शर्म की तरह आती हुई
नींद
तुम सोते हुए कहती हुई
कि इधर ना देखना
तुम माँगती हुई सपना
मैं तकिया खरीदकर
देता हुआ
रोटी साथ बाँधता हुआ
सामान गिनता हुआ बार-बार,
घड़ी देखते हुए तुम्हें
देखने से बचता हुआ
तुम्हें छोड़ता हुआ दरवाज़े
के पीछे
किसी बच्चे को
बोर्डिंग में छोड़ने की तरह
समझाता हुआ कि
ज़िन्दगी क्रूर है, इसलिए मैं भी
फिर हँसता हुआ फ़ोन
पर और चूमता जैसे फाँसी चढ़ता हूँ
दवा पूछने की तरह
पूछता हुआ रास्ते
और भूलता हुआ कि
कहाँ से आया था और क्यों
किसने बनाई थी सड़क
और कौन अपनी टिकिट
मुझे देकर लौटा था उसी गाँव
जहाँ एक बस आती थी
और ज़ीरो उम्मीद
फीते बाँधते हुए मैं
चेहरा आसमान की ओर उठाता हुआ
सिर में रोककर रखता हुआ
आँखें और पानी
दुनिया बचाने का
अहसान करने की तरह
शुरू शुरू के सब कुछ
को ख़त्म होने से बचाता हुआ बार-बार
लिखते हुए बच्चा
रोते हुए बेदखल
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