यह 'हिसार में हाहाकार' नामक कहानी का दूसरा भाग है।
आगे बढ़ने से पहले पढ़ें - वहशी खेत और गीता का बदला
राहुल ने दूसरी-तीसरी बात में ही श्वेता को बता दिया था कि उसका पटना की एक लड़की के साथ कुछ मामला था, जो दिल्ली में इंजीनियरिंग कर रही थी। तब वे श्वेता के कमरे की ओर जाती सीढ़ियों पर खड़े थे और श्वेता को पक्का पता नहीं था कि नन्दिनी कमरे में है या नहीं?
- मैं यश नाम के लड़के से प्यार करती थी।
‘प्यार’ शब्द सुनते ही राहुल को लगा जैसे यह नौटंकी हो रही है और अब इस कहानी में कई गाने गाने पड़ेंगे, महंगे कपड़े पहनने होंगे, रोज़ शेव करनी होगी और डियो छिड़कना होगा।
- हाँ, मुझे पता है। वह तुम्हारे कमरे पर आता था ना?
- हाँ, फिर मैंने उसे छोड़ दिया।
- हमारा लव कब शुरू होगा?
श्वेता हाथ हिलाकर, आँखें फैलाकर हँस दी।
- सच बताओ। वैसे अगर तुम अपनी बहन के लिए बार-बार ऊपर देख रही हो तो मुझसे पूछ लो। वह साढ़े बारह बजे के आसपास एक लड़के की बाइक पर गई थी।
- स्मार्ट बन रहे हो?
- लेकिन मैं तुम्हें चॉकलेट या ग्रीटिंग कार्ड नहीं दूँगा। अब बार-बार इस पूरी प्रोसेस को दोहराना मुझे वक़्त की बर्बादी लगती है।
- तो वक़्त की आबादी किसमें है?
- उन सब चीजों को न करने में, जो मैंने उस सुमेधा के साथ की।
- फ़ॉर एग्जाम्पल?
- जैसे उसके साथ मैं यहाँ सीढ़ियों पर घंटों खड़ा रहता। यह नहीं कहता कि चलो, तुम्हारे घर चलते हैं।
फिर वे दोनों उसके कमरे में आ गए। वहाँ राहुल थोड़ा भावुक हो गया और उसने श्वेता को कुछ निहायत ही ग़ैरज़रूरी बातें बताईं। यह कि एक दिन बाज़ार में एक छोटा लड़का उससे भीख माँग रहा था और वह उससे परेशान हो गया था। उसके साथ सुमेधा भी थी। तभी किसी दुकान से राहुल का हमउम्र कोई सेल्समैन लड़का आया और उसने उस छोटे लड़के को दो-तीन लातें जमाकर भगा दिया। फिर उसने गर्व से सुमेधा की ओर देखा जैसे वह अभी उससे कहेगी कि मेरे साथ पिक्चर देखने चलो और वह उसे वहाँ फ़ुर्सत से चूम पाएगा। सुमेधा मुस्कुराई थी और राहुल ने श्वेता को बताया कि वह न जाने क्यों, उस छोटे लड़के को बचा नहीं पाया। कई दिन अपराधबोध में रहने के बाद उसने तय किया कि जब वह कहानियाँ लिखना सीख लेगा, तब जैसे भी हो, इस घटना को अपनी कहानी में ज़गह देगा। हालाँकि वह जानता था कि यह सबसे आसान बचाव है।
श्वेता ने कहा कि दूध होता तो वह उसके लिए चाय बनाती। फिर उसने कुछ ज़रूरी बातें राहुल को बताईं।
उसने सबसे पहले अपने हरे-भरे गाँव और उसमें स्थित अपने बड़े से घर का स्केच राहुल की आँखों के आगे खींचा। उसे देखकर राहुल थोड़ा सहज हुआ और माहौल में रूमानियत आई। फिर श्वेता ने उसे अपनी अनपढ़ माँ और एक साल बड़ी बहन नन्दिनी के बारे में बताया जो हीरोइन बनना चाहती थी लेकिन फिर घर में यह समझौता हुआ था कि उसे फ़ैशन डिजाइनिंग पढ़ने दिया जा सकता है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। वह दिल्ली आई तो श्वेता भी उसके साथ आ गई थी – पढ़ने, लेकिन वह वापस गाँव नहीं लौटना चाहती थी और न ही अपने घरवालों से कोई रिश्ता रखना चाहती थी, इसलिए उसने आत्मनिर्भर होने के रास्ते तलाशे। सबसे पहले उसे बीस कर्मचारियों वाली, एक तीन कमरे की कम्पनी में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली। वहाँ तनख़्वाह दस हज़ार थी और फिर ऐसा होने लगा कि कम्पनी के मालिक से मिलने आने वाले मोटे और बूढ़े लोग उससे फ़िजूल की बातें करते रहते। श्वेता ने बताया कि एक कुत्ता, जो हर शुक्रवार आता था, उससे हर बार पूछता था कि क्या वह आज रात उसके साथ खाना खाएगी जिसका मतलब उसे उसके साथ रात को बिस्तर पर चिपककर लेटना लगता था। वह हर बार मुस्कुराकर बहाना बना देती थी। फिर एक दिन, जब वह उसके बॉस के केबिन में बैठा था, तब उसके बॉस ने उसे फ़ोन करके बुलाया- शिवि, मेरे केबिन में आना। वह गई और बॉस, जो हैंडसम था लेकिन जिसके मुँह पर सिर्फ़ कुल्ला किया जा सकता था और वह रोज़ सोचती थी कि इसे अब तक किसी कूड़ेदान में क्यों नहीं फेंका गया, उसने श्वेता से प्यार से कहा कि बैठ जाए। वह हिचकिचाते हुए बैठ गई। कुछ देर असहज ख़ामोशी रही। वह चेहरा घुमाकर दीवार की तरफ़ देखती रही, जिस पर ‘फ़ायर’ लिखा हुआ पोस्टर लगा था।
- शिवि, चोपड़ा साहब चाहते हैं कि तुम आज इनके साथ डिनर पर चली जाओ। अभी
तुम चाहो तो घर जाकर आराम करो। ये तुम्हें मुखर्जी नगर से ही पिक कर लेंगे। क्यों चोपड़ा साहब?
- हाँ शिवि।
- इट्स श्वेता सर।
वे दोनों हँस दिए और श्वेता के बदन में आग लग गई।
राहुल ने सीन को पॉज किया और कहा कि उसे प्यास लगी है। जब श्वेता पानी लाई तो उसने पूछा- उस कुत्ते का नाम प्रेम चोपड़ा था क्या?
- नहीं, नरेन्द्र या नरेश कुछ था।
- फिर?
- मेरा मन तो किया कि उन्हें गाली देकर तभी आ जाऊँ। लेकिन महीने के तीन हफ़्ते गुज़र चुके थे और अगले शुक्रवार को मुझे सेलरी मिलनी थी इसलिए मैंने बहुत प्यार से कुत्ते की आँखों में आँखें डालकर कहा- सर, अगले फ़्राइडे मेरा बर्थडे है। मैं चाहती हूँ कि हम तभी पहली बार डिनर पर जाएँ। कुत्ता तुरंत तैयार हो गया और जब मैं केबिन से बाहर निकल रही थी, उसने बाय स्वीटहार्ट कहा।
- तो तुमने अगले हफ़्ते जन्मदिन मनाया?
श्वेता हँसी।
- अगले शुक्रवार मैं सेलरी लेकर घर आ गई। वो मुझे पिक करने यहीं आया, छ:-सात बजे के क़रीब। मैंने कहा कि सर, यहीं सेलीब्रेट करते हैं। मोटा कुत्ता जब यहाँ तीसरी मंजिल पर पहुँचा तो साले की जीभ बाहर निकल गई थी। पानी पानी करते अन्दर घुसा। पाँच मिनट बाद जब उसकी जान में जान आई तो मैंने कहा कि सर, मुझे घोड़ा बनकर चलकर दिखाइए ना। बोला कि मुझे सर मत बोलो प्लीज़ और तुरंत ही घोड़ा बनकर चलने लगा। मैंने मोबाइल से उसकी कई फ़ोटो भी खींची। फिर मेरे कहने पर वो करोड़पति ठरकी साला, बन्दर और कछुआ भी बना।
- फ़ोटो दिखाओ ना मुझे...
- सुनो तो। एक घंटे बाद वह अपनी औकात पर आने लगा। मुझे तो पता ही था कि यही होगा। वोला- जानेमन, अब मैं शेर बनकर तुम्हें खाऊँगा।
- ओ तेरी...
- मैंने सात दिन से एक मोटा डंडा तैयार कर रखा था। नन्दिनी आने वाली थी। मैंने सोचा कि उससे पहले ही चोपड़ा साहब का थोबड़ा कुछ ठीक कर देना चाहिए। मैंने कहा- बेबी, आइस लाती हूँ। तुम आँखों पर पट्टी बाँधकर बैठो। मेरी सालों की फ़ैंटेसी है ये।
- अरे तू तो...तुम तो हंटरवाली निकली।
- साले ने रूमाल निकालकर अपनी आँखों पर बाँध भी लिया। मैंने चादर से उसके हाथ पीछे बाँध दिए। जीभ बार बार बाहर निकाल रहा था। फिर मैंने आइस-डंडा लिया और उसे बर्फ़ बनाकर ही छोड़ा।
- झूठ बोल रही हो ना?
श्वेता ने कहा कि वह उसे कुछ और भी बताना चाहती है। मज़ेदार बातों का माहौल था और श्वेता ने उसे अपने बारहवें जन्मदिन के बारे में बताया। उसका जन्मदिन पन्द्रह अगस्त को आता था। नन्दिनी माँ के साथ ननिहाल गई हुई थी। उस सुन्दर शाम में, जब धूप इतनी प्यारी थी कि उसे देखते हुए तीन-चार साल तो आराम से गुज़ारे जा सकते थे, उसके पापा ने उससे कहा कि वह चाय बनाकर लाएगी तो वे उसे कुछ तोहफ़ा देंगे। वह चहकती और उछलती हुई रसोई में गई। उसके छोटे-छोटे बाल थे और उसने अपनी पसन्द की गुलाबी फ़्रॉक पहन रखी थी, जिसकी कम्पनी का नाम एंजेल था। रसोई के साथ वाले कमरे में टीवी चल रहा था जो कभी कभी चलता था क्योंकि बिजली कभी कभी आती थी।
उसने चीनी डाली ही थी कि पीछे से पिता आए और उन्होंने उसे जकड़ लिया। अब हमें पास वाले कमरे में जाकर चित्रहार या ऐसा ही कुछ और देखना चाहिए, तब तक, जब तक रसोई के दरवाज़े की साँकल अन्दर से चढ़ी रहे। हम ऐसा ही तो करते हैं। सड़क पर पिट रहे बच्चों को देखकर घर आते हैं और कोई बढ़िया ग़ज़ल सुनकर अपने सौन्दर्यबोध और संवेदनशीलता पर गर्व करते हैं। इसलिए जब श्वेता चिल्ला रही है या बता रही है कि वह चिल्ला रही थी, तब हमें अपने कानों पर राहत फ़तेह अली ख़ान के किसी गाने का टेप चला लेना चाहिए और उससे उसकी पसंद के रंग और फूल पूछने चाहिए। यह उसे सिखाने के लिए हमें एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देना चाहिए कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है। लड़कियों को बहुत आसानी से बातों के जाल में उलझाया जा सकता है लेकिन राहुल, तुम कुछ इंट्रेस्टिंग सी बात क्यों नहीं करते? क्यों यहाँ उसके सामने जमे हुए से बैठे हो? तुम्हारे वे ‘प्रेम चोपड़ा’ वाले फ़िल्मी सवाल ही कहाँ मर गए हैं? तुम क्यों नहीं, एंजेल कम्पनी के बारे में ही उसे कोई मज़ेदार किस्सा सुना देते? तुम अब भी अपनी बगल में रखा लेपटॉप ऑन कर सकते हो और श्वेता ने अच्छा इंटरनेट कनेक्शन भी ले रखा है, इसलिए यूट्यूब पर सोनू निगम का गाया कोई मीठा गाना भी चला सकते हो। ओफ़्फ़ोह! वे कहते हैं कि भावुक होने वाली सदी चली गई और तुम्हें देखो, तुमने अब सिर भी झुका लिया है। चलो, कम से कम, हमारे साथ आकर चित्रहार ही देख लो। कितने हरे बाग और कितने सफेद पहाड़ हैं, जिन पर नाचती हुई शिल्पा शेट्टी कितनी उत्तेजक लगती है और कितनी आत्ममुग्ध भी, यह भूली हुई कि छ: साल बाद वह किसी को याद नहीं रहेगी।
राहुल नहीं मानता और श्वेता से वह सब कुछ सुन लेता है, जिसे मैं और आप नहीं सुनना चाहते। हम तो अब अगले दिन ही उस टीवी वाले कमरे से बाहर आएँगे, जब नन्दिनी अपनी माँ के साथ लौटेगी और श्वेता को मामा के घर से मिले कपड़े दिखाकर चिढ़ाएगी। श्वेता उनको फाड़ देगी, अपनी माँ से पिटेगी और रोएगी नहीं। फिर बरसों तक दिल्ली आने का इंतज़ार करेगी और वहाँ राहुल से मिलने का।
यह प्रेम-कहानी यहीं से शुरू होती है।
इसके बाद श्वेता राहुल की गोद में लेट गई और कमरे में देर तक एक निर्जीव चुप्पी छाई रही। दस मिनट बाद राहुल ने पूछा- ऐसा फिर भी कभी हुआ?
- हाँ, कम से कम दस बार। मैं माँ के साथ ही चिपकी रहने की कोशिश करती थी और इस बात पर उससे डाँट भी खाती थी। माँ अपनी बहनों के सामने मेरी इसी कमी को दोहराती रहती थी।
- माँ को बताया तुमने?
- नहीं, लेकिन शायद बाद में उसे पता चल गया था।
- कुछ किया नहीं उन्होंने? खा नहीं गई तुम्हारे बाप को?
- एक दो बार वो शायद इसी वज़ह से उससे पिटी। फिर वह बीमार रहने लगी। एक रात जब वह दर्द के मारे रोए जा रही थी और मैं उसका सिर दबा रही थी, तब उसने उठकर मेरे पैर पकड़ लिए और रोती रही, माफ़ी माँगती रही।
- और नंदिनी? उसे पता है?
- तुम पहले इंसान हो जिसे मैंने बताया। लेकिन वह हमेशा शमशेर की चहेती रही। शमशेर मेरे बाप का नाम है। वह हमेशा उसके गले से झूलती रहती थी। अब भी बस हम दो रूममेट्स की तरह साथ रहती हैं बस।
- तुम दिल्ली आने के बाद घर नहीं गई कभी?
- नहीं। शमशेर दो-तीन बार आया। मैं तब अपनी किसी दोस्त के यहाँ रुक गई। वह और नंदिनी यहाँ होते थे।
रोशन राय की लाश के पास खड़ा राजेश अपने बूढ़े पिता के पैरों में गिर पड़ा और कहने लगा कि कुछ हो तो वे इसकी मौत का जिम्मा अपने सिर ले लें क्योंकि उसे अभी बहुत जीना है और दुनिया देखनी है। उसने बचपन का लाड़-दुलार उन्हें इस तरह याद दिलाया जैसे वे थोड़ा और बूढ़े होने पर अपनी सेवा करवाने के लिए उसे याद दिलाते। फिर राजेश ने अपनी माँ के पैर पकड़ लिए और कहने लगा कि पिताजी न मानें तो तू कहना कि तुझे गुस्सा आया और तूने इसे पीट-पीटकर मार डाला। वह डर से काँप रहा था और लगातार रो रहा था। फिर उसने दौड़कर बाहर का दरवाज़ा बन्द किया और गीता के पैरों में लोटने लगा। माँ-बाप दयनीय से होकर उसे देख रहे थे। माँ उसे पुचकारकर उठाने ही वाली थी कि गीता ने उसके चेहरे पर ज़ोर से ठोकर मारी। वह चिल्लाते हुए पलटकर गिरा। गीता अन्दर कमरे में जाकर खाट पर लेट गई।
उसकी माँ गश खाकर गिर पड़ी थी और पिता एक कोने में बैठकर मृत्यु के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी राजेश झटके से उठा। उसने रोशन राय की लाश की एक बाँह पकड़ी और उसे घसीटकर ले चला। किवाड़ खोलकर वह गली में उतरा और रोशन राय मरने के बाद भी घिसटते रहे।
जब वह शमशेर सिंह के घर पहुँचा, तब वहाँ सब सो रहे थे। उसने दहाड़कर सबको जगाया और जब कुछ रोशनी के साथ सब लोग अपने-अपने घरों से बाहर आए तो उन्होंने देखा कि राजेश, रोशन राय की दोनों हथेलियों पर शमशेर सिंह के घर के बड़े दरवाज़े के ऊपर कीलें ठोक रहा है और इस तरह उसने उन्हें ईसा मसीह की तरह लटका दिया है। साथ ही वह किसी अनजान भाषा में कोई बेहद गुस्सैल गीत गा रहा था। शमशेर और उसकी पत्नी घर के अन्दर जमे रहे और बाकी लोग अपनी दहलीजों पर। वह लाश को लटकाकर गाँव के बड़े तालाब पर गया और उसमें कूद गया।
उस तालाब में डूबा नहीं जा सकता था। जब वह उसमें से निकलकर अपने घर पहुँचा तो वहाँ वैसा ही माहौल था- बेहोश माँ, कमरे में गीता और सब कुछ भूलकर बच्चा हो गए पिता। वे राजेश को देखते ही ज़िद करने लगे कि उन्हें बहुत तेज भूख लगी है और खीर के सिवा वे कुछ और नहीं खाएँगे। उन्हें अनदेखा करते हुए राजेश ने मोमबत्ती जलाई, एक थैले में दो जोड़ी कपड़े बाँधे, कुछ अख़बार और किताबें डालीं और हमेशा के लिए चला गया।
वह क्रांति के लिए निकला था। हिसार में वह ‘दैनिक समाज की आवाज़’ के दफ़्तर में पहुँचा। वह अख़बार के संपादक-प्रकाशक का घर था। उसने उसे चाय पिलाई। राजेश ने कहा कि वह उसके अख़बार के साथ जुड़कर समाज का भेदभाव ख़त्म करना चाहता है। संपादक ने कहा कि अभी कोई वैकेंसी नहीं है। वह महीने-दो महीने बस रहने-खाने पर भी काम करने को तैयार था, लेकिन फिर संपादक उठकर अन्दर चला गया और राजेश को बाहर निकलना पड़ा। उसके बाद उसने कुछ दिन एक विदेशी बैंक की शाखा में चौकीदारी की, जो सर उठाकर जीने की नसीहत वाला विज्ञापन देता था, फिर अंडे बेचे, बीच में एक प्राइवेट स्कूल की मालकिन के साथ सोया, जिसका पति बम्बई में कपड़े का व्यापार करता था, जिसके शरीर से मालदाह आम की ख़ुशबू आती थी और जो कभी-कभी दो-तीन सौ रुपए दे देती थी। वह एक मज़दूर संगठन से भी जुड़ा, जिसका सदस्यता शुल्क इक्यावन रुपए था। उस संगठन की हर इतवार को बैठक होती थी। उसमें ऐसे लोग आकर भाषण देते थे, जिन्हें देखकर राजेश को लगता था कि पढ़ना-लिखना बेकार है। राजेश ने उस स्कूल मालकिन से कहा कि वह उसे कुछ और काम भी दिलबाए। वह उसे बाँटना तो नहीं चाहती थी लेकिन उसने अपने कलेजे पर पत्थर रखके उसे अपनी दो अधेड़ भाभियों से मिलवाया। उन दिनों वह ताले-चाबी की एक फ़ैक्ट्री में काम करता था। तभी सरकार ने उनके श्रमिक संगठन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कुछ नेता धरे गए और कुछ गायब हो गए। उन पढ़े-लिखे लोगों ने अख़बार में सरकार की मज़दूर-समर्थक नीतियों के बारे में लम्बे बयान दिए और रिटायर होने तक प्रोफ़ेसरी करते रहे।
इसके बाद राजेश को इस कहानी में रखने का कोई ख़ास औचित्य नहीं रह जाता। लेकिन यदि आप उत्सुकतावश उसका भविष्य जानना ही चाहते हैं तो बता देता हूँ कि रोशन राय की हत्या के मामले में उसे पुलिस ने कभी नहीं ढूँढ़ा। आठ साल बाद एक सरकारी अस्पताल के मुर्दाघर के बाहर वह एड्स से मरा।
रोशन राय की मौत वाली उस रात राजेश के जाने के बाद भी उसके पिता बच्चे ही रहे थे। वे राजेश के पीछे भी दौड़े थे क्योंकि वही इकलौता चलता-फिरता आदमी उन्हें दीख रहा था। फिर उन्होंने रोते हुए अपनी पत्नी को हिलाया-डुलाया। उन्हें एक बार होश आया और उन्होंने अपने पति को ‘भूख लगी, भूख लगी’ कहकर बिलखते देखा तो फिर बेहोश हो गईं। फिर वे हिम्मत करके उठे और अँधेरे में लेटी गीता के पास तक गए।
- गीता भूख लगी है – उन्होंने तुतलाते हुए कहा और उसकी गोद में लेटने की इच्छा भी ज़ाहिर की। वह बैठ गई और वे उसकी गोद में सिर रखकर भूख भूल गए। कुछ देर बाद वे वहाँ लेटे-लेटे ही मरे। लेकिन पुलिस ने जब आग से जलकर मरे लोगों की गिनती की तो एक नाम उनका भी लिखा। बाप-बेटी की लाश को उसी मुद्रा में उठाकर ले जाया गया।
यह हमला पौरुष का प्रदर्शन करने के लिए था जिसे शमशेर और उसके साथ आए बहत्तर मर्द अपनी विजेता जाति के भविष्य के इतिहास में शामिल करवाने की सोच रहे थे।
- कब्रें खोद देंगे एक-एक की उनके ही घर में...
रोशन राय के लटकाए जाने के एक घंटे बाद शमशेर सिंह ने यह ऐलान किया था और तेरह से साठ साल की उम्र तक के उन मर्दों ने सोचा था कि मज़ा आएगा। इतने उल्लास का माहौल हो गया था कि शमशेर का अठारह साल का एक भतीजा छत से ही कूद गया और टाँगें तुड़वा बैठा। कई लड़के इस उत्साह में थे कि वहाँ वे खुलेआम उन लड़कियों को भोग पाएँगे जो उन्हें सपनों में पागल करती थीं। उन्होंने ऐसा किया भी।
उन मर्दों का रंग गोरा था, वे हट्टे कट्टे और लम्बे थे। वे अपने आर्य-रक्त पर इतना गर्व करते थे कि उन्हें स्कूल-कॉलेजों में पढ़ना, बसों और सिनेमाहॉलों में टिकट लेना और अपनी बहनों का प्रेम करना बुरा लगता था। इतना कि निर्मम सजाएँ देने के लिए उनकी पंचायतें हर महीने नए तरीके ईज़ाद करती थीं। जैसे घर से भागकर शादी करने वाली एक लड़की को उसके पति के साथ खेत में लिटाकर उनके ऊपर से ट्रैक्टर चला दिया गया था। लड़की गर्भवती भी थी। ऐसे ही एक पति को गाँव के सबसे ऊँचे मकान की छत पर ले जाकर बारी-बारी से उसकी दोनों टाँगें काट दी गई थीं। परम्पराओं को बचाए रखने के लिए यह ज़रूरी था।
जब वे चमारों वाली गली में पहुँचे तो उनके पास ब्लेड से लेकर बंदूक तक हर तरह के हथियार थे। गली में बस छब्बीस सत्ताईस घर थे। वे दो-दो, तीन-तीन के समूहों में घरों में घुस गए। जो लड़के राजेश के घर से लौटे थे, अब तक जाग रहे थे। सबसे पहले वे ही कटे। जवान लड़कियों के घरवालों को ज़्यादा बेरहमी से काटा गया, ताकि लड़कियों के मन में डर बिठाया जा सके और फिर उनके साथ जो वे करना चाहें, लड़कियाँ आगे बढ़कर उससे ज़्यादा करने को तैयार हों।
इसीलिए उन्होंने लीपू की बेटी, जो गाँव की सबसे सुन्दर लड़की थी और बकौल शमशेर- सबसे ताज़ी, के सामने लीपू को नंगा किया और बाँधकर, छुरी से उसकी उंगलियाँ और फिर बाकी अंग काटे। भीखाराम से कहा गया कि अगर उसे अपने परिवार की जान बचानी है तो अपनी बहन के कपड़े उतारकर उसे उनकी गोद में बिठाए।
यदि उसके बाद हत्याएँ नहीं हुई होतीं तो नंगा होना उस रात की सबसे आम घटना होती। भीखाराम ने सब कुछ किया लेकिन उसके घर में घुसे तीनों लड़के इस बात पर नाराज़ थे कि वह और उसकी बहन उस दौरान बिल्लियों की तरह रो क्यों रहे थे। उन्होंने भीखाराम से कहा कि तूने हमारा मूड खराब कर दिया है इसलिए तुझे अपना बच्चा खोना पड़ेगा। छ: महीने के गोपाल को उछालकर बाहर गली में फेंक दिया गया। फिर घर के सब लोग रोने-पीटने और इधर-उधर भागने लगे। लड़कों ने बाद में आपस में कहा कि गोली मारना ही मज़बूरी थी। वह इकलौता परिवार था, जिसे गोली खाकर मरने का सौभाग्य मिला।
गीता और उसके पिता जिस कमरे में सो गए थे, वहाँ आदमियों से पहले आग पहुँची और गीता बलात्कार से इसीलिए बच गई। आग लगाने की योजना तो नहीं थी, लेकिन एक लड़के ने कुछ नया करने की कोशिश में एक बुढ़िया पर, जो गठिया की वज़ह से उठ नहीं सकती थी, तेल छिड़क कर आग लगा दी। वह आग उसके घर में फैल गई और फिर पूरी गली में।
कोई नहीं बचा, उन तीनों लड़कों के सिवा, जिनकी प्रेमिकाएँ उन घरों की थीं, जहाँ से वे हत्यारे आए थे। संयोगवश वे तब अपनी प्रेमिकाओं के घरों के किसी कमरे, किसी छत या किसी बाड़े में उनके साथ थे। शोर सुनकर उन्हें लगा कि उनके वहाँ होने का किसी को पता चल गया है। उन तीनों जोड़ों को एक-दूसरे के बारे में भी कुछ नहीं पता था। उन्हें लगा कि उनकी मौत की घड़ी आ गई है और उन सबने भगवान से विनती की – उनकी प्रेमिकाओं ने थोड़ी ज़्यादा – कि वह कुछ भी करके उन दोनों को बचा ले। भगवान ने सुनी।
जब वह उन्मादी झुंड दूर जाने लगा तो उनकी साँस में साँस आई। वे तीनों लड़के छिप गए थे और तीनों लड़कियाँ अपने घरों के आँगनों या बरामदों में इकट्ठा हुई औरतों से पूछने गई थीं कि माज़रा क्या है। जब तक वे किसी तरह लौटकर अपने छिपे हुए प्रेमियों तक आईं, तब तक वे सब अपने घरों से उठती आग की लपटें देख चुके थे।
‘सब कुछ ख़त्म होने वाला है’ – ऐसे ही अर्थ वाले कथन तीनों लड़कियों ने लौटकर कहे। उनमें से दो को अपनी जान की चिंता सताने लगी और उन्होंने अपने प्रेमियों से कहा कि अब वे उन्हें नहीं पहचानतीं। वे लड़के रो दिए, इतना ज़ोर से कि उन घरों में मौज़ूद सब औरतें उनके छिपने की ज़गहों तक आ पहुँचीं। उन औरतों ने उन्हें पानी पिलाया, कुछ पैसे दिए और भागने के रास्ते सुझाए।
वैसे, यदि तब उन्हें पता होता कि ये लड़के बवाल पैदा करेंगे और तब नहीं तो दो दिन बाद के देशव्यापी हो-हल्ले के बाद उनके पतियों और बेटों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज़ होंगे तो वे शायद मिलकर उन लड़कों को तब तक के लिए कमरों में बाँधे रखतीं, जब तक उनके सिपाही नहीं लौटते। लेकिन वे स्बभाव से भोली और नर्म थीं और इस स्वभाव पर उनमें से अधिकांश बाद में पछताईं भी। जो भी हो, गाँव की किसी स्त्री ने भागे हुए लड़कों का रहस्य किसी पुरुष को कभी नहीं बताया।
भागा हुआ पहला लड़का अगली ही सुबह आठ बजे हिसार के एक व्यस्त चौराहे पर एक टाटा सूमो के नीचे आकर मर गया। उसकी प्रेमिका ने पूरे दो महीने तक फ़ोन का इंतज़ार किया। अपने ऊपर चल रहे मुकदमे, मानवाधिकार आयोग के दौरों और मीडिया की वीभत्स रिपोर्टिंग के बावज़ूद उसी दौरान उस लड़की के पिता ने तय किया कि ज़िन्दगी नहीं रोकी जानी चाहिए। उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता गुड़गाँव के अचानक अमीर हुए एक किसान के बेटे से कर दिया। उसी के छोटे भाई ने अपनी माँ के हाथ से फ़ोटो छीनकर उस लड़की की फ़ोटो में दूसरे भागे हुए लड़के की प्रेमिका को देखा और शरमाया। दोनों भाइयों की शादी एक ही दिन हुई। संयोगवश उसी दिन दूसरे भागे हुए लड़के ने चंडीगढ़ हाईकोर्ट के सामने पहुँचकर ख़ुद को आग लगाई और टीवी पर आया। कुछ ज्योतिषियों ने बताया कि उसकी मृत्यु दो महीने पहले अपने पूरे परिवार के साथ ही लिखी थी लेकिन वह इतने महीनों से उससे भाग रहा था। मौत की तारीख़ तो उसने बदल ली लेकिन तरीका नहीं बदल पाया। वह एक ख़त भी लिखकर लाया था, लेकिन जलने से पहले उसे किसी को देना भूल गया था। तब तक पूरे मामले में नौ गिरफ़्तारियाँ हुई थीं (हालाँकि कोई आरोपी सोलह दिन से ज़्यादा जेल में नहीं रहा)। पुलिस का कहना था कि यह किसी छोटी लापरवाही से हुई बड़ी दुर्घटना लगती है जिसमें संयोगवश एक ही गली में रहने वाले 109 लोग मारे गए। यह भी संयोग ही था कि सब मृतक दलित थे। पुलिस का यह भी कहना था कि यदि यह सामूहिक नरसंहार का मामला होता, जैसा मीडिया बता रहा है तो जलने से पहले की तोड़फोड़ या हिंसा के भी सबूत मिलते। उनके अनुसार ज़्यादातर लोग कमरों में सोते ही रह गए थे और उसी मुद्रा में उनकी लाशें मिली थीं। साथ ही उससे पहले गाँव में किसी तरह के जातिगत तनाव की शिकायतें भी कभी नहीं आई थीं। इसीलिए यह आशंका भी जताई जा रही थी कि भागे हुए तीनों लड़कों ने मिलकर ही अपनी गली के सब घरों में आग लगाई है। इस शक़ के पीछे पुलिस ने यह वज़ह बताई कि वे तीनों लड़के पुलिस के पास न आकर ‘दैनिक समाज की आवाज़’ अख़बार के संपादक के पास क्यों गए और फिर लापता ही क्यों हो गए? उस अख़बार वाले को एक ऐसा समाचार मिला जो उसकी महत्वाकांक्षाओं से कई गुना बड़ा था और उसने बिना किसी सबूत के उसे छाप दिया। उसके ख़िलाफ़ भी केस दर्ज किया गया था और उससे उन लड़कों को पुलिस के सामने हाज़िर करने को कहा गया था। सुनवाई के कई महीनों के बाद, जिनमें उसने पाँच रातें हवालात में भी गुज़ारीं, जाने क्या क्या सहते हुए, एक सोमवार रात अख़बार के छपाई में जाने से तुरंत पहले वह पंखे पर लटक गया।
तीसरे लड़के की तीन महीने बाद एक बार अपनी प्रेमिका से फ़ोन पर बात हो पाई। बहुत रोने के बाद उस लड़की ने अपने प्रेमी को अपनी जान की कसम देकर कहा कि इतनी जानें तो चली ही गई हैं, अब वह चाहे तो उसके भाई, पिता और बाकी लोगों की जानें बच सकती हैं। वह बस यह बयान दे दे कि उस रात वह वहीं था और आग दुर्घटनावश लगी थी। फिर वह और रोई और मोबाइल पर आँसू गिरने से वह बन्द हो गया।
वह लड़का किसी न्यूज चैनल में अपनी बात कहने के लिए दिल्ली पहुँचा और उसी रात नोएडा की सड़क पर एक लाल रंग की इंडिका में आए अज्ञात लोगों ने उसे गोली मार दी।
अगला और अंतिम भाग- कुछ एसएमएस और हिसार में प्यार की हत्या!
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जो दिल में आए, कहें।
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