उसका फूल सा बच्चा और कुत्तों जैसे दिन


यह 'रमेश पेंटर और एक किलो प्यार' नामक कहानी का तीसरा और अंतिम हिस्सा है।

पहले दोनों हिस्से-
कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी

हमजोली की गोली और हलवा बनाने की विधि

शौकत ने जेल में पहली फुर्सत पाते ही जब्बार से कहा कि वह उसकी बहन से निकाह करना चाहता है. जब्बार ने फिल्मी अंदाज में उसका सिर दीवार में दे मारा. पंक्चर लगाते रहने से उसके हाथों में छेद होने लगे थे और उसकी बहन कहती थी कि किसी दिन वह टायर की तरह फटकर मरेगा.

वह मार उस दिन की पहली या आखिरी मार नहीं थी. धर्मवीर चौहान जब अपने सिपाहियों के साथ उन छप्पन मुसलमानों को पकड़कर लाया, तब उसके सीने पर बायीं तरफ हल्का सा दांतों से काटने का निशान था और उस निशान की मीठी सी टीस में वह खुद को तैमूर समझने लगा. जब शौकत शाम वाली पाली में पिट रहा था और चूंकि उसकी हथेलियों में जब्बार की तरह छोटे छोटे छेद नहीं थे, इसलिए उनमें कीलें ठोकने की कोशिश की जा रही थी, तब उसने धर्मवीर चौहान को मादरचोद कहा.

उफ! यह पुलिस का अपमान था, इसलिए सर्दियां नहीं थी, फिर भी आग जलाई गई और ईश्वर या ईंधन होता तो शौकत बच जाता. लेकिन देश कंगाल होता जा रहा था, इसलिए लकड़ियां और केरोसिन बर्बाद नहीं किया जा सकता था. पचपन मुसलमानों और अठारह पुलिसवालों ने, जो हर धर्म के थे और हर धर्म के लिए समान थे (कोई सेंसर हो तो इस पर ध्यान दे और मेरी खताओं के लिए माफी बख्शे), देखा कि शौकत को बांधकर आग में फेंक दिया गया है.

फिर भी मेरे ईश्वर, सुबूतों और गवाहों की इतनी कमी थी कि जजों के पेट बड़े होते जाते थे और वे एक दिन केस बीच में ही छोड़कर रिटायर हो जाते थे. फिर वे अपने बंगलों की घास में अपने कुत्तों के साथ लोटते और अपने पोते-पोतियों को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार सिखाते.

धर्मवीर चौहान की बेटी आहना मेरी ही क्लास में पढ़ती थी. धर्मेन्द्र की बेटी के नाम पर उसका नाम रखा गया था. धर्मवीर चौहान को धर्मेन्द्र और सनी देओल का गुस्से से दहाड़ना बहुत पसंद था. एक दिन वह मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा कि हमें कुछ करना चाहिए. मैंने पूछा- क्या?

हमारी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन हमने सोच रखा था कि हम क्या बनेंगे. वह हीरोइन बनना चाहती थी और मैं पुलिस अफसर. लेकिन वह पूरी दुनिया को अपने हीरोइन वाले एंगल से ही देखती थी, इसलिए उसने मुझसे कहा कि क्यों न हम कुछ वैसा करें, जैसा हीरो हीरोइन करते हैं.

हीरो हीरोइन आग में फँसे लोगों को बचाते थे, मीठी आवाज में अमर गाने गाते थे, खून से लथपथ होकर भी अच्छी अच्छी बातें करते थे और कभी मरते नहीं थे. मैंने पूछा कि वह इनमें से कौनसा काम करना चाहती है? उसने कहा- इश्क.

या ख़ुदा, उसने इश्क कहा तो मैं अपनी कच्ची उम्र के बावजूद अंदर तक काँप गया. मैंने कुछ सपने देखे, जिनमें वह हमारे क्लासरूम के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे मेरी गोद में सिर रखकर लेटी थी और मैं उसकी लटें सुलझाते हुए कोई अच्छा गाना गाने की तैयारी कर रहा था. एक सुनहरे एकांत में वह देर तक मेरे ऊपर लेटी रही. यह सपना नहीं था.

उन दिनों मैं हड़बड़ाया हुआ सा रहता था. कर्फ्यू कभी होता था और कभी नहीं. मैं चौबीसों घंटे स्कूल में ही रहना चाहता था. लेकिन कई बार तीन-तीन दिन तक कर्फ्यू के चलते शहर बन्द रहता था. तब मैं अपनी बालकनी में खड़ा होकर किसी दूसरे शहर में भाग जाने की बात सोचता. भागने के दृश्य में आहना मेरी उंगली पकड़कर मेरे पीछे पीछे जरूर दौड़ रही होती. उन दिनों हम नहीं जानते थे कि तोते और गौरैया इस तरह लुप्त हो जाने वाले हैं, नहीं तो मैं उन्हें भी जीभर के सपनों में देखता.

कर्फ्यू की ही एक शाम में, जब मैं, माँ और चाचा, तीनों घर में थे, धर्मवीर चौहान आया. उसने माँ से तैयार हो जाने को कहा और कहा कि वह उसे घुमाने ले जाएगा. माँ तुरंत मुस्कुराते हुए तैयार होने चल दी. चाचा किसी दूसरे कमरे से यह सब देख रहे थे. धर्मवीर चौहान ने मुझे लाड़ से पास बुलाया और एक बड़ी चॉकलेट दी. चॉकलेट पकड़ते हुए जब उसका हाथ मेरे हाथ से टकराया तो न जाने क्यों, मैं पागलों की तरह डर गया और रोने लगा. माँ तैयार होती होती ही बाहर आई, ब्लाउज और पेटीकोट में ही, और उसे देखकर मैं और जोर से रोने लगा.

यह पतन था कोई, हाँ, मैं जानता था और मुझे जबरदस्ती उसका हिस्सा बना दिया गया था. वे सब बेशर्मी से हँसते थे और मुझे डर लगता था.

इतना डर कि मैंने माँ से कहा- मैं भी आपके साथ चलूंगा. माँ ने मुझे बहुत समझाया कि वह शो के काम से बाहर जा रही है (हमारे घर में शो के काम का मतलब ऐसा काम था, जिस पर कोई सवाल नहीं पूछा जा सकता था और जिसके लिए मरते हुए आदमी को छोड़कर जाना भी ज्यादा बुरा नहीं समझा जा सकता था), लेकि मैं रोता रहा और नहीं माना.

वे पुलिस की जिप्सी में मुझे अपने साथ ले गए और फिर मुझे थाने में दो तीन सिपाहियों के पास छोड़ दिया. माँ लाल रंग की साड़ी में थी और जब वह मेरी ओर स्नेह से हाथ हिलाते हुए धर्मवीर चौहान के साथ जा रही थी, तब मुझे सच में लगा कि अब वह कभी नहीं लौटेगी.

मैं थाने में इधर-उधर मँडराने लगा. सींखचों के उस पार जो लोग थे, वे मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे मरे हुए हों. उन्हीं में जब्बार था. मैंने छेद वाली हथेलियों से उसे पहचाना. उसकी दाढ़ी जगह जगह से कटी हुई थी और वह एक आँख ही खोले हुए था. जब कोई सिपाही आसपास नहीं था, तब उसने मुझे पास बुलाया.

उसके गले से ठीक से आवाज ही नहीं निकल रही थी. उसने मेरे सामने हाथ जोड़े और कुछ कहा. तीन-चार मिनट बाद मुझे समझ में आया कि वह लिखने के लिए कागज और पेन माँग रहा है. मेरी जेब में दस का एक नोट था. पेन के लिए मुझे थोड़ा भटकना पड़ा.

फिर उसने उस नोट पर तीन-चार टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें लिखी और मुझे पकड़ा दिया. वह शायद कोई और भाषा थी, जैसे उर्दू. मैं उसे पढ़ नहीं सका. जब्बार ने फिर से मेरे आगे हाथ जोड़े और रोने लगा.

उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके घर तक यह नोट पहुँचा दूँगा?

हाँ, ज़रूर.

मैं उसका घर जानता था, लेकिन उसने फिर भी दो बार मुझे पूरा रास्ता समझाया. मुझे भगतसिंह की मूर्ति वाले चौक से सीधा निकल जाना था और फिर शिवमंदिर के साथ वाली गली में मिठाइयों की एक छोटी सी दुकान तक जाना था. वहाँ से एक संकरी गली मुड़ती थी, जिसमें मुझे नीले दरवाजे वाले घर में घुस जाना था.

उस कमरे में मौज़ूद सब लोग (क्या जेल को कमरा कहा जा सकता है?) जब्बार के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे. मैं एक साथ उम्मीद और मृत्यु, दोनों था. अब वह नोट, जो मेरे पास था, किसी भी हाथ में जा सकता था. कांस्टेबल प्रवीण कुमार, मि माधुरी या धर्मवीर चौहान के पास भी. मैं सब बातें भूलकर उसके बदले अगली सुबह किसी जनरल स्टोर से माजा की एक बोतल खरीदकर पी भी सकता था.

लेकिन जब प्रवीण कुमार ने रात ग्यारह बजे मुझे मेरे घर छोड़ा और चाचा शराब पीकर बैठे थे, उसके बाद वह रात मुझ पर बहुत भारी गुजरी. यह बताने के लिए मैं किसी परीकथा का सहारा लेना चाहता हूँ. उसे किसी और तरह बता पाना नामुमकिन ही है.

बाहर नारंगी आसमान था और धूप भी थी. इस तरह आप मुझे झूठा समझिए और खुश रहिए. इसे भी झूठ समझिए कि जब मैं बिस्तर पर औंधा लेटा था, तब मैं वहाँ नहीं, किसी और कमरे में था या किसी सुन्दर शहर के किसी चहकते हुए पार्क में या मैं उड़कर छत पर चिपक गया था और अपने आप को ऊपर से देख रहा था। कोई ऐसा नियम था, जिसमें यह मेरी गलती थी कि धरमवीर चौहान मिस माधुरी की लेता है। मैंने भी माना कि इसमें मेरी कोई न कोई गलती है। चाचा ने मुझसे पूछा और मैंने हामी भरी। उन्होंने कहा कि अब वे फिर से मुझे इस गलती की सजा देंगे और जितनी बार माँ वहाँ जाएगी, मुझे सजा मिलेगी.

मैं रोने लगा। कितना मासूम सा था मैं, गुब्बारे सा कोमल। सपने देखता था और सोचता था कि कभी पहाड़ और समुद्र देखूंगा। मुझे सजाएँ सिखाई गई और मारा गया।

संभोग कितना बदसूरत शब्द है और मैं अपने जीवन के आखिरी क्षण तक उससे घृणा करना चाहता था। मुझे दीवारों में दरारें दिखाई देती थीं और लगता था कि किसी भी पल मैं उनके साथ भरभराकर गिर जाऊँगा। जहाँ जहाँ आप मुझे मारना चाहेंगे, मैं वहाँ नहीं मिलूंगा।

लेकिन बेवकूफ! मैं तो वहाँ था ही नहीं। संसार में कितनी टॉफियाँ, गोलगप्पे और रसमलाई है। मैं किसी कस्बाई मेले में चला गया था और तरह-तरह के झूले झूलने के दौरान वह सब खा रहा था। वह सुंदर दुनिया मेरी थी और मैं उसका मालिक था। मैं जब चाहे बटन दबाकर कहीं भी जा सकता था, कुछ भी बन सकता था। इसीलिए चाचा ने जब अपनी पैंट उतारी, तब मैं छत से कुछ नीचे उतरकर पंखे की पंखुड़ी पर ही तो बैठा हुआ था। मुझमें इतनी ताकत थी कि मैं उन्हें वहीं ज़िन्दा ज़मीन के नीचे गाड़कर बाहर जा सकता था। लेकिन यह तो वहम है कि मैं वहाँ था बिस्तर पर और यदि था भी तो चूंकि उन्होंने मुझसे कहा कि यह माँ की गलती का प्रायश्चित है और मैंने नहीं किया तो माँ आज रात ही मार दी जाएगी। इसलिए जब मैं वहाँ नारंगी आसमान की उपस्थिति में अन्दर हरी चादर पर पड़ा दर्द से चिल्ला रहा था और मर जाना चाहता था, तब मुझे लगा कि मैंने शराब पी ली है या यह कोई भूतों वाला सपना है, जिसमें से मुझे जागकर बाहर निकल जाने का रास्ता खोजना है।

इस बार ज्यादा निर्मम था।

मेरा फूल सा बच्चा- माँ अक्सर कहती थी।

अगले दो दिन कुत्तों जैसे बीते। मैं बटन दबाता था और दुनिया नहीं बदलती थी। माँ नहीं आई और मुझे कभी थोड़ा, कभी ज्यादा दर्द होता रहा। थोड़ा खून भी आया। नौकरानी आई और उसने पूछा कि क्या मुझे बुखार है? मैंने उसे गाली दी। उसने प्यार से मेरे लिए आलू के परांठे बनाए और मैंने प्लेट फेंककर मारी। उसने मुझे पुचकारा और मैंने उसके हाथ पर काट लिया।

तीन घंटे बाद वह जाने लगी तो मैंने पूछा- वह कहाँ है?

- कौन?

- माधुरी...

- तेरी मम्मी है बेटा।

मैंने पास रखा कप उठाकर उसकी ओर फेंका। वह झुक गई और बाल बाल बची। फिर वह भाग गई और अगले दिन नहीं आई। काश! अगला दिन भी न आता, मगर वह बेशर्म आया। मेरा जी हुआ कि किसी की हत्या कर दूं। उस रात के बाद से मैं रो भी नहीं पा रहा था। चाचा उस रात के बाद बाहर ही रहे, यहाँ तक कि अगली रात में भी। जब अँधेरा घिरा तो धरती घूमने लगी। मेरे अन्दर से हूक सी उठी और मैं बेहोश हो गया। जब मैं उठा तो दस बजकर दस मिनट हुए थे। पाँच कमरों वाले उस वहशी घर में मैं अकेला था। मुझे तेज भूख लगी थी और कुछ मिनट के लिए मुझे लगा कि अब दुनिया कुछ बेहतर है। मुझे लगा कि मैं भूल गया हूँ और अब जिया जा सकेगा।

वह जो रसोईघर था, जिसके वास्तुशास्त्र में मेरी जन्मकुंडली जितनी ही खामियाँ रही होंगी, उसकी टोंटी से जब मैं गिलास में पानी भर रहा था, तब मुझे अपने पिता की याद आई।

वे मुझे दो-तीन साल बाद याद आए थे। उनका जो चेहरा मेरे दिमाग में था, वह दुनिया का सबसे मासूम चेहरा था। वे इतने भोले थे कि जब उनकी हत्या हुई, वे सोच रहे थे कि चाचा उनके गले लगने आ रहे हैं।

शरीफ आदमियों को सुंदर औरतों से प्यार नहीं करना चाहिए। यह उस छोटी सी मिठाई की दुकान पर लिखा था, जहाँ से मुड़कर संकरी गली में जब्बार का नीले दरवाजे वाला घर था। तीसरी सुबह सात बजे समीर मेरे घर आया था और हम दोनों बच्चे गले लगकर रोते रहे थे। वह पता नहीं, क्यों रो रहा था। फिर आधे घंटे बाद हम उठे। वह स्कूल के लिए तैयार होकर निकला था। उसने अपने बैग में से अपना लंचबॉक्स निकाला और मैंने एक परांठा खाया। मुझे लगा कि जब मैं मरूंगा, समीर बहुत रोएगा।

फिर मैंने उसे कहा था कि मुझे उसके साथ कहीं जाना है, शिवमंदिर के साथ वाली गली में। हमने तय किया कि हम आज स्कूल नहीं जाएँगे। मैंने घर में ताला लगाया और हम दोनों निकल गए।

वह नीला दरवाजा नहीं खुला। हम पीछे के छोटे दरवाजे से जब्बार के घर में गए। वहाँ कई लोग थे और वे हमें डाँटकर बाहर निकालने ही वाले थे कि मैंने जेब से पचास का नोट निकालकर उनमें से सबसे जवान दिखने वाले आदमी को दिया।

- यह किसलिए? किसका लड़का है तू?

उसके पास खड़ी बूढ़ी औरत ने मुझसे पूछा।

- जब्बार ने दिया है...

यह कहकर हम दोनों दौड़कर बाहर आ गए और तब तक दौड़ते रहे, जब तक हमारी साँस नहीं फूल गई। माँ ने मुझे सिखाया था कि मुसलमानों से बचकर रहना चाहिए।

जब तक हम भगतसिंह की मूर्ति तक पहुंचें, मुझे आपको कुछ और बातें बतानी चाहिए। आहना और मेरे पिता के बारे में। मेरे पिता का नाम रमेश कुमार था और उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा अपने गांव में गुजारा था। वहां न बिजली थी और न उससे आनी वाली सुविधाएं। इसलिए डांस देखना तो दूर की बात थी, उन्हें टीवी या फिल्म देखने की भी बिल्कुल आदत नहीं थी। इसलिए वे मां के हजारों दीवानों से अलग थे। उन्हें मां से प्यार तब हुआ, जब वे उसके घर के बाहर लगी नेमप्लेट पर उसका नाम लिख रहे थे। वे पेंटर थे। वे शहर की दीवारों पर विज्ञापन लिखते थे, सिनेमाहॉल में फिल्मों और अभिनेताओं के नाम, स्कूलों पर अलग अलग रंगों से आधुनिक सुविधाओं से युक्त सहशिक्षा विद्यालय और घरों पर उनके मालिकों के नाम। नीचे वे स्टाइल से अपने साइन करते थे और यदि उनके मेहनताने के पैसे बकाया होते तो उन्हें भी वहीं लिख देते थे। जैसे उन्होंने माधुरी के नाम वाली प्लेट पर नीचे कोने में लिखा था- पेंटर रमेश 75। इस तरह उन्हें हिसाब रजिस्टर में लिखकर नहीं रखना पड़ता था और यह लोगों की नैतिकता भी जगाता था क्योंकि इस तरह इस बात को शहर भर पढ़ सकता था कि इस आदमी ने रमेश पेंटर के इतने रुपए अभी तक नहीं चुकाए हैं। जब कोई उनके पैसे चुका देता था, तब उसी रात लिखी हुई वह संख्या गायब भी हो जाती थी।

लिखने के दौरान मां नहाने चली गई थी और इस तरह रमेश पेंटर के 75 रुपए देना भूल गई थी। लेकिन बाद के तीन दिन बहुत परेशानी में बीते क्योंकि पापा अपने गांव चले गए थे और माँ बदहवास सी होकर उन्हें ढूँढ़ती रही। उस दौरान तेरह लोगों ने माँ से पूछा कि क्या उसने रमेश पेंटर के पैसे नहीं दिए हैं।

बाद में जब छियानवे के दंगे हुए (क्या आप जानते हैं कि हमारे शहर में सालों का हिसाब इसी तरह रखा जाता है? लोग ऐसे बताते हैं कि पार्वती की बेटी तिरानवे के दंगों के आसपास हुई थी या राजकुमार ने उस साल दुकान खोली थी, जिस साल दंगे नहीं हुए थे) तो उन्होंने शादी कर ली। अठानवें के दंगों के दौरान तो मेरे पिता ने हरे और लाल झंडों पर ऐसे नारे भी लिखे थे- अबके साल की बकरीद पे, आग लगा दो मस्जिद में और एक भी हिन्दू छूट गया तो खुदा से रिश्ता टूट गया।

आहना का मुझसे पहले अमान से चक्कर था। वह उसे तोहफे देता था और एक-दो एडल्ट फिल्में भी दिखा चुका था। फिर उसे दूसरी लड़की मिल गई थी, जो थोड़ी सांवली थी मगर ज्यादा तेजी से बड़ी हो रही थी। वह खुद पैसे खर्च करती थी और जगह का इंतजाम भी। आहना अकेली थी और जब वह अपने खुश पिता को देखती थी, उसका दुख और भी बढ़ जाता था। फिर उसने माधुरी के बारे में जानना शुरू किया और वह मुझ तक पहुंची। मैं डरा हुआ था, उसने मुझमें उम्मीदें जगाईं और यूं मुझे जिन्दा रखना या मारना शुरू किया।

जब हम वापस भगतसिंह चौक पर पहुँचे, तब वहाँ से बहुत सारी लाल और नीली बत्तियों वाली गाड़ियाँ गुजर रही थी। जुलूस की आखिरी गाड़ी में से एक पुलिसिया हाथ निकला और उसने मुझे अन्दर खींच लिया। वह धर्मवीर था। समीर भौचक्का सा मुझे देखता रहा। धर्मवीर ने हाथ हिलाकर उसे बाय बाय कहा और गाड़ी चल दी। रास्ते में मुझे एक छोटी फाइवस्टार चॉकलेट दी गई और पीने के लिए पानी। मुझे जेल की याद आई और लगा कि जैसे मैं सारी उम्र अब वहीं गुजारूंगा। मैं सोचने लगा कि जेल में कौन कौनसी किताबें पढ़नी हैं और कितने बजे जगना-सोना है। रास्ते में हमारी गाड़ी जुलूस से अलग हो गई और हम एक प्राइवेट क्लीनिक के बाहर जाकर रुके। धर्मवीर उतरकर अन्दर गया और पाँच मिनट बाद माँ को लेकर बाहर आया। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह अब तक जिन्दा है। माँ साड़ी में थी और थकी-थकी सी लग रही थी। वे मुस्कुराते हुए गाड़ी में घुसे और माँ ने बैठकर मेरे गाल चूमे। मैं एक कोने में था और धर्मवीर दूसरे कोने में। आगे सिर्फ़ ड्राइवर बैठा था।

उस दोपहर मैंने जाना कि माँ दो दिन तक गायब रहे तो उसका मतलब उसका गर्भवती होना होता है। उसके पेट में मेरे जैसा एक और जीव था। धर्मवीर और माँ खुश लग रहे थे, हल्के हल्के शर्माते हुए से भी। उन्होंने बिल क्लिंटन के बारे में कोई बात की और यह भी कि अबॉर्शन कब करवाना है। ऐसे लहजे में, जैसे कह रहे हों कि टीवी कब खरीदना है या शिमला कब जाना है?

माँ बेफ़िक्र सी थी, कुल मिलाकर नहीं, बस मेरी तरफ से। उसने मुझसे नहीं पूछा कि पिछली रातें कैसे बीती थीं और मैंने कुछ खाया या नहीं? इससे ज्यादा वह नहीं सोच सकती थी मगर इतना पूछना तो उसकी आदत था ही। जब हम थाने के बाहर रुके तो वह गाड़ी में ही बैठी रही। उसने मुझसे कहा कि मैं अंकल के साथ अंदर जाऊँ। मैं डरा गया जैसे अन्दर नर्क था और माँ मेरी दुश्मन। यही सबसे भयानक था, माँ का तटस्थ और फिर दुश्मन हो जाना।

अन्दर वे सब कैदी, जो मुसलमान थे, एक कतार में खड़े थे और मुझे उसे पहचानना था, जिसने मुझे नोट दिया था। मैं शायद बता देता, लेकिन जब्बार उनमें था ही नहीं। तभी सारे सिपाहियों, थाने और शहर ने जाना कि जब्बार भाग गया है। आखिरी गिनती, जो बीस मिनट पहले हुई थी, उसमें वे पूरे पचपन थे। धर्मवीर उबल पड़ा। उसने तीन लोगों की गर्दन इस हद तक मरोड़ी कि वे बेहोश ही हो गए। माँ को बुलवाया गया। एक कमरे में अब हम तीन थे, मैं, माँ और धर्मवीर।

पहला दौर, जो प्यार से पूछने का होता है, उसकी फुर्सत उसे नहीं थी और न ही मन। उसने मुझे एक थप्पड़ मारा और पूछा कि मैंने उस नोट का क्या किया था और उसमें लिखा क्या था? मैं रोया नहीं क्योंकि मेरी माँ सामने बैठी थी और सात महीने बाद उसे प्यारा सा बच्चा होने वाला था। मैं अपने छोटे भाई या बहन को पहला इम्प्रेशन ही अपने कमजोर होने का नहीं दे सकता था। माँ ने मुझे दुलारा नहीं और वह किसी और दिशा में देखती रही, जहाँ से शोहरत आती थी और बम्बई जाने का रस्ता।

- सर... मैंने अंकल नहीं कहा - ...मैंने वह नोट तो रास्ते में ही फाड़कर फेंक दिया था...उर्दू में लिखा था उसमें कुछ।

- अब यह नया बहाना है माधुरी...

उसने गुस्से से माँ को कहा। माँ उसकी ओर देखकर ऐसे मुस्कुराई जैसे अभी चूम लेना चाहती हो।

- तू बेटा स्कूल नहीं गया आज। सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा है और मुझसे झूठ बोलने की हिम्मत भी आ गई तुझमें। - वह दहाड़ रहा था डंडा घुसेगा तो तेरा बाप भी सच बताएगा।

मैं गिड़गिड़ाया कि माँ, तुम्हारे पेट में बच्चा है, तुम यह मत सुनो, बाहर चली जाओ और जाने उसे कैसे, किस पर तरस आया कि उसने धर्मवीर से कहा- अब बस भी करो जान। सच में फेंक दिया होगा इसने।

उसने जाते-जाते मेरी पी पर कसकर एक मुक्का जड़ा और माँ उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गई।

उर्दू एक खूबसूरत भाषा है और 2002 के उन दंगों में उसने बहुत सी बाजियाँ पलटीं। क्या आपको याद है कि जब्बार ने मुझे दस रुपए का नोट दिया था और मैंने उसके घर में उस आदमी को पचास का नोट दिया था? जब्बार वाला नोट मैंने वाकई फाड़कर फेंक दिया था और फिर पचास के एक नोट पर हिन्दी में एक लाइन लिखी थी- रमेश पेंटर के भाई को मार डालो।

अपनी तमाम शहरी कृत्रिमता के बावजूद हिन्दी चारों तरफ से घेरकर मार डालती सी भाषा है जिसमें कहीं दूर भाग जाने का मन करता है। शायद इसीलिए जेल से भागकर जब्बार एक भीड़ भरी बस में बैठकर 38 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर गया। रास्ते में उसने एक जेब काटी, जिसमें साढ़े तीन सौ रुपए, ट्रेन के दो टिकट, इलायची के कुछ दाने और एक ड्राइविंग लाइसेंस था। दूसरे शहर में उसने सबसे पहले रेजर खरीदा और एक सुनसान गली की टूटी फूटी कोठरी में अपनी दाढ़ी काटी। फिर उसने एक लाल धागा खरीदकर अपनी कलाई पर बाँधा और अपने गले में हनुमानजी की तस्वीर वाला लॉकेट टाँग लिया। इसके बाद वह एक नाई की दुकान पर गया और हालांकि उसके पैर, जिनमें पिटाई का दर्द था, पूरे समय काँपते रहे और सूजी हुई एक आँख इधर-उधर खतरा तलाशती रही, फिर भी उसने बेफ़िक्र होने का दिखावा किया। उसने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा लिया। बेफ़िक्र दिखने के लिए उसने जुड़वां फिल्म का एक गाना तू मेरे दिल में बस जा, मुझको फँसा ले या फँस जा भी गुनगुनाया। नाई ने उससे बीस रुपए लिए और कहा कि उसके चेहरे पर छोटे-छोटे काले निशान हैं, इसलिए उसे फेशियल करवा लेना चाहिए। बदले में उसने नाई से पूछा कि शहर के हालात कैसे हैं? साथ ही यह भी बताया कि वह आज ही दिल्ली से आया है। नाई ने कहा कि लोग कम बाल कटवाने लगे हैं और कर्फ्यू की वजह से हफ़्ते में तीन दिन तो दुकानें बन्द ही रहती हैं।

धर्मशालाएँ बन्द रहती थीं मगर फिर भी उसने एक ढूंढ़ निकाली और उस पूरी रात बैठकर सोचता रहा कि क्या करना है। जब उसने सोच लिया तो अपने लॉकेट वाले हनुमानजी को चूमा और गहरी नींद में सो गया। जब वह जगा तो सुबह के दस बजे थे। शहर धुला हुआ सा लग रहा था। उसे अपना बचपन याद आया, जब वह एक बार अपने पिता के साथ इस शहर में आया था और उन्होंने बसंत टॉकीज में विनोद खन्ना की कोई फ़िल्म देखी थी।

मेरी माँ का मरना तय था वह सोचती थी कि सब कुछ आसानी से और उसके तरीके से होगा। उसकी सुन्दरता की इतनी प्रशंसा की जा चुकी थी कि उसे डर लगना बन्द हो गया था। आप उसे दुनिया के सबसे भयानक कब्रिस्तान में रात भर छोड़ देते तो भी वह सुबह खर्राटे लेते हुए ही मिलती। वह नास्तिक और कठोर भी होती जा रही थी। उसे लगता था कि हजार लोगों के सामने स्टेज पर नाचकर वह दुनिया की मलिका बनने जा रही है। वह उन सबकी कुंठाओं में थी और वह समझती थी कि वह उनके रुई जैसे सपनों में है। इसी गलतफहमी में उसकी मौत लिखी थी, जब वह मुझे लेकर उस रात घर आई।

चाचा ने शराब पी रखी थी औ वह किसी लड़की को लेकर आया था। वह जब बोतल खरीदकर अपनी मोटरसाइकिल की ओर बढ़ा था तो लड़की ने उससे टाइम पूछा था। हमारे शहर में इसका मतलब था- कितने पैसे देगा? पाँच बजे मतलब पाँच सौ। बेचारी शरीफ लड़कियां राह चलते वक्त भी नहीं पूछ सकती थीं।

माँ जब मेरा हाथ पकड़े अन्दर घुसी तो मैं सिहर सा गया और मैं उंगली छुड़ाकर बाहर भाग जाना चाहता था, लेकिन जीना मेरा सामने पड़ा और मैं छत पर भाग गया। तेज आवाज में नुसरत फतेह अली खान की कोई कव्वाली बज रही थी। आसमान काला ही था, जैसा उसे रात में होना चाहिए। जुगनू मर गए थे, शहर बेवकूफ था और माँ अहंकारी, जब मैंने जिन्दगी में पहली बार पूरी नंगी लड़की देखी। छत से उसका सिर और स्तन ही दिख रहे थे।

माँ चौंकना भी छोड़ चुकी थी इसलिए चौंकी नहीं। लेकिन जब वह अपने कमरे की ओर बढ़ी तो चाचा ने चिल्लाकर अपने सामने रखी बोतल उसके सिर पर दे मारी। वह चिल्लाई और अपना सिर पकड़कर बैठ गई। मैं डर गया जैसे मर ही जाना होगा। नंगी लड़की कमरे के दरवाजे पर चुपचाप बैठ गई और देखती रही। चाचा माँ को कराहते देखता रहा। माँ ने उसे कुछ गालियाँ बकी और बरामदे में इधर-उधर दौड़ी। उसे कुछ नहीं मिला और शायद वह जानती भी नहीं थी कि क्या ढूँढ़ रही है। दस मिनट इसी तरह बीते और व भागते भागते गिर पड़ी। तभी मरी या बाद में, यह मैं नहीं कह सकता।

मैं चाचा के हाथों नहीं मरना चाहता था इसलिए मैंने सोचा कि वह ऊपर आएगा तो मैं छत से कूद जाऊंगा। मैंने अपने पिता को याद किया और रो लेना चाहा, लेकिन रोना मुश्किल था। नंगी लड़की ने एक बार ऊपर मेरी ओर देखा और तब मैंने जाना कि वह वेश्या नहीं, सबीना है। सबीना और शौकत, जिनके मुस्कुराने ने दुर्भाग्यवश उस शहर के पचासों घर उजाड़ दिए थे, अच्छे दिनों में जब्बार की पंक्चर वाली दुकान के ऊपर बने दो कमरे के उस घर में मिलते थे, जहाँ शौकत अपनी बीवी के साथ रहता था। उसकी बीवी या तो बीमार रहती थी या मायके में और जब वह अदालत की अपनी असिस्टेंट वाली नौकरी से लौटता था तो जब्बार की दुकान बन्द हो चुकी होती थी। फिर वह और सबीना महकता आँचल नाम की एक कहानियों की पत्रिका पढ़ते थे, कभी-कभी अपने सीडी प्लेयर पर फिल्में देखते थे और शादी के वादे करते थे। आप शायद विश्वास न करें, लेकिन वह लड़की जो अपने शरीर से पूरी तरह बेपरवाह होकर मेरे घर में खड़ी थी, उसने शौकत को कभी अपना जिस्म छूने भी नहीं दिया था। उन दोनों ने तय किया था कि निकाह से पहले वे वैसा ही प्यार करेंगे, जैसा बच्चे उसे सोचते हैं।

वे एसएमएस करते थे और सोचते थे कि उंगलियों पर दुनिया है।

मृत्यु बाकी दुखों से अलग है। उससे जितना सतर्क रहो, उतना ही वह आपको फंसाती जाती है। चाचा यह बात नहीं जानता था। उसे होश आया और उसने फिल्मी अंदाज में माँ की लाश को ठिकाने लगाने की कोशिश की। लेकिन वह उसे तीन चार इंच से ज्यादा हिला नहीं पाया। वह वहीं माँ के सिर के पास बैठ गया और सबीना से कहा- तू कुछ बोली तो तू भी मरेगी।

फिर उसे कुछ याद आया और वह एक झटके में उठकर जीने की ओर बढ़ा। सबीना, जो अब तक चुप थी, उसने उसका रास्ता रोकक उसे अपनी बाँहों में भर लिया और उसकी गर्दन चूमने लगी। उसने एक बार और मेरी ओर देखा और मैं भला कैसे शुक्रिया कहता? मुझे इशारे नहीं आते थे, मेरी माँ वहाँ मर गई थी और मैं नहीं जानता था कि जिया तो भी क्या करूंगा?

चाचा भी उसे चूमने लगा और फिर रुककर चिल्लाया। मैं मुंडेर की ओट में हो गया और उसने जैसे कोई गाली दी। मैंने दो सेकंड बाद फिर से नीचे देखा तो वह जमीन पर उल्टा पड़ा था, उसकी कमर से खून बह रहा था और सबीना उसके शरीर पर जहाँ-तहाँ चाकू मारती जाती थी।

वह कव्वाली के साथ ही खत्म हुआ।

आहना मुझे अपनी माँ के बारे में बहुत सारी बातें बताती है। बहुत बाद के दिनों में, जब कर्फ्यू नहीं है और हमने एक-दूसरे को भोग लिया है। हाँ, मेरे साथ बहुत से डर भी हैं। जैसे जब वह मुझे छूती है तो कमरे में बिल्कुल अँधेरा होना चाहिए। हल्की सी भी रोशनी का मतलब है मेरा डर के मारे चीखने लगना और फिर फूट-फूटकर रोना। ऐसा कई अकेली रातों में भी होता है। मुझे एक सपना दिखता है जिसमें मैं अपने पिता के पीछे साइकिल पर बैठकर किसी गहरे जंगल वाले रास्ते से गुजर रहा हूं। उसके बाद हम संकरी गलियों वाले एक बदबूदार गाँव में पहुँचते हैं, जिसमें सिर्फ बूढ़े, बच्चे और औरतें हैं। उनके चेहरे ऐसे हैं, जैसे अभी आत्महत्या कर लेना चाहते हों। यह कम रोशनी वाला डरावना सपना होता है, जिसमें से बाहर आने के लिए मुझे साइकेट्रिस्ट की मदद की जरूरत होती है।

वह साइकेट्रिस्ट महंगा है, बहुत सारी अंग्रेज़ी बोलता है और खुश रहता है। मुझे चटख रंग, शादी वाली फिल्में और सांवली लड़कियां पसन्द हैं, यह जानकारी जाने उसके किस काम की होगी! आहना जब मेरे साथ होती है तो वह उसे समझाता है कि मुझे लेकर कहां कहां घूमने चली जाए। वह नहीं जानता कि पैसे न होने की वजह से किसी दिन अचानक हम उसके पास भी जाना बन्द कर देंगे और वह सोचेगा कि मैं बिल्कुल ठीक हूं।

यहां मेरे साथ बहुत सारे लोग हैं। शशांक की माँ उसे बचपन में इसलिए बहुत मारा करती थी कि उसे दही नहीं पसन्द था। एक बार उसे मारते-मारते घर का इकलौता बेलन भी टूट गया था। वह लड़कियों से डरता है और सब कुछ ठीक होते हुए भी लंगड़ाकर चलता है।

मैं कुछ भी ठीक से पकड़ नहीं पाता। हर बार मेरे हाथ काँपने लगते हैं। डॉक्टर के पास आने के बाद के कुछ हफ़्तों तक कुछ फ़ायदा होता है, लेकिन इतना नहीं कि मैं कोई आम नौकरी कर सकूं। इसीलिए मैं कहानियाँ लिखता हूँ। बल्कि मैं सिर्फ़ बोलता हूँ, आहना मेरे लिए लिखती है। इससे पैसा तो नहीं मिलता मगर अच्छा लगता है। जब हम कुछ पैसा जोड़ लेंगे तो एक कम्प्यूटर खरीदेंगे और उस पर लिखने के लिए कुछ पकड़ना नहीं होगा।

आहना अपनी माँ के बारे में बताती है, सुनीता देवी के बारे में। उन्होंने अपने घर में एक बड़ा सा पोस्टर चिपका रखा था, जिस पर मेरे पिता का वह मशहूर कथन लिखा था- जब कोई किसी से एक किलो प्यार करने लगता है, वह मर जाता है। इसका साफ-साफ मतलब किसी को नहीं मालूम था। मरने वाला वह भी हो सकता था जो प्यार करता है और वह भी जिसे प्यार किया जा रहा है। मेरी धारणा के उलट सुनीता देवी खुश रहती थीं। इतनी कि लोग उन्हें बेवकूफ़ समझने लगे थे। बस वे देर तक बाथरूम में बन्द रहती थीं और दुबली होती जाती थीं। फिर पता चला कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है। वे गुमसुम हो गईं और आहना के पिता मिस माधुरी को बेशर्मी से अपने घर लाने लगे।

- कैसी लगती थी मेरी माँ? क्या तुमने उन रातों में कभी देखा था उसे?

- सुन्दर, जैसी औरतें होती हैं...और निरीह भी।

- बुरी नहीं? कमीनी औरतों जैसी?

- बिल्कुल नहीं। मुझे उन पर तरस आता था। मेरी माँ की हालत उनसे बेहतर थी। कम से कम मेरी माँ जानती तो थी कि वह मरने वाली है।

हमारे माता-पिता मरते चले गए थे और हमारे सपनों में वे बूढ़े बनकर इकट्ठे होते जा रहे थे, उन बच्चों के साथ, जिन्हें हम कभी जन्म नहीं देंगे।

हमारे बचपन के दिनों में धर्मवीर चौहान एक दिन अच्छे मूड में था। वह अपने तीनों बच्चों के साथ घर के आगे बने बगीचे में खेल रहा था। मेरठ से उसकी बहन आई हुई थी और सुनीता के साथ रसोई में पकौड़ियाँ बना रही थी। सब कुछ पारिवारिक कहानियों की तरह था, जिन्हें आप महिला पत्रिकाओं में पढ़ते होंगे। फिर एक फल बेचने वाला आया, जिसे धर्मवीर ने बिहारी कहकर पुकारा। वह मुड़कर वापस आया और घर के अन्दर घुसा। उसने सिर पर गमछा बाँध रखा था। धर्मवीर ने कहा कि एक किलो आम तोल दो और यह ऐसे था, जैसे उसके हिस्से का प्यार एक किलो हो गया हो। (मगर उसे इतना प्यार किया किसने होगा?) फल वाले ने, जो जब्बार था, आमों के बीच में से एक पिस्टल निकाली और उसे गोली मार दी।



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4 पाठकों का कहना है :

प्रवीण पाण्डेय said...

इतना भयावह अन्त।

संध्या आर्य said...

प्रत्येक निकलते दिन कांटे से सुखते थे गुलाबी आसमान पर धंसी नजरे काली थी ........रात और दिन सब जगह एक जैसी नही होती है ......इसीलिये दुनिया के सभी शहरो मे मासूम हाथ प्रतिदिन लुट लिये जाते है .........उफ्फ्फ्फ!

Durgesh said...

loved ir literally

AAPNI BHASHA - AAPNI BAAT said...

प्रिय भाई, आज के इंसान की भौतिकवादी स्वकेंद्रित सोच को उजागर करती यह कहानी देश-दुनिया की कई समस्याओं से रू-ब-रू करवाती है... इस कठिन दौर में रिश्ते और मूल्य दरक रहे हैं, वह सब भयावह है और उसका चित्रण बखूबी इस कहानी में हुआ है....मगर कभी-कभी लगता है कि कहानीकार किसी एक संवेदन तंतु को पकड़ने की बजाय घटनाओं के घटाटोप में उलझ रहा है.. खैर..यह आपकी निजी शैली है..लगे रहिये.. जब भी कोई नई कहानी आये..लिंक भेजते रहिये..हम आपके पाठक जो हुए...
डॉ. सत्यनारायण सोनी