खामखां एक चिट्ठी
जेब में महीनों दुनिया के नाम
दुनिया का पता सबसे
छोटा, सबसे बेकार
क्योंकि हर कोई ले
सकता उसके ख़त को लेकिन लेता कोई नहीं
जिससे सब प्यार करते
उससे कोई नहीं पूछता
कि क्या खाया
जिसके पाँच पति,
उसका एक भी नहीं पूरा
खामखां एक चिट्ठी
जेब में महीनों
धुलती रोज़ाना
अपने अक्षरों को
खाती
जैसे हमें हर रोज़
थोड़ा और मिट्टी में मिलाती दुनिया
जो बुरादा हमारी
आँखों से टपकता
उसमें लोहा बहुत
जिसे ऐसा कहा जा
सकता आसानी से
कि मैंने हर रेलगाड़ी
बनाई है
फिर भी बेटिकट होता
तो ख़ुदकुशी के ख़याल आते दिल में
ऐसी भी क्या शर्म,
ऐसा कौनसा सोने का चेहरा
कैसा चक्कर कि इतनी
चीजें गिरी राह में
इतनी बार भूला
चप्पलें
कि जितना आगे जाता,
उतना पीछे लौटता
जबकि ज़रूरी कुछ भी
नहीं
एक सपना बार-बार
दिखता
जिसमें मैं एक रसोई
के आगे खड़ा रोटी गिनता
अन्दर थाली में रखी
हुई,
लाल मिर्च पर रखी
आँख
कहाँ से लाऊँ मीठी
बात?
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