यह कहानी मार्च की 'कथादेश' में छपी है। पहली तस्वीर'आउटलुक' से और दूसरी एपी की।
हम सब साथ में रिहा हुए थे। मैं सीधा घर गया और चश्मा लगाए हुए सो रहे अपने पिता के पैर छुए। वे मेरे छूने से जाग गए, मुझे देखकर थोड़ा डरे और उठकर बैठ गए। मैं उसी नर्मी से उनके पैरों के पास बैठा रहा और सोचता रहा कि माँ होती तो हम आज कुछ मीठा खा लेते। पिताजी मुझसे कुछ बोले नहीं। कुछ देर बार उठे और पानी का गिलास लेकर आए। मैंने उनसे कहा कि थोड़ा टीवी देखना चाहिए। उन्होंने सिर हिलाकर मना कर दिया। फिर हम उठकर बालकनी में आए और सड़क को देखने लगे। बाहर बहुत ख़ुशी थी और आख़िर मैंने पिताजी से पूछ ही लिया कि क्या वे मुझे कुछ मीठा खाने को देंगे? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं फिर अन्दर कमरे में आ गया और अपनी अलमारी की ओर बढ़ा। पिताजी पीछे से लपककर आए और मुझे जोर से पकड़ लिया। मैं घबरा गया- ये क्या हुआ?
वे मेरा हाथ पकड़कर मुझे बाथरूम में ले गए और दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया। अन्दर अँधेरा था। मैं लाइट जलाना चाहता था लेकिन उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। फिर उन्होंने वॉशबेसिन के नीचे हाथ डालकर कुछ निकाला। एक नोटबुक थी। उन्होंने अपनी पैंट की जेब से पेन निकाला और रोशनदान से आ रही रोशनी की हल्की सी लकीर के सामने ले जाकर कुछ लिखा। फिर उन्होंने खुली हुई नोटबुक मुझे थमा दी। मैं उनकी नकल करता हुआ नोटबुक को उसी लकीर में ले गया जैसे वहीं से सारी उम्मीदें, उजाला और भगवान आएगा।
लिखा था- कैमरे लगे हैं।
मैं कुछ पल अपनी बेवकूफ़ी के बारे में सोचता हुआ वैसे ही खड़ा रहा। फिर मैंने लिखा- कैमरे में तो आपका यह लिखना भी रिकॉर्ड हो गया होगा।
यह उन्होंने मेरे लिखते-लिखते ही पढ़ लिया। उन्होंने लाइट जलाई और अचानक चहकते हुए से ऐसे बोले जैसे शादी वाली फ़िल्मों में समधी बात करते हैं- क्या हाल बना रखा है? पहले अच्छे से नहा धो लो, फिर खाना खाएँगे।
मैं उन्हें देखता रह गया। वे तेजी से बाहर निकल गए और दरवाजा बन्द कर दिया। उन्हें सही सिद्ध करने के लिए अब मुझे नहाने लगना था। मैंने बाथरूम की दीवारों और छत को देखा। मुझे ऐसी कोई ज़गह नज़र नहीं आई, जहाँ कैमरा लगा हो सकता है। मैंने नल खोला और कपड़े उतारने लगा। शर्ट खूँटी पर टाँगते हुए मुझे ध्यान आया कि नहाने के बाद पहनने के लिए तो यहाँ कोई कपड़ा है ही नहीं। मैंने पिताजी वाले उल्लास से ही उन्हें आवाज़ दी- कपड़े तो दे दो कोई।
वे आए तो मैं नंगा नहीं था लेकिन मैंने दरवाजा उतना ही खोला, जितना माँ ने सिखाया था कि नहाते हुए तौलिया माँगने के बाद खोलकर रखना चाहिए।
मैंने सोचा कि पिताजी रोज़ कैसे रहते होंगे? इन कैमरों के सामने नहाते होंगे क्या? क्या उनके नाम का भी कोई एमएमएस बन गया होगा जिसे औरतें एक दूसरी को फॉरवर्ड करती होंगी। नहीं, लेकिन उन्हें नहाते हुए कौन देखना चाहेगा भला?
मैंने झुककर बाल्टी उठाई और जींस पहने हुए ही अपने सिर पर उड़ेल ली। मैंने इस तरह कपड़े बदले कि मेरा एमएमएस कोई देख रहा हो तो मुझे शर्म न आए। मैं डीपीएस वाली लड़की की तरह विदेश जाकर अपना अतीत नहीं भुला सकता था।
मैं बाहर आया तो वे रसोई में कुछ खटपट कर रहे थे। मैं रसोई में पहुँचा तो यह वाकई खटपट ही थी। अब तक उन्होंने कुछ बनाने के लिए नहीं रखा था। स्लैब पर कुछ आलू और एक चाकू रखा हुआ था। उन्होंने बेचारगी से मेरी ओर देखा। उन्हें कुछ भी बनाना नहीं आता था। माँ ने हमेशा उन्हें बच्चों की तरह पाला था। वह उन्हें बिस्तर पर ही खाना देती थी और एक अजीब सी तृप्ति महसूस करती थी। उन्हें बस चाय और खीर बनानी आती थी।
जैसे मैं उन्हें डाँटूंगा, वे आकर मेरे गले से लग गए। मुझे जेल में हमेशा लगता था कि मेरी अनुपस्थिति के इन महीनों में वे बस फलों, कुछ कच्ची सब्जियों और दूध-दही-चाय से काम चला रहे होंगे।
- मैंने मैगी बनानी सीखी।
उन्होंने मेरे कान में कहा। मुझे लगा कि मैं उनका पिता हूँ और जो पास्ट, प्रेजेंट या फ्यूचर टेंस उन्होंने मेरे बार-बार भूलने के बाद भी मुझे बिना किसी गुस्से के बार-बार सिखाए थे, जैसे मैंने उन्हें सिखाए हों। मैंने उनसे कहा कि वे जाकर आराम करें, मैं कुछ बनाकर लाता हूँ। वे मुझसे अलग हुए और मुझे ऐसे देखा जैसे माफी माँग रहे हों- पता नहीं, खाना न बना पाने के लिए या मुझे ऐसी दुनिया में लाने के लिए- और मुड़कर चले गए।
खाना खाते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया है।
- कौनसा विषय?
- इतिहास। (क्या कहीं बच्चे इतिहास का ट्यूशन पढ़ते हैं?)
- आप इतनी मेहनत मत कीजिए। अब कुछ करूँगा मैं।
जिस हाथ से वे खा नहीं रहे थे, उससे उन्होंने मेरा कंधा सहला दिया। मैं कुछ नहीं बोल पाया। खाना खाने के बाद मैंने बर्तन धो दिए। उन्होंने कुछ पैसे लाकर मेरी जेब में रख दिए। मैंने उन्हें मना भी किया लेकिन इतना नहीं कि वे वापस ले लें। इसी बीच उनके ट्यूशन वाले बच्चे आ गए थे। बर्तन धोने के बाद मैं रसोई के दरवाज़े पर खड़ा होकर कुछ देर तक उन्हें तल्लीनता से पढ़ाते हुए देखता रहा और फिर घर से निकल गया। कैमरे लगे होंगे तो उन्होंने चाहा होगा कि मेरा पीछा करें लेकिन चल नहीं पाए होंगे।
मुझे फिर से पुलिस स्टेशन जाना था। यह हर दिन करना था- सुबह आठ से रात के आठ के बीच तीन बार। मैंने साइन किए, कुछ हिदायतें बार-बार सुनीं और बाहर निकल आया। बाहर की दुनिया ख़ुश थी- कपड़ों के नए डिजाइन हर दिन आ रहे थे, हर शुक्रवार नई फ़िल्में रिलीज़ हो रही थीं, मुहूर्त निकलते थे तो एक ही दिन शहर में पचासों शादियाँ होती थीं जिनमें लोग उत्साह से जाते थे और मंत्र सुनते हुए यह दुआ करते थे कि दूल्हा-दुल्हन उम्र भर साथ रहें। बस यही चिंता की बात थी। बाकी तो माशाअल्लाह बारिश उस साल ख़ूब थी और सब लोग आज़ाद-आज़ाद महसूस करते थे।
मुझे निहां से मिलना था। मैं नहीं चाहता था कि कोई पीछा कर रहा हो तो वहाँ तक पहुँचे। मैंने उसे एक पीसीओ से फ़ोन किया। वह मेरी आवाज़ सुनकर रोने को हुई। मैंने कहा कि तुम्हारी आँखों में दो काले समन्दर हैं और फ़ोन काट दिया। इसका मतलब यह था कि वह दो बजे ‘ब्लैक ओशन’ रेस्त्रां में न मिलकर ‘हैप्पीसिटी’ में मुझसे मिले। मुझे लगा कि उसके फ़ोन भी ज़रूर टेप हो रहे होंगे और टेप करने वाले लोग भी जासूस किस्म के होंगे। वे ज़रूर ब्लैक ओशन में पहुँचेंगे। शुरू के दिनों में निहां और मेरी मुलाक़ात की दो ही ज़गहें हुआ करती थीं- ब्लैक ओशन और हैप्पी सिटी। मैं जानता था कि निहां मेरा मतलब समझ जाएगी।
मैं रेडिमेड कपड़ों की एक दुकान में घुसा। मैंने एक सस्ती जैकेट, एक जींस और एक टोपी खरीदी। जैकेट और टोपी पहनकर मैं दुकान के पिछले दरवाज़े से बाहर निकल गया। मैं जब ‘हैप्पी सिटी’ में पहुँचा तो वहाँ ‘हैप्पी सिटी’ था ही नहीं। ‘बबल्स’ नाम की एक नई कॉफ़ी शॉप खुल गई थी। मैंने उसके काँच के दरवाज़े तक जाकर भीतर झाँका। निहां शॉल ओढ़े एक कोने में सिर झुकाकर बैठी थी।
बाकी कहानी किताब में
(आज़ादी के बाद भारत में 6 करोड़ से भी अधिक लोग अपने घरों से विस्थापित हुए हैं या किए गए हैं। )