किसी इतवार का गाना

आपने अपनी बैठक में जो रस्सियाँ बाँधी थीं हमारे तमाशे के लिए
हम तभी से सर, उन पर झूल रहे हैं
और आपको ऐसा लगता है कि भूल रहे हैं

हम अपने यक़ीन, अपनी आग का
इश्क़ जैसा कोई ख़ूबसूरत नाम रखना चाहते हैं
भूख लगने पर उसे चखना चाहते हैं
लेकिन आप देखते तक नहीं हमें और चिल्लाने में मशगूल हैं
रोटियाँ नहीं हैं माना, पर क्यों इतने स्कूल हैं?

और स्कूल से वे जो बच्चे लौट रहे हैं
आप उनसे झूमकर गले मिलेंगे, हमारे बारे में बताएँगे
वे बच्चे हैं सर! वे गिर पड़ेंगे
उनके कलेजे भर भर आएँगे

पर आखिर में सब ठीक होगा, जैसे सब ठीक हो जाना चाहिए
किसी इतवार वे कहेंगे कि उन्हें कविता नहीं, गाना चाहिए
हम नहीं दावा करते कि अच्छा गाएँगे लेकिन ये ज़रूर है कि
गले को चाकुओं से काटकर आपके सामने सजाते जाएँगे
फिर भी ज़रूरी नहीं कि आप और वे ग़मगीन हों
बल्कि दुआ करेंगे कि आपके यहां बहुत चाय हो, बिस्कुट नमकीन हों
आप चाहे हमें चींटियों की तरह भूल जाएँ
आपके बच्चे किसी जन्नत जैसे स्कूल जाएँ
बस हमें या तो आसमान दें या अँधेरी कोठरी,
ये सुन्दर कमरा और इसमें चार जालियाँ न दें
बस इतना कीजिए कि जब हम खाने को कुछ माँगें
तो थालियाँ दें, न दें पर तालियाँ न दें



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3 पाठकों का कहना है :

KUTUMB said...

आपकी इन लाइनों को कभी नहीं भूलना चाहूँगा मैं ...कभी भी नहीं !
- बोधिसत्व विवेक

संध्या आर्य said...

ईमान के गले लग
आँचल का छाँव दिया मन को
और झेलते रहे पैताने बैठ के
आँखो ने दुनिया देखी तबसे

धरती के सीने में
कई जगह चिंगारियाँ दबती रही
नियति उसकी वह
सभी उगले चीजो को
दफन करती रही सीने में
और उसमे कुछ भूखे भी थे
जिन्हे वह खा चुकी थी

सुंदर घासो में सुरमई उम्मीद छुपी रही
जिसे आप सौंदर्य देने की चाहत लिये
फिरते रहे
वह सोनपरी का पंख था
जिसे सियासी छडी ही उडाता
यही कारण था कि
स्कूलो में भूख भी लुटती रही
पिघलती रही अक्षरे
भूख के तमाशे सरेआम चलते रहे

यकीन मानो जबकभी
कोई कलेजे से निकली राग को
महफिल में छेडेगा
अंर्तनाद की चित्कार से
पत्थरो पर खुदी लकीरो मे से भी खुन
रिस जायेगा

आप चाहे बंजारो सा आशीर्वाद दे
या रस्सियो पर तमाशे दिखाये
पर इन भूखो के घर में
रोज दीवाली और ईद
इनकी आंखे ताजमहल की तरफ
वे गलते जिस्म में
फटते कलेजे को और
खाक होते
मासूम रुह में
चादर से ढकी जलती पृथ्वी को
देखेंगे तक नही

उम्र एक कैदखाना रस्मे चारदीवारी
इक इक सांस कैद वादो पर
आवाज देना चिल्लाना
समझना प्यार और रोना दिल से
वह मांगता रहा एक मुठ्ठी गुलाल
जिसमे रंग जाये पूरी कायनात

इतना सुंदर गाता कि
वह किसी मजार के
पीर की दुआ सा लगता
उसका हर राग घण्टो चलता
जैसे सुर के साथ संगीत
उन्मुक्त गगन से लग उडता मनपंक्षी
अभिशप्त !!

संध्या आर्य said...

कलेजे को भी काट के रख दे गर
तो भी वे खुश न होंगे
ना ही होठो को फैलायेगे
एक नजर जरुर ताड लेंगे
पेशानी के सलवटो और
नजरो से
जरुर ही कुछ कह जायेंगे

ईद के दिन माज़ार के बाहर
बच्चो की हुजूम थी
वे आपके तमाशे में शामिल थे
पर तालियाँ फट गयी थी उनकी
नाखून भींगे मिले अश्को से
उनकी खुशी एक गम थी
क्योकि वे आपके भूखे पेट से तडप रहे थे

उन्हे हुजूम लगाने की आदत तो रही
पर खेलते रहे वे रुपया और पैसा
नही बाँटी तो ईदी
लुटते रहे भूख उन बच्चो की
जिन्हे आप खुश करना चाहते है

आपके फूल जैसे शब्द
चोट कर रहे है पत्थर सा
तोडना चाहते है वो पहाड
जो बच्चो और रोटी के बीच में आ गया है
रंग देना चाहते है
धरती और आसमान के बीच के
हिस्से को
जो अंधकारमय है

गरीबी एक गाली है आज
परिस्थितियो के गोरखधंधे में !!