई-बहन ला पाई
और ख़ुद भी एक साल तक उसी कमरे में पड़ी रही।
मौसी को देखकर लगता
था कि वह कुछ भी छू देगी तो वह पिघल जाएगा। वह चार रोटियाँ, सब्जी, सलाद और दही का
खाना खा चुकी होती थी, तब भी शुरू के दिनों में उसकी आँखें देखकर मुझे लगता था कि
वह भूखी है और कभी भी रो सकती है। फिर अचानक एक दोपहर मैंने घड़ी वाले दरवाज़े वाले
कमरे में अपने पिता के हाथ उसके सूट के भीतर पाए। पापा ने मुझे देख लिया और वे
तुरंत उठकर मेरी ओर दौड़े। मैं बचकर भागा जैसे मैंने चोरी की हो। लेकिन घर ज़्यादा
बड़ा नहीं था और घर से बाहर जाना,
जाने क्यों मुझे उसूलों के ख़िलाफ़ लगा। उन्होंने मेरी पीठ पर दनादन मुक्के मारे और
फिर मुझे बाथरूम में बन्द कर दिया। मुक्के खाने के दौरान मैं बरामदे में इधर-उधर
भाग रहा था और माँ अपने बिस्तर से मुझे देख-देखकर रो रही थी। यह उसके लिए आसान था।
कभी रजाई से बाहर चेहरा निकालकर और कभी अन्दर छिपाकर रोना।
जैसा कि आप जानते
हैं, मैं कितने समय बाथरूम में बन्द रहा, इसका कोई अनुमान मुझे नहीं है। यह मुझे
याद है कि जब मैं निकला तो मौसी खाना बना रही थी और उसने मुझे गोद में लेकर चूमा।
अगले दिन मैंने स्कूल से लौटकर पापा से ‘सॉरी’ बोला। तब उन्होंने
मुझे एक रुपया दिया और कहा कि अब से रोज़, जब तक वे मौसी के साथ उस कमरे के अन्दर रहा
करें, मैं उसके दरवाज़े पर बैठा रहूं और ध्यान रखूं कि कोई अन्दर न जाए। कोई उस तरफ़
आए तो मैं सीटी बजा दूँ। मैंने कहा कि मुझे सीटी बजानी नहीं आती। उन्होंने मौसी से
पूछा कि क्या कोई और इशारा रखा जा सकता है। मौसी ने कहा कि मैं दरवाज़े को बजाऊँ।
इस तरह मैंने डेढ़ सौ
रुपए कमाए। तब तक माँ ठीक होने लगी थी और जब वह इस क़ाबिल हो गई कि घर का सारा काम
कर सके, तब उसने मौसी को वापस भिजवा दिया। थोड़ा बेइज़्ज़त करके। जितना मुझे समझ आया,
वो यह था कि माँ ने मौसी से कहा कि उसने उनके राम जैसे पति को जाल में फँसा लिया। पापा
उस दिन शायद जानबूझकर बाहर ही रहे। मौसी को बस स्टैंड तक छोड़ने वाला भी कोई नहीं
था। वह मुझे बाँहों में भरकर देर तक रोती रही और उसने मुझसे वादा लिया कि गर्मियों
में मैं उससे मिलने ज़रूर आऊँगा। फिर वह चल दी। अकेली, अपना बैग उठाकर और मैं अचानक
इतना उदास हुआ कि मैंने अपना बैट उठाकर उस कमरे की खिड़की तोड़ दी जिसके बाहर मैं एक
रुपया लेकर बैठता था। मैं मौसी को बस अड्डे तक छोड़ने गया। बैग की एक तनी मौसी ने
पकड़ी और एक मैंने। उसके होठ जैसे एक कोहरे में डूबे रहते थे। उसे देखकर लगता था कि
वह कभी झूठ नहीं बोल सकती।
घर लौटने पर माँ ने
मुझे चप्पलों से मारा।
माँ ने मौसी की लगाई
सारी तस्वीरें दीवारों से उतारीं और फिर घर को अपने मुताबिक सजाया। बैठक के दरवाज़े
पर उसने ‘वेलकम’ लिखा एक पोस्टर लगाया जिसमें एक औरत दोनों
हाथों से फूल बिखेर रही थीं। उसने पापा का फिर से ख़याल रखना शुरू किया और मैं
स्कूल से लौटता था तो दरवाज़े से ही अक्सर उन दोनों की हँसी सुनाई पड़ती थी। जैसे
हमारा पुनर्जन्म हुआ हो, पापा माँ के और मेरे लिए फिर से नए-नए कपड़े लाने लगे। वे
दोनों मुझे साथ लेकर बाज़ार घूमने जाते और हम सारे शहर के सामने ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ दिखते। मौसी कभी लौटकर नहीं आई। माँ ने मुझे
सिखाया कि बड़ों का आदर करना चाहिए और पापा के सामने उल्टा कभी नहीं बोलना चाहिए।
कुछ महीने बाद ‘वेलकम’ वाला पोस्टर उतारकर उन्होंने अपनी शादी की एक
फ़ोटो बैठक के दरवाज़े पर लगाई। उन्हीं दिनों मैंने एक किताब में पढ़ा कि बच्चों की
याददाश्त अस्थायी होती है और बड़े होने के बाद बचपन की ज़्यादातर बातें वे भूल जाते
हैं। यानी मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं था।
एक शाम मैं खेलकर
आया तो पापा नहीं थे। माँ रसोई में थी। वह ख़ुश थी। उसने मुझसे कहा- पापा कितने
अच्छे हैं ना? मैंने कहा- हाँ। मैं अन्दर के कमरे में गया। वहाँ एक कुर्सी संदूक
के पास रखकर उससे मैं संदूक पर चढ़ गया। संदूक पर चढ़कर मैंने ऊपर रोशनदान से एक
लिफाफा उतारा जिसमें एक पैकेट था जिस पर लिखा था- बच्चों की पहुँच से दूर रखें। वह
चूहे मारने की दवा थी। वह पैकेट मैंने जेब में रख लिया और उसी रास्ते से नीचे आ
गया। जब मैं बाहर आया तो पापा आँगन के बीचों बीच एक कुर्सी पर बैठे थे। वे शायद
अपने मैनेजर से डाँट खाकर आए थे। मुझे देखते ही बोले- पढ़ भी लिया कर कभी। चूहे की
तरह घूमता रहता है।
इस तरह वे अपनी मौत
के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार माने जाएँगे। वे अगर मुझे डाँटने के लिए ‘चूहे’ शब्द का इस्तेमाल न करते तो शायद मैं उनके दूध में चूहे मारने की दवा भी
न मिलाता। लेकिन जिस तरह चिड़ियों के खेत चुग जाने के बाद पछताने का कोई फ़ायदा नहीं
है, उसी तरह ज़हर के हलक से नीचे उतर जाने के बाद अपनी भाषा को कोमल बनाने का कोई
फ़ायदा नहीं है।
अगली सुबह एक आम
सुबह थी जिसमें पापा का पोस्टमॉर्टम और मातम जुड़ गया था। डॉक्टरों ने उस ज़हर का तो
पता लगा लिया जिससे उनकी जान गई थी लेकिन यह पता लगाने के लिए कि जहर किसने दिया, हम
सबको एक बाबा के पास जाना पड़ा। बाबा किसी बच्चे के अंगूठे के नाखून में घटना का
पूरा वीडियो दिखा देता था।
बाबा पहले अपनी
मुट्ठी में रेत लेता था। फिर उसे अपने मुँह के पास ले जाकर कोई मंत्र बुदबुदाता था
और फिर इशारे से कहता था कि किसी बच्चे को उसके सामने लाकर बिठाया जाए। माँ लगातार
रो रही थीं। इशारा उन्हें तो समझ नहीं आया लेकिन मेरे चाचा ने मुझे गोद में उठाया
और बाबा के सामने बिठा दिया। मेरे ऊपर बाबा ने रेत फेंकी। फिर मेरी आँखों पर अपना
हाथ रखकर कोई मंत्र पढ़ा। फिर मेरी हथेली को आगे किया और पूछा कि मुझे अपने अंगूठे
के नाखून में क्या दिख रहा है।
मैंने बताया कि मुझे
अँधेरा दिख रहा है। हाँ, अब रोशनी हुई। कौनसी जगह है ये? कैमरा इस स्टील के डिब्बे
पर ही फोकस क्यों है? अरे हाँ, ये तो गुड़ वाला डिब्बा है और यह हमारी रसोई है। फिर
कुछ रुककर मैं लगातार अपने नाखून को देखता रहा। फिर मैंने आँखें बन्द कर लीं। सब मेरी
तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे मैं जिस क्षण बोलूंगा, उसी क्षण कातिल के गले में फाँसी
का फन्दा डल जाएगा।
मैंने कहा कि जो मैंने
देखा है, वह नहीं बता सकता। फिर जब सबने बार बार पूछा। माँ ने मेरे पैरों में
गिरकर, चाचा ने गाल सहलाकर। तब मैंने बताया कि डिब्बे से गुड़ निकालने के बाद माँ
ने डिब्बे के नीचे अलमारी में लगे अखबार के नीचे से एक छोटी सी पुड़िया निकाली।
पुड़िया हरे रंग की थी और उस पर लिखा था कि बच्चों की पहुँच से दूर रखें। फिर माँ
ने पुड़िया खोली और स्लैब पर रखे दूध के गिलास में खाली कर दी। फिर दूध और गुड़ की
डली लिए बहुत धीरे धीरे माँ रसोई से बाहर आई। वहाँ, जहाँ कुर्सी पर पापा बैठे थे।
उन्होंने जूते उतार दिए थे लेकिन मोजे नहीं।
इसके बाद मैं चुप हो
गया। माँ ने बाबा की गर्दन पकड़ ली। बाबा के चेलों ने माँ को मारते हुए बाबा को
छुड़वाया। सब लौट आए।
नाखून का वीडियो तो
अदालत में सबूत की तरह नहीं इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन मैंने कुछ दिन बाद
पहले पुलिस के सामने और फिर अदालत में बयान दिया कि मैंने असल में अपनी माँ को पापा
के दूध में उस पुड़िया से निकला पाउडर मिलाते देखा था।
जज साहब ने पूछा-
तुम्हारे मम्मी पापा लड़ते भी थे?
मैंने कहा- ज़्यादा
नहीं। लेकिन अंकल, उस पुड़िया में क्या था?
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