घर मेरी और मैं घर की किसी भी तस्वीर में नहीं था
और घर छोड़ने से तुरंत पहले के हल्ले में
जब सामान चढ़ाया जा रहा था, खो रहा था साथ-साथ,
मैंने माँ को पहले जवान होते हुए और फिर,
वह कितनी ख़ूबसूरत थी, मैं आपको कैसे बताऊँ,
ख़ैर, मैंने माँ को पहले जवान होते हुए और फिर
एक बच्ची में बदलते हुए देखा
तब एक ग्रुप फ़ोटो के लिए चबूतरे पर बैठे थे सारे पड़ोसी
और मैं सामने की नाली में गिरने से अपने आपको बचाते हुए
उनके समेत घर की एक तस्वीर लेना चाह रहा था
लेकिन माँ जब बच्ची होकर एक आदमी की गोद में थी
और मैं उन सबको गोली मारकर
भीतर भाग जाना चाहता था
वेस्पा लिखा लाल ताला लगाकर अन्दर से हमेशा के लिए,
तब भी, हैरत है कि घर उस तस्वीर में नहीं आया
जबकि वह किसी हनीमून या तीर्थयात्रा पर नहीं जा सकता था,
जा भी सकता हो तो भी गया तो नहीं था उस दिन
अब हम जब उसे याद करते हैं,
घर को, और किसे?
तो हम उन परदों के बारे में सोचते हैं
जिन्हें हमने अगली सर्दियों में बदलने का सोचा था
उस पौधे को, जिसका नाम कोई नहीं जानता था,
जो हमारे बाद भी रहा वहाँ,
जिसे मेरी बहन बताती थी अपने दुख, जिन्हें सुनने का धीरज नहीं था हमारे पास
उस बरामदे को, जहाँ उस घर के पहले दिन में
मुझे बहुत गर्मी लग रही थी, हमने बाँटे थे लड्डू
जिस दीवार पर मैंने एक पहली अप्रैल को
खुरचकर लिखा था अपना, अपनी बहनों का नाम
जैसे ऐसे बचा लूँगा मैं नष्ट होने से स्मृतियों और घरों को
एक डाकिया, जो अकेली दोपहरों में भगवान की तरह आता था,
हमेशा लेकर ख़ुशखबरियाँ
जिसके लिए हमें हमेशा कहते थे पिता कि नमस्ते किया करो, वे चाय को पूछते थे हर किसी से, उन्हें गर्मी इतनी लगती थी कि घर में घुसते ही शर्ट के बटन खोलने लगते थे,
उस आँगन को, जहाँ पहले हम सब्जियाँ बोते थे,
बाद में आने लगे थे साँप, हमने उसे पक्का करवा लिया था
जबकि उस ज़मीन में मेरी कितनी ही चींटी दोस्तों के बिल थे,
बाद में गिरते थे उसमें कीकर के फूल,
जिन्हें बुहारती हुई मेरी माँ बूढ़ी होती गई
घर ने कहा कि हमने उससे प्यार नहीं किया कभी
वह हमारे लिए बस मुफ़्त की एक सराय थी
जिसमें हममें से ज़्यादातर, छुट्टियाँ काटने आया करते थे
और लौट जाते थे बिना उससे पूछे
हम दलाल थे
घर हमारे लिए वेश्या की तरह था
जब ठीक कीमत मिली, मेरे पिता ने उसे बेच दिया
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घर हमारे लिए वेश्या |
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नीचे बस्ता |
यह कहानी आज की 'राजस्थान पत्रिका' में छपी है। फ़ोटो: Days of being wild
इस क्षण, जब मैं सोच रहा हूँ कि अब के बाद भी मुझे शुभ का पिता रहना होगा, उसे डाँटना और समझाना होगा और जाने कितने सालों तक उससे बार-बार आँखें मिलानी होंगी, मेरे पास क्या क्या विकल्प हैं? यह कोई रामसे ब्रदर्स की शैली का सपना नहीं कि मैं ज़ोर से अपने शरीर को झटका दूँ और बाहर अपनी पुरानी दीवारों की वही सुरक्षा, अनिन्दिता की वही गरमाई फिर से पा लूँ। यह जो लड़की, ज़िन्दगी को जन्नत समझती है, अभी मैं इसकी आँखों में काँच भरूँगा और वापस उस ओर लौटूँगा, जहाँ नहीं लौटा जा सकता।
हमारी शादी ‘कहो ना प्यार है’ वाले दिनों में हुई थी। तब से अब तक मैं पाँच नौकरियाँ छोड़ चुका हूँ और सोचता हूँ कि छठी कभी नहीं करूँगा। अनिन्दिता उसी नौकरी में है, बच्चों को पढ़ाती है। पढ़ाता मैं भी हूँ, लेकिन कभी हाँ कभी ना टाइप। पढ़ाने को मैं दस दिन तक आठ आठ घंटे पढ़ाता रहूँ और न पढ़ाना चाहूँ तो चार महीने तक बच्चे दरवाज़े से लौटते रहें। इसलिए समझदार अभिभावकों ने अपने बच्चों को मेरे पास भेजना बन्द कर दिया है। तीन बचे हैं। उन तीनों को ही मेरी मनमर्ज़ी पसन्द है। वे बारहवीं में पढ़ते हैं और शायद कुछ साल बारहवीं में ही पढ़ना चाहते हैं। अभय, प्राची और हरदीप।
अनिन्दिता के बारे में आपको कैसे बताऊँ? आजकल मेरे पास उतने शब्द नहीं रह गए हैं इसलिए आप ख़ुद ही समझने की कोशिश कीजिए। बस यह जान लीजिए कि हर सुबह दस बजे मैं उसे उसके स्कूल छोड़ता हूँ, उससे कुछ पहले शुभ को छोड़ता हूँ और सब्जी-दूध लेते हुए घर लौटता हूँ। तब तक अनिन्दिता खाना बना चुकी होती है। मुझे भूख नहीं होती, इसलिए वह अकेली ही थोड़ा बहुत खाती है, कुछ टिफ़िन में रखती है, मुझे चूमती है और फिर कहती है कि बाइक स्टार्ट करो। सर्दियों में बाइक एक बार में स्टार्ट नहीं होती। इसलिए वह बीस तीस सेकंड के लिए अख़बार देखती है और उसमें से दो-चार पन्ने अपने बैग में रख लेती है ताकि लंचटाइम में पढ़ सके।
लंचटाइम अज़ीब सा शब्द है। यह बोलते या सुनते ही मुझे भूख लगने लगती है। मुझे इस शब्द से हमेशा परांठे याद आते हैं और मैं आपको बता दूँ कि कभी मैंने छठी नौकरी की तो लंचटाइम के लिए ही करूँगा। घर में अकेले रहना और एक से चार के बीच कभी भी खा लेना या न भी खाना, कभी लंचटाइम के सुख की बराबरी नहीं कर सकता।
अनिन्दिता को उसके स्कूल छोड़ने के बाद मैं बहुत धीरे घर लौटता हूँ। कभी कभी तो इतना धीरे चलने पर बाइक बार-बार रुक भी जाती है। मैं किसी किताबों की दुकान पर रुक जाता हूँ और आधा-पौन घंटा किताबें पलटता रहता हूँ। लेकिन बिना एक भी किताब खरीदे, एक ही दुकान पर ऐसा बार-बार नहीं किया जा सकता। और आप तो जानते ही हैं कि पूरे शहर में किताबों की कितनी ही दुकानें बची हैं।
घर लौटने के बाद मुझे पाँच बजे तक अकेले रहना होता है। शुभ की छुट्टी तीन बजे होती है, लेकिन उसके स्कूल वाले दो घंटे और रोककर उसे कोई बड़ा तीर मारना सिखाते हैं। अनिन्दिता उसे बाकी आधुनिक अभिभावकों की तरह ऑलराउंडर बनाना चाहती है, चाहे स्कूल वाले दुगुनी फ़ीस ले लें। हम तीनों जब पाँच बजे गली में घुसते हैं तो अनिन्दिता का माथा गर्व से ऊपर को उठा होता है। मैं चाय बनाता हूँ, हम चाय पीते हैं, फिर कुछ देर बातें, फिर उसका खाना बनाना, फिर खाना, फिर कुल्ला करना और यह सोचना कि गुड़ भी खरीद कर लाऊँगा। फिर उसका रोज़ कहना कि आज बहुत थक गई हूँ, जैसे पहली बार कह रही हो। उसे वाकई ऐसा ही लगता है कि वह पहली बार थकान की शिकायत कर रही है। नहीं तो वह इतनी कोमल और रिश्ते में नएपन का ख़याल रखने वाली है कि अगर थकी भी होगी तो भी मुझे रोज़ एक बात कहने से बचेगी।
वह दस बजते-बजते सो जाती है। कभी नींद को स्थगित भी करती है तो तब, जब उसे कुछ पढ़ना होता है या बच्चों के किसी टेस्ट की कॉपियाँ जाँचनी होती हैं। वह नहीं सोच पाती कि नींद को किसी और वज़ह से भी स्थगित किया जा सकता है या किया जाना चाहिए। मुझे बारह-एक बजे तक नींद नहीं आती। कई बार मैं करवट लेकर उसकी ओर देखता रहता हूँ, यह चाहता हुआ कि उसे एक गाने की तर्ज़ पर सुबह तक प्यार करूँ, जैसे वह तीन दिन की छुट्टी ले ले, शुभ को हम मम्मी पापा के पास छोड़ आएँ और वैसे ही हो जाएँ, जैसा ‘कहो ना प्यार है’ के ज़माने में हुआ करते थे। मैं उसके बाल छूता था तो उसकी आँखें बन्द हो जाती थीं। वह हर बार ऐसी होती थी, जैसी पहली बार थी।
‘रंग दे बसंती’ के ज़माने तक आते-आते वह आत्मिक प्रेम और शारीरिक प्रेम के बारे में बातें करने लगी थी। वह मेरे माथे को चूमती हुई पूछती थी कि हमारा प्यार कैसा है? उसे शरीर कूड़ा लगने लगा था और मैं इतना निर्मम नहीं था कि उसे सोना बताकर उसका जी दुखाऊँ। आत्मा होगी हीरा, लेकिन शरीर को भी प्यार चाहिए और इस बात को ग़लत बताने वाले या तो मासूम होते हैं या कपटी। बुरा यह था कि अनिन्दिता मासूम होती जा रही थी। वह बेचारी उन दिनों को भूलती जा रही थी, जब वह मेरे नज़रिए से सोच पाती थी। उसे पता होता था कि कब मुझे चाय चाहिए, कब चुम्बन। मुझे ऐसा तरीका नहीं आता था कि मैं शर्मिन्दा हुए बिना उसे अपनी ज़रूरतों के बारे में बता सकूँ। यह तब था, जब हम दस साल से साथ थे।
अभय और हरदीप उस दिन नहीं आए थे। वे तीनों रोज़ तीन से चार आते थे, लेकिन उस दिन सिर्फ़ प्राची आई। बाहर का दरवाज़ा खुला था और मैं बाथरूम में था। नल की आवाज़ में मुझे नहीं सुना कि ‘सर सर’ बोलते हुए वह अन्दर के कमरे तक चली गई है और बैठ भी गई है। जब मैं बाहर आया तो वह बेमन से अपनी किताब के पन्ने पलट रही थी। मैं शर्ट और तौलिए में था। उत्सुक मत होइए, तौलिए में होने से ही ज़रूरी नहीं कि कोई रसीली कहानी शुरू हो। कुछ देर बाद उसी बिस्तर पर मैंने उसका शॉल उतार फेंका था और वह मेरी बाँहों में ज़रूर थी लेकिन तौलिए में उसने मुझे नहीं देखा। जब उसने मुझे देखा, तब मैं पूरे कपड़ों में ही था।
वह वैसी ही थी, जैसे सोलह साल की उम्र में सब होते हैं। उन्हें लगता है कि वे दुनिया के सबसे चुस्त इंसान हैं, जैसे दुनिया का सारा असल विकास उनके होश सँभालने के बाद ही शुरू हुआ, जैसे उन्हें सब पता है, यह भी कि वे सब कुछ जीत लेने वाले हैं और आप, जो उनसे बड़े हैं, बेवकूफ़ हैं कि छोटे शहर की यह गटर की ज़िन्दगी जिए जा रहे हैं – रोज़ सब्जी खरीदते हैं और ऐसे ही एक दिन मर जाते हैं। उसकी बड़ी बड़ी आँखें हर बात को हज़ार अर्थों में कहती थीं। ऐसे ही किसी कहने के दौरान मुझ बत्तीस साल के शालीन आदमी ने, अड़तालीस साल के आदमी की सी कुंठा से उसका हाथ दबाया। वह काँपी। उसने जैसे नशे में मुझे देखा। मैंने दूसरा हाथ उसके कन्धे पर रखा, शॉल के ऊपर ही। फिर गर्दन के पिछले हिस्से में उसके बालों को हल्का सा हटाते हुए। उसने आँखें बन्द कर ली, जैसे उसके लिए वे ‘कहो ना प्यार है’ वाले ही दिन थे। जैसे मैं ‘सेनोरिटा सेनोरिटा’ कहता हुआ सरसों के किसी खेत में उसे कबूतरों की सी पवित्रता से चूमूँगा। जैसे अभी अगले कुछ क्षणों में, जब मैं उसका शॉल उतार फेंकूँगा और मेरा चेहरा उसकी गर्दन से ज़रा नीचे आकर थमेगा, तब बाहर सूरज मद्धम हो रहा होगा और किसी गाँव में लड़कियाँ कतार में प्यार का कोई गीत गाते हुए खेतों से लौट रही होंगी।
पैरों से ऊपर का उसका बेबाक शरीर तब चाँदी की तरह चमक रहा था और मुझे उसे बताने की फ़ुर्सत नहीं थी और न ही धीरज कि वह अनिन्दिता की तरह एक प्यार चुनने को मुझसे न कहे, कि प्यार के बारे में जो उसे इस घर के बाहर सिखाया गया है, वह एक बेवकूफ़ या काली पवित्रता ही है। मैं सुबह तक प्यार वाले उसी बेशर्म अभिनेता पर फ़िल्माए गए एक नए गाने की तर्ज पर प्राची को पी जाना चाहता था। वह मुझे कसकर पकड़े हुए थी और शायद सोच रही थी कि मुझसे शादी कर लेगी, मेरे बच्चे पालेगी और एक दिन आत्मिक प्रेम का स्वर्ग पाएगी, तभी मुझे याद आया कि प्राची के आने से पहले भी दरवाज़ा खुला था और अब शुभ का एक किलो का चेहरा पलंग के नीचे से झाँक रहा है। उसकी पीठ पर उससे बड़ा उसका बस्ता है और समय किसी की रखैल नहीं कि आप जब चाहें, अपने घर लौट जाएँ।
मगर आप हर बार बेशर्मों की तरह लौटते हैं। शरण ऐसे माँगते हैं, जैसे माँ माँगते हों और फिर से जन्म।
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वह उंगली, जो हर सर्दी में सूजती है |
जैसे सफ़र कितना भी छोटा हो,
तैयारियाँ हमेशा बड़ी होती हैं,
हर बार रेल पकड़ने से पहले
आपको चीजों के होने और न होने पर
देर तक खीजना पड़ता है,
टूथब्रश सबसे ज़्यादा बार चेक किया जाता है बैग में
और सबसे ज़्यादा बार भूला जाता है
किसी दोपहर आप बहुत ख़ुश हों
तो निकल आता है किसी न किसी दाँत में दर्द
पैसा कितना भी हो, बटुए में कोई न कोई नोट ऐसा हमेशा रहता है
जिसके न चलने की फ़िक्र
आपको आधी रात के सपनों में भी लगातार खाती है
आप कभी खुलकर गोविन्दा की सी हँसी के साथ
नहीं खरीद रहे होते चीनी या टमाटर,
आप किसी दुकानदार के इतने दोस्त नहीं होना चाहते
कि उसे अँधेरे में फटा नोट न पकड़ा सकें
वह उंगली, जो हर सर्दी में सूजती है आपकी
आप उससे गर्मियों में भी सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं,
तीन साल से नाराज़ एक दोस्त का चेहरा
जश्न की हर घूँट में चमकता है,
जीतने के बाद याद आते हैं वे सब लोग
जो आपसे बेहतर थे