पतंग

पागल हवा, जा बाहर देखकर तो आ कि कहीं मेरे पति तो नहीं आ रहे। मैं खुद देख आती मगर मैं अपने पहलू में सोए अपने प्रेमी को जगाना नहीं चाहती।

एक पहाड़ी लोकगीत की पंक्तियां, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह इतना अशुभ है कि इसे गाने वाली औरत अगली सुबह मृत मिलती है।


(चित्र- Fleck)     

वे चुपचाप लेटे रहते। सुबह जाग जाने के बाद भी एक डेढ़ घंटे तक ऐसा ही लगता कि सो रहे हैं. मेरी नज़र अक्सर बहुत देर बाद उन पर पड़ती।
- आप कब जगे?
मैं हमेशा यही पूछता। यही हमारी गुडमॉर्निंग थी।
- बस अभी...
उनका हमेशा यही उत्तर होता। मेरे जान लेने के बाद कि वे सो नहीं रहे हैं, वे चाहकर भी ज्यादा देर तक बिस्तर पर लेटे न रह पाते. मुझे यह अपराधबोध दिन भर सालता रहता कि मैं उनके घर के साथ साथ उनकी नींद में भी  घुस आया हूं। फिर भी अगले दिन जब मैं उन्हें गुमसुम लेटे छत को ताकते हुए देखता तो पूछे बिना न रह पाता।

मैं सुबह जल्दी नहा धोकर इस तरह घर से निकल जाता था, जैसे किसी दफ्तर में नौकरी करता हूँ। वे कभी कुछ कड़वा नहीं कहते थे और उनके हावभाव में भी हमेशा मेरे प्रति एक स्निग्धता सी ही रहती थी, फिर भी मुझे ज्यादा देर उनके सामने बने रहना असहज सा लगता था। मैं चाहता था कि वे रात में जल्दी सो जाएँ और सुबह देर से जगें। शायद वे यह समझते थे, इसीलिए बिस्तर से जल्दी नहीं उठते थे। उनके उठने के आधे पौन घंटे के भीतर मैं हमेशा निकल जाता था। वे सात बजे उठते तो पौने आठ तक और वे ग्यारह बजे उठते तो पौने बारह तक। मुझे उनका सामना करना कठिन लगता था। शायद उन्हें भी मेरा सामना करना मुश्किल लगता हो। मैं दिनभर यहाँ वहाँ भटकता रहता था और अँधेरा हो जाने से पहले कभी घर नहीं पहुँचता था। कभी कभी ग्यारह-बारह भी बज जाते। वे मेरे लिए खाना बनाकर रखते थे और अगर किसी दिन मेरे लौटने से पहले सो जाते तो रसोई के दरवाजे पर एक बड़ी सी चिट चिपका देते।
दाल गरम कर लेना। फ्रिज में खीर रखी है। आदि आदि...

 उस खीर के चावल के हर दाने को निगलते हुए मुझे शर्मिंदगी सी होती थी। मुझे लगता था कि मैं नंगा हो रहा हूँ। मैं हर रात सोने से पहले सोचता था कि कल रहने के लिए कोई और ठिकाना ढूँढ़ लूँगा, लेकिन हर शाम फिर वहीं लौट आता था। मेरे लौटने के समय वे जाग भी रहे होते, तब भी हमारे बीच ज्यादा बातें नहीं होती थीं। वे अक्सर कोई किताब पढ़ रहे होते। जब तक मैं हाथ-पैर धोकर आता, वे खाना गर्म करके मेज पर लगा चुके होते। उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि रात का खाना हम दोनों साथ ही खाएँ। खाना खाते हुए मैं पूरे समय थाली में ही नजरें गड़ाए रखता था। वे अपनी किताब पढ़ते रहते। मुझे अक्सर बहुत देर में नींद आती थी। वे यह कहकर सोने के लिए लेटते थे कि मैं जब तक जगूँ, लाइट जलाकर रख सकता हूँ। यह बात वे कई बार दोहरा चुके थे कि उन्हें रोशनी में भी अच्छी नींद आ जाती है। फिर भी मैं उनके सोने के कुछ देर बाद लाइट बुझा देता था और लेट जाता था। अगर बहुत बेचैनी होती तो बाहर बालकनी में कुर्सी पर बैठा रहता। मुझे उनके डबलबेड पर सोना अटपटा सा लगता था। कभी कभी आधी रात के बाद मेरी आँखें अचानक खुल जातीं और मेरा मन करता कि मैं अभी अपना बैग उठाकर, भागकर किसी और शहर में चला जाऊँ, या उसी शहर के किसी और कोने में। मगर उस शहर के किसी कोने में इतनी जगह और सहृदयता नहीं थी कि मुझे मुफ्त में पनाह मिल सकती। यदि मृत्यु के बाद इतना लंबा अज्ञात न फैला होता तो मैं शायद मर ही जाता।

मैं अक्सर औंधा लेटकर सोता था और जब सोते हुए अनजाने में उनका हाथ मेरी पीठ पर रखा जाता तो मेरी आँखें तुरंत खुल जाती। मैं हिलता भी नहीं क्योंकि मैं किसी भी तरह अपनी असहजता जताना नहीं चाहता था। इस तरह पास लेटे व्यक्ति की पीठ पर हाथ रख लेने में कुछ भी असामान्य नहीं था लेकिन मैं फिर से उनके करवट बदलने और हाथ के हट जाने का इंतज़ार करता रहता और उसके भी बहुत देर बाद मुझे फिर से नींद आती थी।

घर में दो और कमरे भी थे। मैंने कई बार चाहा कि उनसे कह दूँ कि मैं अलग कमरे में सोना चाहता हूँ। मैं कहता तो वे तुरंत सहमत भी हो जाते और उसी समय किताबों वाले कमरे के पलंग पर नई चादर बिछा देते। मगर उस स्थिति में रात भर एक पंखा और चलता और मैं उन पर तिनका भर बोझ भी नहीं बढ़ाना चाहता था। कभी कभी, जब शाम में बारिश होती और मैं देर रात में लौटता तो वे खाना खाते हुए कहते थे कि जब बारिश हो रही थी, तब वे बहुत उदास हो उठे थे। वे किसी के साथ बैठकर चाय पीना चाहते थे, लेकिन कोई भी नहीं था। फिर वे हँसकर कहते कि उन्हें मेरी बहुत याद आई। मैं चुपचाप अपने कौर तोड़ता और निगलता रहता था। उनका एक भी दोस्त नहीं था। कभी कभी वे बहुत देर तक अपने मोबाइल फोन के बटन तो दबाते रहते थे। स्नेक्स तो नहीं खेलते होंगे। तब क्या वे किसी को मैसेज लिखते हैं? क्या यह संभव है कि वह अब भी उनसे बात करती है?

कभी-कभार उनके कॉलेज के किसी साथी प्रोफेसर का ही फोन आता था और तब भी बस काम की बातें ही हुई करती थीं। उनकी दुनिया में बाकी कोई नहीं था।

उस शहर में इतनी उदासी थी कि बारिश को सोचते हुए मुझे अनाथ बच्चों की आँखें याद आती हैं। मैं बारिश के समय अक्सर बाहर होता था और देखता था कि बस स्टॉप के शेड के नीचे आने के लिए पैदल चलते लोग अचानक भागने लगे हैं और मोटरसाइकिलों वाले लोग रुकने लगे हैं। मैं सच्चे दिल से चाहता था कि बरसात कभी न आए क्योंकि जब भी बरसात होती थी, मुझे अपना बेघर और बेकार होना पूरी नग्नता के साथ हर क्षण लगातार दिखने लगता था।

सन्ध्या एक न्यूज चैनल पर खबरें सुनाती थी और मुझसे प्यार करती थी। उसे मेरी फिक्र रहती थी और उसके लिए खबरें लिखने वाला पंजाबी लड़का यह आसानी से जान जाता था, जब वह उन क्षणों में रुकती थी, जहाँ उसके सामने लिखी पंक्ति में दूर-दूर तक अल्पविराम नहीं होता था। राजनैतिक उठापटक के समाचार बोलते हुए भी उसकी आँखों में एक बेचैन सी मासूमियत आ जाती थी। जींद के पास के किसी गाँव में प्रेमी युगल को मारकर पेड़ पर लटका देने वाली खबर पढ़ने के बाद जो टीएमटी सरिया ब्रेक आया था, उसमें वह रोने लगी थी। दो-तीन मिनट के ब्रेक में जहाँ बाकी एंकर अपने बाल ठीक करती थीं और तेजी से अपने लेपटॉप पर पेज पलट-पलटकर देखती थीं, वह मुझे एसएमएस लिखती थी। जब किसी महत्वपूर्ण लाइव बहस के दौरान देर तक ब्रेक नहीं आता था, तब वह व्याकुल हो उठती थी और बहुत तीखे सवाल पूछने लगती थी। ऐसे ही एक साक्षात्कार के पैंतीसवें मिनट में उसने एक दाढ़ी वाले अहंकारी मुख्यमंत्री से कह दिया था कि अपने राज्य में हुए मुस्लिमों के नरसंहार के लिए पूरी तरह वे ही ज़िम्मेदार हैं। फिर मुख्यमंत्री ने मुस्कुराकर पानी माँगा था और फिर उठकर चले गए थे। फिर लालकिला बासमती चावल की ओर से प्रायोजित ब्रेक आया था और शाम को चैनल हैड ने उसे फोन कर कहा था कि वे उसकी स्पष्टवादिता की तहेदिल से प्रशंसा करते हैं और उसके गौरवशाली भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं, लेकिन फिलहाल चैनल की कुछ अंदरूनी समस्याओं की वज़ह से उसे छुट्टी पर भेजना चाहते हैं। वे छुट्टियाँ बहुत लम्बी खिंची और आख़िर में उसे कह दिया गया कि वह चाहे तो कहीं और काम ढूँढ़ सकती है। यह उन दिनों से कुछ पहले की बात है, जब भारत के सभी समाचार चैनल एक लड़की पर उसके पिता द्वारा किए गए बलात्कार की कहानी के मुख्य अंश दिखा रहे थे और बैकग्राउंड में राजेश खन्ना की किसी फिल्म का उदास संगीत बजता था। पिता के चेहरे पर लाल वृत्त लगाकर एक तीर का निशान लगाया जाता था, जिसके दूसरे सिरे पर वहशी पिता या हैवान बाप लिखा होता था। गृहणियाँ पारिवारिक धारावाहिकों से और अधेड़ पुरुष नेताओं से ऊब चुके थे और यह आँखें गड़ाकर देखते थे, चिंताएँ जताते थे। फिर बाद के दिनों में, जब दिल्ली में हर हफ्ते होते विस्फोटों से ज़्यादा सनसनी पैदा करती उनकी भयानक ख़बरें देशवासियों को डरा रही थीं, तब उन चैनल हैड पर आरोप लगा कि वे दाऊद इब्राहिम और एक हिंदूवादी संगठन से एक साथ पैसे खाते रहे थे।
मेरे लिए सन्ध्या की कहानी पूरे देश की कहानी थी।

उन लम्बी छुट्टियों की एक शाम में, जब हम इंडिया गेट के सामने की घास पर अपनी निराशाओं के साथ बैठे थे, उसने मुझसे कहा कि वह आज शाम अपने कमरे पर नहीं जाएगी क्योंकि वह सुबह तक मेरे साथ ही रहना चाहती है। एक मेंहदी लगाने वाली लड़के ज़िद करके उसके बाएँ हाथ पर मेंहदी लगाने लगी थी। उसका दाहिना हाथ मेरे हाथ में था और वह मुस्कुरा रही थी। क्या आप जानते हैं कि कुछ महीने पहले एक शाम जब निढाल सा होकर बिस्तर पर पड़ जाने की चाह में मैं सीधा ही घर में घुस गया था तो मैंने क्या देखा था?

वह लड़की सन्ध्या पीएचडी कर रही थी। वे उसके गाइड थे। वे, जो मेरी बहन के पति थे और जिनके घर में मैं मजबूरी में रह रहा था, वे जो उदास रहते थे और खाने के समय मेरी प्रतीक्षा करते रहते थे, वे उसी डबलबेड पर उस लड़की के साथ लेटे थे, जिस पर मैं उनके साथ सोता था। मैं इस समय उस जापानी पीली छतरी के बारे में बात करना चाह रहा हूँ, जिस पर लाल रंग के फूल कढ़े थे और जिसे ट्रेन में एक औरत बेच रही थी। टिकट के पैसों के अलावा मेरी जेब में कुल सत्तर रुपए थे और वह एक सौ बीस से नीचे आने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। मैं कुछ भी करके उसे खरीद लेना चाहता था, लेकिन खरीद न सका। मैं अपनी गरीबी की बात नहीं कर रहा। वह तो मैं ट्रेन में था, नहीं तो ऐसा भी हुआ है कि दस हज़ार रुपए हफ्तों तक मेरी जेब में पड़े रहे हों और मुझे खर्च करने को ज़गह न मिली हो। उसके बाद वैसी छतरी मुझे किसी दुकान, बस या रेलगाड़ी में बिकती हुई नहीं दिखी। उस छतरी को न पाने का जो खालीपन है - पीले रंग का, जिस पर लाल फूलों के रंग की उदासी है जो कभी-कभी विक्षिप्तता हो जाती है और मैं नहीं जानता कि यह आपको कैसे समझाऊँ - वह इतना गहरा है कि जब मैं जीजाजी से चिपटकर लेटी हुई सन्ध्या के बारे में आपको बताना चाहता हूँ तो मुझे वह निर्जीव छतरी याद आती है। इसके अलावा मैं कोई भी बात आपको ठीक से नहीं बता पाऊँगा। मैं बोलने लगूँगा तो बोझिल रूप से हकलाने लगूँगा या अपनी स्मृतियों में खो जाऊँगा, जो कि मुझे कभी-कभी लगता है कि मैंने अपनी कल्पनाशक्ति से ही रच ली हैं। अब मैं नहीं बता सकता कि क्या वे ठीक उसी मुद्रा में आलिंगनबद्ध थे जैसा मुझे अब याद है या जब मैं पहुँचा, वे अपनी शेल्फ़ में से मुग़ल इतिहास की कोई किताब निकालकर उसे दे रहे थे और मैंने सोच लिया था कि कुछ देर पहले वे उस मुद्रा में रहे होंगे। जब वे दीदी को ब्याहकर ले जा रहे थे और दुर्भाग्य से मैं भी उसी कार में ड्राईवर के साथ वाली सीट पर बैठा था, उन्होंने दीदी की गर्दन के पीछे से एक हाथ ले जाते हुए उनके कन्धे पर रख लिया था। यह मैंने शीशे में नहीं देखा और न ही पलटकर, लेकिन मैं जानता हूँ। वे फुसफुसाकर आपस में बातें कर रहे थे। मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह साल रही होगी, लेकिन वे मुझे बिल्कुल बच्चा ही समझ रहे थे। मुझे सब कुछ सुनाई दे रहा था और बुरा यह था कि सब कुछ समझ में भी आ रहा था। मैं जब भी शादियाँ देखता हूँ तो मुझे वे कुछ वाक्य ही याद आते हैं। यह ऐसा था, जैसे आपने अपनी बहन को संभोग करते हुए देख लिया हो।

बाकी कहानी किताब 'ग्यारहवीं-A के लड़के' में