न्यूटन का चौथा नियम

मेरे कमरों की छत
- यदि आप सरकार से असहमत होने की ज़हमत उठाते हुए मानते हैं कि किसान अपने खेत का मालिक है और रहने वाला अपने मकान का-
तो मेरे हुए जो कमरे सोलह महीने से
उनकी छत रोने के आकार की बनवाई गई है
जबकि बनाने और बनवाने वाले कविता के बारे में कुछ जानते हों
ऐसा इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोई न्यायाधीश तो कह सकता है
बाकी कोई नहीं
और सुना है कि यह नाकाम कोशिश होती है सदा
अपने निर्माण के ख़िलाफ़ लड़ना,
यह न्यूटन नहीं जानते थे
लेकिन उन्हीं की शैली का कोई नियम है
कि आप अपने पिता की हत्या नहीं कर सकते
और इस तरह नहीं रोक सकते अपना जन्म,
मैं जिस तरफ़ इशारा कर रहा हूं
उसमें आप जायदाद की लड़ाइयों के उदाहरण न लाएँ
तो बेहतर होगा

लेकिन मैं कब तक बचाऊँगा आपकी नज़ीरें,
आपका वक़्त और पवित्रता
जबकि मैं उन आस्थाओं को नहीं बचा सका, जिन्हें पृथ्वी के साथ होना था नष्ट
उन कुत्तों को, जो नींद के अलावा कुछ नहीं माँगते थे
आख़िर आपके दूधिया मुनाफ़े को मंत्रों से सुरक्षित करते हुए
मैं कब तक छिपा पाऊँगा यह तथ्य
कि मेरा भी एक शरीर है आपके नायकों जैसा
जिसे बच्चों की तरह की ठंड लगती है
अलग-अलग वक़्त अलग-अलग चीजों की भूख
और दिन छिपे से रोज़ाना डर

फिर भी जीवन रोशनी सा बहता है
जबकि उसमें पानी की कमी और तिलचट्टों की हत्याएँ हैं
और उन कमरों में
जहाँ महानता के ढोंग और उजली फ़िल्मों के दिलासे
आपको नहीं बचा सकते
मैं ‘रो देने’ के हिज्जों, उनकी ध्वनियों
और रोने की ध्वनि को टालते हुए
अपने बाल गिनता हूँ
सफ़र टालता हुआ और मुलाक़ातें
शर्मिन्दगी और दोस्तियाँ,
दीवारों और मेजों को टूटने से ऐसे बचाता हुआ
जैसे इस तरह सारी दुनिया बचा लूँगा और साथ में कश्मीर
जैसे एक बाल्टी पानी बचाकर
सिर तक भर दूँगा बाड़मेर का कोई गाँव
जैसे मैं चिल्लाऊँगा तो एक कैदी को तो छोड़ ही देंगे साहब
जैसे मेरे बोलने से कुछ कम बच्चों के सिर काटे जाएँगे
कुछ ज़्यादा स्कूल बन्द होंगे
कुछ वेटरों को मिलेगी ज़्यादा बख़्शीश
चार ज़्यादा लोग आँखें दान करने का फ़ॉर्म भरेंगे
और जल्दी मरेंगे
दो और लड़कियाँ आधी रात के बाद निकलेंगी घर से
और सलामत लौटेंगी, ख़ुश भी

न्यूटन के पिता सेबों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे
और न्यूटन कविता के बारे में
वरना आप ख़ुद सोचिए
यह कहना कितना बेवकूफ़ लगता है
कि मुझे और तुम्हें धरती नीचे खींचती है
जबकि रोना ईंटों में है
और किसी सेमिनार में मेरे कमरों की छतों के बारे में कोई बात नहीं हो रही
न ही इस बारे में कि
अनाज लाने के लिए घरों से भागे हुए लोग
सोना पाकर भी वापस क्यों नहीं लौट पा रहे?



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4 पाठकों का कहना है :

प्रवीण पाण्डेय said...

न्यूटनजी तो यह नियम कभी न बना पाते।

संध्या आर्य said...

घुटन के दबाव मे बादलो का नम होना
और जाते मौसम या बनते मौसम
को मेघ राग सुनाना
यह एक ही सिक्के के दो पहलू नही है
पर दीखते है

माना नियम के साथ साक्ष्य का होना
अतिआवश्यक है पर
दोनो मे शारीरिक और बौद्धिक तालमेल हो
यह बिल्कुल जरुरी नही है
क्योकि विज्ञान अपने नियमो और
साक्ष्यो के साथ एकांगी है
मन की धरती से
इसकी जमीन जुदा है
भूखो वाली आकर्षण को नही मानता है विज्ञान

मन कोई नियम नही तलाश पायी
जो धरती की गुरुत्वाकर्षण जैसी विशाल होती
मन की जीवित आसमान मे
आशाये जीती है और
मरती तो है हरक्षण
गुरुत्वाकर्षण का होना
मनोविज्ञान की भी एक घटना है
मै और तू का धरती मे खिंच जाना भी
एक सत्य पर मन से
जिसके तार किसी और दुनिया से जोडती है

जब भी कोई
मुलायम सा स्पर्श शब्दोवाला
गुनगुनी धूप के दरमियान
मिलती हो पर रेत की तरह
चाहत के फना होने पर भी
फिसल जाता हो मुठ्ठियो से तब
पैदा करता है मोह का डर
और
प्यार की परछाई के पीछे की दौड

टुटते,बिखरते,पिघलते,पसरते,घुटते
और उडते वक्त मे तेरे आंखो के
पारदर्शी हो जाने से
बालो का गिनना और
तेरा नीला हो जाना
साकारात्मक आंसूओ से
धरती की बढती गर्मी मे
अपनी पवित्र ख्वाहिशो से
तेरा पृथ्वी को शीतल करना
और बचा लेना कत्ल होने से
ठीक पहले की ख्वाहिशो को

यह बिल्कुल सत्य है कि
गुजरे वक्त की हरी घासो ने
अपनी जमीन की नमी सोख ली थी
जिसमे हम सब को उगना था
सुखती जमीन और माँ की आंखे
बंजर हो जाती है दुवाओ से
और तब भूख से उत्पन्न होने वाली
इश्क नही दे पाती है
अमर प्रेम !

दिपाली "आब" said...

rone ka aakar kaisa hota hai?

संध्या आर्य said...

अरमानो के घुटने से बनती
बिगडती तस्वीरे
अपने आकार के सापेक्ष
रुआसी होती है
छतो मे एक तारिख है
जिस पर दर्द मुकर्र है
चंद सबूतो से

प्यार की हत्या से
मुजरिम का पारदर्शी होना
दफनाने की नाकाम कोशिश मे
गिरफ्तार हो जाना,शायद
समाजिकता

हर पवित्र स्थल से सटा
एक बाज़ार है
निर्माण की वजह
पवित्रता और भूख
गरीब भूख को दफनाने से
मज़ार जैसी ही बाज़ार बनती है
इसकी सबूत हर बडी मंदीर के
पीछे की संकीर्ण गलियाँ

गरीब ख्वाब की जगह पर
कुँये खोदी जा सकती है
जिसका मुल्य सार्वजिक ज्यादा
व्यक्तिगत कम होती है

घिसती पत्थर जैसी होती
बेबस बेटी
जो वक्त के साथ
घिस जाती मुल्यो पर

तेरी ख्वाहिशो मे
बेटियो का खुश दिखना
एक कप चाय
इनके लिये कुछ करना तेरा
नीला आसमानी हाथ जैसा
विशालकाय हो जाना

तमाम विसंगतियो से जुझना हरपल
और आंख जैसी कविता मे
तेरा कुतुबमिनार हो जाना !