चालीस

यह कहानी आज के दैनिक भास्कर में छपी है। Photo: Rodrigo Prieto- Sean Penn in '21 grams'

मुझे बाहर का कमरा दिया गया था। यूँ तो वह बैठक थी लेकिन रात में मेरा कमरा ही हो जाती थी। सोफ़े को एक तरफ़ खिसकाकर एक फोल्डिंग डाल दिया जाता था। जो रजाई मुझे मिलती थी, उसका कवर गुलाबी रंग का था लेकिन उसके भीतर से बीच-बीच में से थोड़ी रुई निकली रहती थी। मैं लाइट ऑफ किए बिना उसे ओढ़कर लेट जाता और फिर रोशनी के हिस्सों से पता लगाता कि रात को कहाँ कहाँ से ज़्यादा ठंड आएगी। सुबह मुझे थोड़ा जल्दी उठना होता था क्योंकि सूरज उगने से पहले वे शायद उसे फिर से बैठक बनाना चाहते थे। ऐसा उन्होंने कभी कहा नहीं था लेकिन साढ़े पाँच बजे राकेश मुझे जगाकर पूछता था कि क्या मैं चाय पियूँगा। मैं तुरंत जग जाया करता था। मैं बाहर के बाथरूम में जाता। घर के सब लोगों के लिए अन्दर कहीं बाथरूम था जिसे मैंने कभी देखा नहीं था। मुझे लगता था कि अरविन्द और उसके बीवी-बच्चे आते होंगे तो वे अन्दर का बाथरूम ही इस्तेमाल करते होंगे। वन्दना हमारे साथ चाय नहीं पीती थी। मुझे याद नहीं आता था कि पिछले ग्यारह-बारह सालों में मेरे किसी दोस्त की पत्नी ने चाय-खाना पूछने और इसी तरह की सलाद-छोले की बातों के अलावा मुझसे कोई बात की हो। मेरे सब दोस्त हर साल मोटे होते जा रहे थे, उनके बच्चे मुझे किसी असामान्य मेहमान की तरह देखते थे और यह पूछने पर कि वे किस क्लास में आ गए हैं, बस एक शब्द में ही आठ या नौ बोल देते थे।

इस बार मैं तीन दिन के लिए उसके घर में था। यह मैं आते ही बता दिया करता था कि मैं कब तक रुकूँगा क्योंकि मैं किसी दोस्त के माथे पर आई उन सलवटों का सामना नहीं कर पाता था जिनमें वह मेरे काम और मेरी सेहत के बारे में सिर्फ़ इसीलिए बार-बार पूछ रहा होता ताकि मेरे जाने की तारीख़ पता चल सके। मैं अपने शहर से निकलता था तो बच्चों के से उत्साह में होता था। जैसे वे सब मुझसे कॉलेज के दिनों की तरह ही मिलेंगे, जैसे हम देर रात तक साथ बैठकर सुन्दर लड़कियों के शरीर की ज़रूरी ख़ासियतों के बारे में बातें करेंगे, जैसे मैं उन्हें अपने अकेलेपन के बारे में बताऊँगा और यह विश्वास दिला सकूँगा कि ऐसा सिर्फ़ मेरी मर्ज़ी की वज़ह से है, मेरे शरीर की किसी कमी या इस वज़ह से नहीं कि मुझे किसी औरत ने कभी पसन्द नहीं किया। लेकिन वे इन बातों को टालते रहते थे। वे खाना खाने के बाद कम से कम एक घंटा तो मेरे पास उन कमरों में बैठते ही थे, जो अक्सर उनके घरों के सबसे बाहर के कमरे हुआ करते थे और जहाँ से घर के भीतर की तरफ़ कोई खिड़की नहीं खुलती थी। लेकिन उस एक-डेढ़ घंटे में भी वे अख़बार लेकर ज़रूर बैठते थे ताकि किसी लम्बी चुप्पी को घोटाले की किसी ख़बर से तोड़ा जा सके।

ऐसा अचानक नहीं हुआ था। उनमें से अधिकांश की शादियों में मैं दूल्हे का सबसे चहकने वाला दोस्त रहा था। हर बार उन शादियों में मौज़ूद कम से कम तीन-चार अच्छी लड़कियाँ मुझे संभावना की तरह देखती थीं। तब मेरे दोस्त मुझे जल्दी-जल्दी फ़ोन करते थे, खाने पर उनकी पत्नियाँ मुझे अपनी बहनों या सहेलियों के नामों से छेड़ती थीं। लेकिन फिर जैसे जैसे मेरे कुँवारेपन का एक-एक साल बीतता गया और मेरी तरफ़ वाले दोस्त कम होते-होते सिफ़र हो गए, तब मैं अचानक पाने लगा कि किसी पार्टी में अगर दुर्घटनावश किसी दोस्त को बुलाना कोई भूलता है, तो वह मेरा नाम ही होता है। मैं ख़ुद बहुत अच्छा खाना बनाता था लेकिन फिर भी मुझे किसी के साथ ही खाना अच्छा लगता था। मुझे इस तरह अच्छा लगने के मौक़े धीरे-धीरे कम मिलने लगे। मैं अपने काम में भी औसत होता गया। मेरा बॉस मुझसे न ख़ुश होता था, न नाराज़। ऑफ़िस में मुझसे न कोई साथी कर्मचारी मज़ाक करता था, न कभी किसी ग़लती पर मुझसे कोई माफ़ी माँगता था। बहुत चाहने के बाद भी मुझे कभी किसी को किसी तरह की पार्टी देने का बहाना नहीं मिलता था और मेरे माता-पिता का बस चलता तो वे मुझे पत्थर मानकर किसी बियाबान में ही फेंक आते। उनके पास भी मेरा जाना, जो मुझे लगता था कि उस उत्सवप्रिय घर में अपशकुन की तरह है, कम होता गया था। मैं इस तरह नामालूम सा रहने लगा कि किसी फ़िल्म के रिलीज़ होने के महीनों बाद मैं किसी से उसे देखने चलने के बारे में पूछता, तब मुझे पता चलता कि वह तो इतना पहले फ्लॉप भी हो चुकी है। तीस पार होने के बाद मैं अपने घर को साफ़-सुन्दर रखने के प्रति भी बेपरवाह होता गया था। मुझे अपने घर की हर दीवार पर लगे एक-एक जाले का विवरण याद था। महीनों बाद किसी भी वज़ह से जाले अपनी ज़गह बदलते थे तो मुझे दुख होता था। मेरी सुबह की चाय कब की छूट चुकी थी। मैं जब शाम को टिफ़िन लेकर सीढ़ियाँ चढ़ रहा होता था तो मेरा मन होता था कि काश, इस टिफ़िन में बम होता जिसे मैं अपने दरवाज़े पर रखकर लौट जाता। किसी बातचीत में मेरे दोस्त मेरे घर को कमरा कहकर ही संबोधित करते थे। कोई जानबूझकर ऐसा नहीं करता था।

इस बार राकेश के घर में मेरी यह दूसरी सुबह थी। मुझे दो रातें और इस शहर में बितानी थीं और तीसरी सुबह लौट जाना था। राकेश और वन्दना के दो बच्चे थे- दसवीं में पढ़ने वाली निशिता और छठी में पढ़ने वाला निशीथ। वन्दना की नौकरी सरकारी थी और राकेश एक प्राइवेट कम्पनी का एरिया सेल्स मैनेजर था। वह वैसी ही सुबहों में से एक थी, जिनमें मैं चाय पीने और जल्दी नहाने के बाद अपने हिस्से की खिड़की से अपने हिस्से के सूरज के निकलने का इंतज़ार करता रहता था। मेरे फ़ोल्डिंग उस समय तक मेरा साथ नहीं दे पाते थे। मैं अपना अंडरवियर राकेश की तरह बाथरूम में पड़े नहीं छोड़ सकता था, न ही उसे झंडे की तरह उन सबके कपड़ों के बीच शान से सुखा सकता था। मुझे उसे अपने आसपास किसी कोने में, किसी कुर्सी पर अवैध हथियार की तरह छिपाना होता था। मैं उसी कुर्सी पर उसकी निगरानी करता हुआ सा बैठा था और जैसा कि आप जानते हैं, अपना सूरज, खिड़की, हिस्सा इत्यादि। राकेश और वन्दना एक साथ ही निकले। वे बिना नाश्ता किए निकलते थे और ऐसे में यह तौहीन की बात नहीं थी कि मुझसे भी नाश्ते के लिए नहीं पूछते थे। राकेश ने मुझे कहीं छोड़ना चाहा लेकिन मुझे जिससे मिलना था, उसका फ़ोन आ गया था कि इस बार वह नहीं मिल पाएगा। निशीथ भी उनके साथ ही गया। निशिता की उस दिन से प्रिप्रेशनल लीव शुरू हो रही थीं। उसकी कोई सहेली उसके साथ पढ़ने के लिए आने वाली थी। कुछ देर पहले मैंने वन्दना को उसे पढ़ते रहने की कड़े शब्दों में हिदायत देते सुना था। फिर उसने कुछ धीरे से कहा था जिसे मैं सुन नहीं पाया था। फिर वे तीनों मुझे कुर्सी की तरह छोड़कर चले गए थे। सूरज निकल चुका था और मैंने देखा कि उनके घर की दीवारों पर जाले नहीं हैं। उनके सोफ़े के सफेद कवर ज़रा भी मैले नहीं थे। अन्दर से गाने चलने की आवाज़ आई। शायद निशिता ने टीवी चला लिया था। मैं जैसे बच्चा था कि मेरा मन किया कि टीवी देखूँ। जैसे टीवी देख पाना ही दुनिया का सबसे बड़ा सौभाग्य है। मैंने चप्पलें पहनीं और धीमे कदमों से पहली बार उस कमरे से अन्दर के उनके घर में दाख़िल हुआ। कमरा एक हॉल में खुलता था और सामने ही दो और कमरे थे, जिनमें से एक में वह बेपरवाह सी बेड पर औंधी लेटी हुई थी। उसके सामने टीवी चल रहा था, उसके हाथ में रिमोट था, उसने शॉर्ट्स और एक स्लेटी टीशर्ट पहन रखी थी। करीना कपूर का कोई गाना था, जिसमें वह इतनी खोई हुई थी कि जब मैं बिस्तर पर उसकी बगल में बैठ गया, तभी उसे मेरे आने का पता चला। वह हड़बड़ा सा गई। वह तुरंत उठकर थोड़ा दूर हटकर बैठ गई। मैं मुस्कुराया, वह नहीं मुस्कुराई। उसने वहाँ पड़ी गुलाबी सी चादर अपने पैरों पर डाल ली। मैं टीवी की ओर देखने लगा। वह भी, लेकिन पहले जितनी बेपरवाही से नहीं। मैंने उससे पूछा कि उसके पेपर कितनी तारीख़ से हैं? उसने एक शब्द में कहा- बारह। कुछ और पूछने को नहीं था तो मैंने पूछ लिया कि उसकी सहेली कब आएगी? वह चौंक सा गई और कुछ न बोलकर फिर से टीवी की तरफ़ देखने लगी। मैं शर्ट और पाजामे में था। वह एक नई दुनिया में जी रही थी जिसे मैं जानता नहीं था। मैंने अनजाने में ही अपने घुटनों के ज़रा ऊपर खुजाना शुरू किया तो उसने एक सेकंड को तिरछी निगाहों से मेरे हाथ की हरकत देखी। मैं रुक गया। उसने टीवी वन्द कर दिया जबकि मुझे लग रहा था कि मैं किसी के साथ बैठकर दस मिनट भी टीवी देख लूँ तो दस और साल जी पाऊँगा। वह उठकर मेज की ओर बढ़ी जहाँ उसकी किताबें रखी थीं।

- निशिता.. - मैंने जाने किस ढंग से कहा कि उसकी गति बढ़ गई – दो-चार मिनट बातें करते हैं।

वह कुछ नहीं बोली और अपनी दो किताबें उठाकर बाहर को चलने लगीं। आप जानते ही हैं कि मैं क़रीब चालीस का था, लेकिन एक उम्र के बाद आदमी की अपनी नज़रों में कभी उम्र नहीं बढ़ती। वह हमेशा शीशा लेकर नहीं बैठता कि किशोरों की तरह की हरक़त करने से अपने आपको रोक सके। वह मेरे पास से गुज़रने लगी तो मैंने ज़िद के अन्दाज़ में उसका हाथ पकड़ लिया। लेकिन हाथ पर अन्दाज़ लिखा नहीं आता। स्पर्श मासूम है, यह छूने वाला नहीं, वह तय करता है जिसे छुआ जाता है। वह डर सा गई और उसने हाथ छुड़ाना चाहा। मुझे लगा कि मेरी बेटी होती तो उस जितनी या उससे थोड़ी ही छोटी होती। मैं उसे भी इसी तरह परेशान करता। मैं मुस्कुराता रहा और मैंने उसका हाथ पकड़े रखा। अगले ही क्षण वह ज़ोर से चिल्लाई- मम्मी या बचाओ जैसा कोई शब्द- और उसने दूसरे हाथ से मुझे ज़ोर से थप्पड़ मारा। मुझसे हाथ छूट गया। वह बाहर की ओर भागी। भागते हुए उसने अपने शॉर्ट्स की जेब से मोबाइल निकालकर शायद स्पीड-डायलिंग वाला कोई नम्बर मिलाया। मैं वहीं से देखता रहा कि वह दौड़ती हुई बाहर का दरवाज़ा खोलकर नंगे पाँव ही सड़क पर पहुँच गई है और गुज़रती हुई एक औरत को रोककर अन्दर की ओर इशारा करते हुए कुछ बता रही है। मैं रोया नहीं।



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12 पाठकों का कहना है :

संध्या आर्य said...
This comment has been removed by the author.
संध्या आर्य said...

वक्त के आइने में
हर उम्र का चेहरा
अलग-अलग सा है!!

Anonymous said...

इसमें पढ़ने लायक क्या है...

राहुल पाठक said...

kya kahani likhi hai.........
dil khus kar diya SOLANKI? bahi....

@Anonymous : bhiyaaa...itni buddhi bhgvan ne tumhe nahi bakshi hai...kripya dimag na lgao ..ghutne dard karne lagenge

Stuti Pandey said...

सुन्दर कहानी, पढते पढते जैसे उस कमरे में पहुँच गयी थी मैं!

प्रवीण पाण्डेय said...

ऐसी कहानी पहली बार ही पढ़ रहा हूँ, ऐसी भी विचारग्रंथियों को सम्हाले कोई इतना जी सकता है?

Jagdish Goyal said...

kahani yatharth se bhi jyada jeevant hai..ek aisa yatharth jisme parikalpana ka sarvatha abhav pratit ho..aap hanya ho gaurav....aap esh ke gaurav ho

Neeraj said...

I should get married

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

aapkee yah post / kahani - kal .. www.charchamanch.uchcharan,com me hogi.. aapka aabhar.. sundar post

सहज समाधि आश्रम said...

भावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज ।
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
हिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद ।
धन्यवाद....
satguru-satykikhoj.blogspot.com

alok dixit said...

Very nice Gaurav ji

I am fan of ur writing style. Keep posting up newer stories.

Regards
Alok

AAPNI BHASHA - AAPNI BAAT said...

आपकी कहानियाँ मर्म को छूती हैं..मैं (सत्यनारायण सोनी) रामस्वरूप जी किसान को पढ़कर सुनाता हूँ... यह कहानी भी हम दोनों पहले पढ़ चुके हैं..आज ब्लॉग खोलकर इस पर फिर चर्चा की...आपमें जो चिंतन है और जो कहन-कौशल है वह अन्यत्र दुर्लभ है...
कुंवारेपन की विडंबना और नई पीढ़ी के परम्परा से कटने का दर्द एक साथ व्यंजित करती है आपकी यह कहानी...
डॉ. सत्यनारायण सोनी
रामस्वरूप किसान