सौ साल फ़िदा

तुम अचानक अँधेरे का बटन दबाओ
पट्टियाँ उतारो, पहनो कपड़े
हम अपने भविष्य पर न फेंके चबे हुए नाखून
देर से जगें तो पछताएं नहीं
इधर कुछ दिन, जब भूख उतनी पुख़्ता नहीं लगती
हम दीवारों में सूराख करना सीखें
एक रंग पर होना सौ साल फ़िदा
एक ज़िद पर रहना आत्मघाती होने की हद तक कायम

जब मैं तुम्हारे बारे में बता रहा होऊँ
तब मेरी आँखें खुली रहें
मैं पानी मांगूं और हंसूं, खनखनाऊं
फिर मांगूं पानी, भर लूं आँख
और रोशनी हो जब डरने के नाटक के बीच
तब हम किसी फ़साद में अपने नामों के साथ मारे जा रहे हों
नाम चिढ़ाने के हों तो बेहतर है
शहादत महसूस हो ग़लतफ़हमी की तरह
जैसा उसे अक्सर बताया जाता है
बच्चों को बचाने के इंतज़ाम करते हुए न चला जाए सारा बचपना
दर्द इतना ही हो कि ख़त्म हो जाए कहानियों में
पिंजरे इतने छोटे पड़ें कि पैदा होते ही उनसे खेला जा सके बस
शहर इतने बड़े हों, लोग इतने ज़्यादा कि उम्र बीते उन्हें भुलाने में
बर्फ़ इतनी थोड़ी हो कि उसे माँगते हुए झगड़े हों, पहले मिन्नतें और शर्म आए
शरबत की ख़्वाहिश में कटे पूरा जून
नहर के किनारे बैठी हो मौत
उसकी उम्मीद में तकते हुए लड़कियाँ
हम अपना डरपोक होना जानें
खिड़कियों की नाप लेते हुए
जरूरी है कि हम खुलकर साँस ले रहे हों
जब जीतें तो हौसले की बातें न करें

करोड़ों साल बाद की किसी रेलगाड़ी की सुबह के चार बजे
काँपते हुए सर्दी, बाँधते हुए बिस्तर
याद आएं तुम्हारे सोने के ढंग

सोना आदत न बने।



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7 पाठकों का कहना है :

संध्या आर्य said...

एक अदद तालाश उजाले की
जो सनातन है
अक्ल की दांत से की गई मोहब्बत
वक्त से परे जाती टिक टिक की आवाज
मिटती ख्वाहिशो से होना द्रोही

गुफ्तगू कुछ छुटे लम्हो से
बसंत मे मर और मिट जाना
जिंदगी के विषाद पर
बस्तो मे तबदील होती बचपना
जिस्म पर कट्ते और टकते कुछ जाले अभावो की
सिमट्ते वक्त मे डरपोक हो
माँ की आंचल से मौत को मात देना

कुर्बान होने की ख्वाहिश मे
सदियाँ बिता देना आँखो से !

prabhat ranjan said...

आपकी कविता अच्छी लगी. इसी बहाने आपके ब्लॉग से परिचय भी हो गया.

डॉ .अनुराग said...

करोड़ों साल बाद की किसी रेलगाड़ी की सुबह के चार बजे
काँपते हुए सर्दी, बाँधते हुए बिस्तर
याद आएं तुम्हारे सोने के ढंग

सोना आदत न बने।

क्या बात है !!!

सागर said...

“शहादत महसूस हो ग़लतफ़हमी की तरह”

इसके बाद मैं भी अंतिम पैरा ही निकालूँगा दोस्त, यह बिम्ब बहुत की खूबसूरत है... पूरी कविता अच्छी है पर यह याद रह जायेगी.

प्रवीण पाण्डेय said...

छायावादी संकेतों से गहरी बात कह गये।

Dr.Ajit said...

गौरव भाई,फिर से एक दमदार कविता...अक्सर मै आपके ब्लाग पर आता रहता हूं और आपको पढने का अपना एक अलग सुख है...। कई बार आपसे सम्पर्क करने का प्रयास किया लेकिन आपने कोई जवाब नही दिया कोई नाराज़गी है क्या? या सपनो की उधेडबुन मे आप कुछ ज्याद दूर निकल आए हो जहाँ तक मेरी आवाज ही नही पहूंचती हैं...खैर आपका अजनबीपन कभी कभी खलता है जब आपको हरिद्वार मे साहित्य रसिको के बीच मे जिक्र होता है...आपका तो पता नही मै थोडा अतीत व्यसनी हूं..।

उज्ज्वल भविष्य की ढेरो शुभकामनाएं...

डा.अजीत,हरिद्वार

www.shesh-fir.blogspot.com

दिपाली "आब" said...

too good