महान होने से ठीक पहले एक नदी थी

महान होने से ठीक पहले एक नदी थी
जिसमें हम धो रहे थे अपना हँसना
रोटियाँ बहुत थीं, दाँत कम थे जैसे जश्न बहुत था, फ़ुर्सत कम
रस्में इतनी थीं हमारे होठों के बीच में कि हम
कविता की तरह
सिर पर लगाने की कोई ग़ैरज़रूरी चीज हो गए थे
इतने मज़बूर दोनों कि उसके पास मुझसे बाँटने को थी अघा जाने की याद
मैं उसे बताता था कि कितनी और तरह से भूखा रहा जा सकता है

इसके बाद जो बात मैंने उससे कही
वह किसी और की बात थी, कहीं और कही गई किसी और दुख में
जिसे मैं ज़िन्दा बचने के अकेले रास्ते की तरह उससे कह रहा था
भूल रहा था उतना ही
लोग इतने थे कि अपने पिता को पहचानना हुआ जाता था मुश्किल
मैं जिसके हाथ के भरोसे सोता था हर दोपहर
सर उठाकर देता था तुम्हें गालियाँ
वह किसी नाटक का किरदार था, जिसे इंटरवल से पहले मरना था
इस तरह सुखांत की मज़बूरियों के बीच
क्लाइमैक्स में उसने जो हाथ मेरे माथे पर रखा
वह उसका हाथ होते हुए भी किसी डॉक्टर, किसी बूढ़ी औरत का हाथ था
जिसकी उंगलियाँ जीवन की तरह चमकती थीं

फिर भी हम दोनों एक आख़िरी तरह से खाली थे

मैं इस खेल को हारते हुए
भारी बनाते हुए अपनी आवाज़ को
ज़िन्दा लोगों की तरह गिड़गिड़ाया भरसक
जबकि मुझे याद था कि इस तरह मैं उन बच्चों की भी तौहीन कर रहा था
जिन्हें मेरे बाद पैदा होना था और पूछना था
कि हम समेटकर अपने तमाशे
क्यों नहीं ख़त्म कर सके दुनिया समय रहते?
नहीं की तो क्यों बुलाया उन बच्चों को यहाँ
जैसे मेला होगा, मिलेगी ईदी और पिचकारियाँ

हाँ, जो ज़मीन मुझे दी गई थी
मैं नहीं बो सका उसे ठीक
जो लोग मेरे सामने थे,
मैंने आख़िर तक नहीं पूछी उनकी ख़ैरियत
प्यार लुटाने को आतुर भली लड़कियों से जैसे,
वैसे बहुत क़रीबी शब्दों से मैं हमेशा बचा कविता में

फिर भी जो अंत आया, वह आम था
मरने के अलावा मरने का कोई और तरीका नहीं है



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5 पाठकों का कहना है :

vinodbissa said...

अच्छे भाव हैं शानदार रचना ॰॰॰॰॰ शुभकामनायें

अफ़लातून said...

बढ़िया.

मनोज पटेल said...

बहुत बढ़िया, हमेशा की तरह...

Anonymous said...

vaah

संध्या आर्य said...

गले तक उगे
कांटो की चुभन मे
जख्मी उमस खाये बादल
हिमखण्ड से पिघलने जो लगे थे
धारा बन गये
हिमालय से लग

खा लिये जाने वाली
सभी आदते आसान थी
पर मुश्किल पत्थर दिल ही रही
जख्मो के पैर छिलते रहे
प्यास बुंदो में उडती रही
कण्ठ गहरा और बहरा गया
तपती राग-रागनियो से
इतना खोदा था उसने
ईमान को अकेले में
कि
छालो सी रिसने लगी थी
भूख की जमीन को
कई बार पढा था पेट से

जिम्मेदारियो के तंग गलियो से
कोठेवाली की घुंघुर सी
खनकने लगे थे दर्द
महफिल में
और भूख मे खाती रही थी शब्द
एक के बाद एक

दर्द के पहलू में एकमात्र वह
एक ऐसा पगडंडी था
जिसपर चलकर वह बेवा रातो मे
सुहाग की सावित्री सी
सन्नाटे के यमराज से
अक्षरो में प्राण मांगती थी

प्राण की धारणा
खाली हो जाने का मार्ग पर
आखरी की पहचान
एकाकार है
पुर्वजो के बनाये सिंग
बहुत लम्बे थे
जबतक दुनिया समझ आती
तबतक धंस गई थी
दुनिया हमारी
इनकी लम्बाई में

तमाशाबिन जो ठहरा वो
हमें तो सिर्फ खिलौने मिलने थे
उसकी बनाई जमीन पर
चलाता गया
और नाचते रहे
उसके बंधे डोर से

जमीनी स्तर पर
भूख में हरक्षण
मृत्यु
पर आत्मिक भाव में
जन्मो बाद !!