वे परम्पराओं वाले लोग थे
हमारे घर को हमारे बाद जलाया गया
चाँद को उस दिन थोड़ा सलीके से बुझाया गया
बर्फ़ सुन्दर नहीं थी लेकिन उसे अदा से गिराया गया
ऐसे में हमारी बेहतरी इसी में थी कि उन्हें मानते अपना शहर, अपना ख़ुदा
लेकिन शहर को बचानी थी अपनी तेजी, ख़ुदा को जाने क्या
और हमें अपना इकलौता सिर बचाना था
कपड़े बचाने थे बाद में और हम कहते थे कि किताबें भी बचाएँगे
लेकिन फेंक देते थे,
किसी पुराने शब्द की तरह
हम रात भर परेशान रहते थे
कि कहीं तो जाएँ, किसी की नींद में जाकर गिरें
किसी को खोल दें आँखें खोलने की तरह
फ़्लैश की तरह याद आएँ किसी को
कोई हमें पहचान कर रो पड़े
कि क्या शक्ल बना ली है, चेहरा धो लो, कुछ खाओगे ना?
फिर आओगे ना?
तब हमें कोई मनाता
तो हम उसकी छाती में धँस जाते
कहाँ सोए, कहाँ जागे, कहाँ-कहाँ से भागे
कौन भूला, किस किसने घूरा, बार-बार बताते
जबकि सही कहा आपने
कि दोहराव एक चिकना शब्द है
जिस पर फिसलकर गिरने से बेहतर है कि छाती से बाहर आया जाए
कोई पूछे कि क्या मिज़ाज हैं तो उसे कोई महल दिखाया जाए
पर हम थे कि कसूर था
लड़कपन हम पर दौरे की तरह छाता था
ऐसा था नहीं पर लगता था कि
पिछले बरस हमें सुन्दर रोना आता था
अपने क़रीब आने के रूमानी ख़याल में हम
किसी बरसाती शादी में इंतज़ाम की तरह खराब हो रहे थे
चाँद हो रहा था तेरा चेहरा और हम जितना पढ़ते थे
उतने किताब हो रहे थे
हमारे घर को हमारे बाद जलाया गया
चाँद को उस दिन थोड़ा सलीके से बुझाया गया
बर्फ़ सुन्दर नहीं थी लेकिन उसे अदा से गिराया गया
ऐसे में हमारी बेहतरी इसी में थी कि उन्हें मानते अपना शहर, अपना ख़ुदा
लेकिन शहर को बचानी थी अपनी तेजी, ख़ुदा को जाने क्या
और हमें अपना इकलौता सिर बचाना था
कपड़े बचाने थे बाद में और हम कहते थे कि किताबें भी बचाएँगे
लेकिन फेंक देते थे,
किसी पुराने शब्द की तरह
हम रात भर परेशान रहते थे
कि कहीं तो जाएँ, किसी की नींद में जाकर गिरें
किसी को खोल दें आँखें खोलने की तरह
फ़्लैश की तरह याद आएँ किसी को
कोई हमें पहचान कर रो पड़े
कि क्या शक्ल बना ली है, चेहरा धो लो, कुछ खाओगे ना?
फिर आओगे ना?
तब हमें कोई मनाता
तो हम उसकी छाती में धँस जाते
कहाँ सोए, कहाँ जागे, कहाँ-कहाँ से भागे
कौन भूला, किस किसने घूरा, बार-बार बताते
जबकि सही कहा आपने
कि दोहराव एक चिकना शब्द है
जिस पर फिसलकर गिरने से बेहतर है कि छाती से बाहर आया जाए
कोई पूछे कि क्या मिज़ाज हैं तो उसे कोई महल दिखाया जाए
पर हम थे कि कसूर था
लड़कपन हम पर दौरे की तरह छाता था
ऐसा था नहीं पर लगता था कि
पिछले बरस हमें सुन्दर रोना आता था
अपने क़रीब आने के रूमानी ख़याल में हम
किसी बरसाती शादी में इंतज़ाम की तरह खराब हो रहे थे
चाँद हो रहा था तेरा चेहरा और हम जितना पढ़ते थे
उतने किताब हो रहे थे
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पाठक का कहना है :
वे लोग जो
कभी भी नही हो सके
जुगनू
जिन्हे रात तो भरपुर मिली पर
उनका सूरज
किसी और के घर का सुबह था
कडकडाते सुबह में
उसकी आंखे झांकती थी
ईंट की दीवार से
पत्थराई अक्षरो को
शहर हुये जा रहे शक्लो में
भगवान पुजती
ताकि लाज़ भींगी रहे
अकसर भागती जंगलो में
चौंधियाये आंखो के बेपनाह अंधेरे रास्तो में
एक मुठ्ठी आग से जला देना चाहती
सघन जंगल को
जहाँ खोती थी सुनहरापन
जिंदगी की
शब्द जो गुंथे थे वीणा के तारो में
मन रागमालकौंस सी मद्धम हो
जागते राग पर डुबकी लगाता
समंदर की गहराईयो में
चाँदनी फैलती लहरो पर और
रात टिमटिमाती आंखो से
फिक्र थी कि मुँह फुलाये
बैठी रही चौखटे पर
पर कविता कुतुबमिन्नार सी
भाव में जिंदा स्पर्श टटोलती रही
जो जिंदगी से ऊँचा रहा
शब्दो के मोर
महल के चौबारे में
सावन से भींगने के आरमान लिये
सतरंगी पंख खोलते रहे
मरुस्थल के
पूरे चाँद में ही
कैक्टसो से घायल होती रही चाँदनी
इसतरह चाँद उगता रहा और
सूरज डुबता !!
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