ईश्वर दरअसल एक औरत है

यहां कोई और बात की जानी थी
लेकिन मेरे पीछे बस दो ही लोग खड़े थे
उनमें से एक पानी पीने का कहकर गया था, नहीं लौटा, आप देख ही रहे हैं
और दूसरे को आसानी से मारा जा सकता है
वह ऐसी ही जाति का है


इसलिए यहाँ जो बेहद जरूरी बात की जानी थी
उसे सुनने के लिए
आपको किसी और की तरफ
- किसी तारे का बेटा, हो सकता है कि मरा मरा हो, न जानता हो आपकी ज़ुबान -
लेकिन उसी की तरफ आपको उम्मीद से देखना होगा
हालांकि उम्मीद एक बेशर्म शब्द है
मगर खर्च की ओर से रहिए बेफ़िक्र
मैं लौटाऊंगा आपके पैसे
या कुछ जादू हैं मेरे पास, कुछ मेलों के दृश्य,
कुछ लडकियाँ जिनका जिस्म पारदर्शी है और जो रोना नहीं जानतीं


फ़िलहाल जब वक्त है तो मैं
कौओं के बीच से आपको निकालकर
उड़ने की मुश्किलें बता सकता हूं
लेकिन आप शायद सोए हुए रंग के गुलाब पसंद करेंगे


मैं हर ओर लौट जाने की अपनी कोशिशों के बीच
आपके बीच मैदान में खड़ा मिलूंगा
समझदार कपड़े ऐसे उड़ रहे होंगे
जैसा किसी बारिश में उन्हें उड़ना चाहिए
हम उनसे हारेंगे नहीं, ऐसा ज़रूर कहेंगे
इसके बाद जपना होगा कोई मंत्र
और किसी आधी छूटी दावत से लौटने के पश्चाताप को
अब भूलना ही होगा


गिरकर जुड़ेंगे बर्तन
जिनके टूट जाने के लिए प्रार्थनाएँ की गई थीं
मैं फ़ोन पर बात करते हुए
उसमें से कहीं लौट आने के लिए भाग रहा होऊंगा
कॉल में उस समय का अँधेरा होगा
जब दिन अपनी क़ीमत लिए बिना नहीं बीतते थे
और यादों को लैम्पपोस्ट की रोशनी में पढ़ा जा सकता था
माथा झटककर नहीं हो जाएगा पश्चाताप
किसी अकेले शुक्रवार को
नाक ढाँपकर
अपने हिस्से की हवा को पैरों से नापते हुए
मैं दफ़्तरों जैसे तनाव से भरे
तुम्हारे घर पहुँचूंगा और माफ़ी माँगूंगा


ईश्वर दरअसल एक औरत है
इससे तो मैं दस साल पहले भी आपको चौंका सकता था

लेकिन सबसे ख़ूबसूरत बात कहने के लिए

मुझे थोड़ा और वक़्त दीजिए

थोड़े और सिर

थोड़ी और ज़िन्दगी



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6 पाठकों का कहना है :

प्रवीण पाण्डेय said...

गूढ़ बात।

डॉ .अनुराग said...

ईश्वर दरअसल एक औरत है
इससे तो मैं दस साल पहले भी आपको चौंका सकता था
लेकिन सबसे ख़ूबसूरत बात कहने के लिए
मुझे थोड़ा और वक़्त दीजिए
थोड़े और सिर
थोड़ी और ज़िन्दगी

love these line.......

Sumit Singh said...

बड़ी खूबसूरत कविता दी है गौरव आपने... एक फरफराता एहसास ...जो किसी वसंत की हवा चलने पर होता है..। सचमुच दिल गीला हो आया।

संध्या आर्य said...
This comment has been removed by the author.
संध्या आर्य said...

सांसो की ऊपरी स्तर पर
द्विधा की भटकन से
चेतना प्यासी
अपने लिहाफ मे
और आंतरिक स्तर का मिट जाना
भक्ति मार्ग पर
एक सत्य

टुटे आस से बंधी घागे
कमजोर धडकनो मे बंद
गुंगी जुबान जैसी
गहरी आंखो से उठे
धुओ के बादल मे
उम्मीद का विभ्रमित होना
वक्त की तल्खियत

समर्पण वाली हाथ
अनमोल जादू की अदृश्य एहसास
जिसकी किम्मत
शब्दो वाले घोडे
पत्थरो मे छिपी नमी
जैसी लडकियाँ
जो सुखायी गयी हो युगो से
चौतरफे हवाओ से घिंसती हो
पिघलती नही

बासी फूलो की भी खुश्बू
रुकती नही है फैलने से
रात-दिन के चक्र पर

आंसूओ का नजरो के बिछोह मे गिरना
और तेरा पुतली सा प्यार जताना
शबनमी समझ पर
आंखो के काजल का
टीका करना
और कहना साथ होना

विवशता याद करेगी
उन पन्नो को जिन्हे पढा जाना चाहिये था
जिनकी जुबान मे कही गयी अक्षर
कुछ छुटे और कुछ रुखडे होंगे
फफकती रौशनी मे
जिन्हे दुहराने पर
मंत्रो की आवश्यकता होगी

हवाओ की गति से
भावुकता को मापना
और बन्द एहसासो मे
बहते हुये डुब जाना
बिछुडते शब्दो से
अनजानी जुबाँ पैदा करना और
बांध देना नजरो को

तेरे भावो के आयत मे
एक तिलिस्म है
जिसमे दोयम दर्जा
परमेश्वर है !!

अनुपमा पाठक said...

बड़ी सुन्दर रचना!