जैसे किसी अच्छी बात के बीच
दुनिया आए सारी
लाइटें बुझाते हुए आए कोई चौकीदार बूढ़ा
उसके पीछे डर
मैं चेहरा छुपा के रख आऊँ कि आया नहीं था मैं कभी
कि मैं जिस बात के बीच में अटका सौ बार
वो यहाँ, इसी मेज पर रखी रही कल तक
और अब मेरे सिर में है, बनाती पागल
कि सवाल पैदा होते हैं, रोशनी आप चाय में डुबोकर खाते सारी
हम बारी बारी से इत्मीनान रखते हैं
जबकि मैं मारने दौड़ता तुम्हें किसी खेत में
रौंदता घास या आसमान उसके बदले, कौन जाने