एक गाना लगातार बज रहा था


हमारी कोई छत थी तो वे रेलगाड़ी की तरह उस पर से गुजरते थे। मैं बचकर जैसे-तैसे एक छोटे सपने में ज़िन्दा था। सपना भी कुछ यूँ कि उसे भुलाना बहुत आसान था और इसीलिए मेरे ज़िन्दा रहने को भी। वह आग का सपना नहीं था जिसे देखते हुए आप जलें, न पानी का, जिसे देखते हुए डूबें। वह आदमी का सपना था जो हर नई मिनट में और अकेला होता जाता था। मैं उस सपने के बीच में दौड़ने लगा और आख़िर तक दौड़ता रहा जबकि दौड़ना बदतमीज़ी मानी जाती थी। ट्रेन छूट रही होती थी, तब भी लोग अनुमति लेकर दौड़ते थे।
सफ़र मेरी ज़िन्दगी में बिना पढ़े आए। इस बात का वैसा कोई अर्थ नहीं है जैसा किसी भाषा में होता है। जैसे हम आसमान के बीच में काला रंग नहीं पोत सकते, किसी को देखने भर से मार नहीं सकते। जैसे मारने के लिए हथियार चाहिए, रंग के लिए रंग, जैसे छोटे बच्चों को चाहिए कि बड़ी बातें न करें। जैसे आप प्यार करना चाहें तो किसी को खोज लें क्योंकि यह ईश्वर के बस में ही है कि या उसके बच्चों के कि हवा को बाँहों में भरें और सो जाएँ।
हम साथ सोए और हमने छुट्टियाँ पैदा कीं। हम हर बात की तह में जाते थे और इसलिए कपड़े तह करके सलीके से रखने की फ़ुर्सत नहीं पाते थे हम जो संसार बना रहे थे, एक दिन हमें ख़ुद उससे डर लगने लगना था। उसकी आज़ादी सगी माँ सा सौतेला बर्ताव हमारे साथ करने वाली थी। हम छतों के नीचे दबने से पहले किसी को ये सब बातें बता देना चाहते थे। हम रेलगाड़ियों से नहीं भाग सकते थे क्योंकि वे हमारी छतों के ऊपर से गुज़रती थी। इसलिए हमने सपनों का मुश्किल रास्ता चुना जो कि आपको आसान भी लग सकता है। लौटने से पहले हमने कुछ खाया जिससे भूख बहुत ज़्यादा लगी। फिर हम अपने कपड़े फाड़कर खाने लगे। हमें गुमान था कि हम लौट जाएँगे जैसे खेत से पिता लौट आते हैं। हमने एक दूसरे को खा लिया जैसे इस तरह हम एक दूसरे को दुनिया से बचा रहे हैं। इस तरह पैदा होने और मरने के बीच में बहुत सारे दिन थे, जिन्हें मैंने टुकड़े टुकड़े काटा।
एक गाना लगातार बज रहा था जिसके बारे में यहाँ लिखना ठीक नहीं।



आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)

5 पाठकों का कहना है :

संध्या आर्य said...

कई दफे तेरे आयत में
अक्षर अक्षर फना हुई थी
जीने और मरने के बीच की कडी में
जो वक्त गुंथा था
वह इतना भारी था कि
दम ज्यादा निकलता और
सांस कम
उफ्फ एक
विवशता थी
मनुष्य होने का
काश वक्त हदो से पार जाता
और हम अपने छोटे सपने को
बचा पाते
उफ्फ की रागिनी पर वक्त भारी था
कतरा कतरा कटना तय भी
एक अजीब सी छटपटाहट था
बज रहे गाने में !!

संध्या आर्य said...

एक अजीब सा दर्द था
जिसका चेहरा आम आदमी
जैसा था
जिसकी आँखे चौडी होती गई
पर सपने छोटे
और अकेले
दृष्टि डरवाना भी
दर्द मे डुबा गाना भी ना
बडा अजीब होता है ,साहब
जिसके सुर-ताल नुकीले
अपने आकार मे
हरदफा दोगुन्ना
होता चला जाता है !!!

प्रशांत मलिक said...

1% samajh aayi ye kahani

आलोक साहिल said...

अद्भुत...

तरुण भारतीय said...

सोलंकी जी बहुत कोशिश कि परन्तु समझ तोडा ही आया ........आपको होली कि शुभकामनाये