देखना, न देखने जितना ही आसान था
मगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी पर
एक भी कोना ऐसा नहीं था
जहाँ दृश्य को किसी से बाँटे बिना
सिर्फ़ मैं तुम्हें देख पाता
घासलेट छिड़ककर मर जाने को टालने के लिए
हम घास बीनने जाया करते थे चारों तरफ
और इस तरह जाया करते थे अपनी अनमोल उम्र
फिर अपना हौसला पार्क के बाहर बेच रहे थे
बोर्ड पर लिखकर छ: रुपए दर्जन
और मैं तुम्हें रोशनदान से बाहर आने के दरवाजे सुझाते हुए
कैसे भूल गया था अपने भीख माँगने के दिन
जब तुम्हारे कानों में गेहूं की बालियाँ थीं
जिन्हें मैं भरपूर रोते हुए खा जाना चाहता था
इस तरह लगती थी भूख
कि चोटें छोटी लगती थीं और पैसे भगवान
हम अच्छी कविताओं के बारे में बात करते हुए
उन्हें पकाकर खाने के बारे में सोचते थे
बुरी कविताओं से भरते थे घर के बूढ़े अपना पेट
बच्चे खाते थे लोरियाँ
और रात भर रोते थे
तुम बरसात की हर शाम
कड़ाही में अपने हाथ तलती थी
कैदख़ाने का रंग पकौड़ियों जैसा था
जिसकी दीवारें चाटते हुए
मैंने माँगी थी तुम्हारे गर्भ में शरण
यदि देखने को भी खरीदना होता
तब क्या तुम मुझे माफ़ कर देती
इस बात के लिए
कि मैंने आखिर तक तुम्हारी आँखों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा
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13 पाठकों का कहना है :
आमीन!!
देखना, न देखने जितना ही आसान था
मगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी पर
एक भी कोना ऐसा नहीं था
जहाँ दृश्य को किसी से बाँटे बिना
सिर्फ़ मैं तुम्हें देख पाता
!!!!!!!!!!!!!!
तुम्हे पढना हमेशा सोचो को विस्तार देना है ......
गौरव भाई तुम्हें पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है....
ब्रह्माण्ड के निर्माण से ही
तू टँककर आया था
पृथ्वी के आँचल तले,
बुनियादी जरुरते
अनमोल उम्र से लगकर
आवसादी हो बेमोल बिकती थी कब्रिस्तानो मे,
संकट के दिनो से ही
मै तुम्हे गौरैया होना सिखाता रहा
पेट से लगकर पैसे की भूख पर
आत्मसम्मान बैठी रही ठंडी,
जवानी ने सिखायी
आत्मसाती होना
बुढापे ने डुबना
बचपने ने खोना सच,
तेरे जिस्म से आती बू मे शामिल था
जब तूने पहना था
मेरा सामान
कैदखाने मे उस रात,
जैविक से दैहिक
और फिर
दैविक होने मे टटोलना
सच!
बड़ी सुन्दर भाव यात्रा
कभी कभी ऐसा भी होता है कि कवि जिस सोच को लेकर कविता लिखता है, उस सोच को पाठक सोच नहीं पाता या उस सोच तक सोच नहीं पाता....
वैसे अनुराग जी की बात गौर करने लायक है !
ghaas or jaya ka prayog achcha laga....
achchi kavita
गौरव, पहली बार आपके ब्लॉग पर आई...अलहदा कविताएं अलहदा अंदाज और बेबाकी...सभी कुछ खूबसूरत
bahut acche sir aankhon men paani aa gya
दोनो को भौकते हुये
भोर हो चुकी थी
वह गहरे नींद मे
सपने के ठीक अपने उल्टे अर्थ मे
सच होने के नींद से जागी थी
...
प्रकाश के रफ्तार से
उसने आंखे खोली थी
कुछ सुनायी नही दिया था
आंखो की भाषा भी खुब होती है न
बारिश के बाद बादलो के बीच
बिजली कौंधी थी
और उसकी आंखे खुल गयी थी
मौसम जैसे जादूई हो
आसमान पर
इंद्रधनुष बना गया था
मन का लौ बुझने ही वाला था कि
दीपकराग से जल उठा
जब उसने हौले से
कदमो को सहारा दिया
सपने मे भौकना सही आकार
पा रहा था विरक्ति आशक्ति
मे बदल रही थी
और वह दोनो राग मल्हार पर
वीणा के तारो और सूरो के संग
घुल रहे थे
कुछ अनकही भाषा भी
अपनी नीजता को
तोड देती है
आँखो की भाषा की तरह !!
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