तमाम समझाइशों के बावज़ूद
ख़त्म होना होगा बार-बार
कुर्सियों के नीचे से घास
हमें खाने की कोशिश में
हमारी माँ होगी
गिनतियों में घटते जाते हैं दुख
जैसे भीतर छिपा लिए गए हैं सब बच्चे
पोलियो की खुराक से बचाने के लिए
तुम्हारे गाल पर जो कुआँ है
वहाँ मैं पत्थर घिसता हूं
आवाज़ देते देते होता जाता बेआवाज़
हम बाहर निकलकर बाँटेंगे अख़बार
अन्दर मलेंगे रोने पर ग्लिसरिन
भर्राए हुए आएगा समय
ऊँघते हुए सब दिलासे
इंच इंच बढ़ेगी घास
फुट फुट आग होगी
मैं तुम्हारे गले को काटते हुए
थाली माँगूंगा, खाना
कुछ प्याज ज्यादा, थोड़ी मिर्च कम
और आधे घंटे तक नहीं पीना चाहिए पानी
क़त्ल जब भी होगा
खुली हवा और बसंत में होगा
चुम्बन चुम्बन पर लिखा होगा
मरने वाले का नाम
निर्ममता आँखों के न होने पर शुरु होनी चाहिए थी
मगर ऐसा हुआ कि ऊबी याददाश्त,
घास कुर्सियों के ऊपर उगी थी
और तुम्हारे गाल का अकेला कुआँ
मेरे खून में उजड़कर बह रहा था
नाराज़ होना किताब में नहीं लिखा था
थप्पड़ों में बीता था स्कूल
जब भेस बदलकर आई पुलिस
- उसमें वह पछताता सा लड़का जो इस रोल में नहीं बैठता था फिट-
तब मैं नक्शों पर मार्क करना सीख रहा था न्यूयॉर्क
पूछ रहा था- दर्द पहले आएगा या ब्योमकेश माँ?
टेबल फैन घूमता नहीं था
इसलिए हम सब एक कतार में बैठा और सोया करते थे
अपने घर में टिकट खरीदते थे जैसे
पापा गिनते थे रेलगाड़ियाँ रात भर
चाय और सूरज आपके घर आते होंगे हर सुबह
हवा जिधर से आती थी,
वही गोली की दिशा थी
जिस पर मैंने चुटकुले गढ़े
गेहूं की एक खास किस्म थी
जिसे हाथ में लेकर देखते हुए
उन्होंने माँगे मुझसे पैसे
यह घटना की तरह नहीं हुआ
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8 पाठकों का कहना है :
वाह वाह ..बहुत खूब....मज़ा आ गया..
आपका लिखने का यह अंदाज़ बनाये रखें.
मेरे ब्लॉग पर इस बार
एक और आईडिया....
इसे पूरी तरह समझने के लिए....शांत मन से एक बार और पढूँगा
बहुत खूब लिखा है। वाह।
....
भाईजान, कहना क्या चाहते हैं?
वक्त के नुकीले वर्चस्व पर
चुभती घडियो के तारो से
गुजरना होगा बार बार
गोद से सूनी ममता मे
जीना और मरना
दुखो से भरी तालाब का ठहराव
और तेरा मछ्ली हो
तडप जाना
बिन हवा और बिन पानी
बरसाती मौसमो मे दुखो का जलना
और घावो का ठंढा होने के इंतजार मे
घण्टो काँपते रहना
चिलचिलाती धूप मे
बेरुखी हवाओ से लहू का
कट जाना कतरा कतरा
और प्यास पर सयम रखना
हो एक संस्कार
इश्क को भूलना हो
एक आदत और बन चुकी हो
एक अदावत खुद से
बढती अंधो की परम्परा मे
हरियाली महंगी हो गयी थी
और तू उलझ गया था
दर्द से भरी गिनती करने वाले उंगलियो मे
और पहेली बनी घास और कुर्सी पर
लहरा रहा था वक्त का परचम
उसकी अनसूनी कान हो गये थे
पत्थर
धोखा एक जादू था
हर दूसरे दिन सामने होता
उन दिनो भीड से हम सब बंधे होते
अब छूट्टे होने की परम्परा है
सूरज और चाँद प्रदूषित हो
छेद रहे थे आसमान
जहाँ तू खिला करता था
पापा के गिनतियो मे
और माँ निकाल लेती थी कांटे आंखो की
लिहाज के बस्ते हल्के थे और
रफ्तार मे घुमती आंखे
मांद हो गयी थी
जहाँ कोई शेर था
शायद वक्त !
tumhari yahi cheej tumko hajarron se alag karti hai, yahi important hai or kabile tareef bhi..
फिर वही बेलौस ....थोड़ी अख्खड़.... नाराज सी कविता ....फिर वही गौरव सोलंकी
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