तुम अचानक अँधेरे का बटन दबाओ
पट्टियाँ उतारो, पहनो कपड़े
हम अपने भविष्य पर न फेंके चबे हुए नाखून
देर से जगें तो पछताएं नहीं
इधर कुछ दिन, जब भूख उतनी पुख़्ता नहीं लगती
हम दीवारों में सूराख करना सीखें
एक रंग पर होना सौ साल फ़िदा
एक ज़िद पर रहना आत्मघाती होने की हद तक कायम
जब मैं तुम्हारे बारे में बता रहा होऊँ
तब मेरी आँखें खुली रहें
मैं पानी मांगूं और हंसूं, खनखनाऊं
फिर मांगूं पानी, भर लूं आँख
और रोशनी हो जब डरने के नाटक के बीच
तब हम किसी फ़साद में अपने नामों के साथ मारे जा रहे हों
नाम चिढ़ाने के हों तो बेहतर है
शहादत महसूस हो ग़लतफ़हमी की तरह
जैसा उसे अक्सर बताया जाता है
बच्चों को बचाने के इंतज़ाम करते हुए न चला जाए सारा बचपना
दर्द इतना ही हो कि ख़त्म हो जाए कहानियों में
पिंजरे इतने छोटे पड़ें कि पैदा होते ही उनसे खेला जा सके बस
शहर इतने बड़े हों, लोग इतने ज़्यादा कि उम्र बीते उन्हें भुलाने में
बर्फ़ इतनी थोड़ी हो कि उसे माँगते हुए झगड़े हों, पहले मिन्नतें और शर्म आए
शरबत की ख़्वाहिश में कटे पूरा जून
नहर के किनारे बैठी हो मौत
उसकी उम्मीद में तकते हुए लड़कियाँ
हम अपना डरपोक होना जानें
खिड़कियों की नाप लेते हुए
जरूरी है कि हम खुलकर साँस ले रहे हों
जब जीतें तो हौसले की बातें न करें
करोड़ों साल बाद की किसी रेलगाड़ी की सुबह के चार बजे
काँपते हुए सर्दी, बाँधते हुए बिस्तर
याद आएं तुम्हारे सोने के ढंग
सोना आदत न बने।
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सौ साल फ़िदा |
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इतना निहत्था कि डर नहीं |
हमारे हाथों में काँपते हुए चौबारे
फव्वारों में जमा होती उदासी
पूछना पानी तो बताना पागलपन
लौटकर आती हुई पुरानी तस्वीरों में
हँसी इतनी बरकरार
कि झूठी
नई दीवार पर बैठकर पुराना गिरना
पुराने जोश में माँगना नए कर्ज़
बीच में होना अपमानित
और भाषण देना
नदी हुई जाती हैं घटनाएँ
जिनमें हम बाढ़ होने से बचते हुए
जूते उतारकर हाथ में लिए हुए
भूखे और भिखारी
अपने किस्से तलाश रहे हैं, अपना जन्म और अपने खिलौने
सुख की एक कहानी को भूलकर
मैं काँच में गिरता हूं
ढूँढ़ता हूं अपनी आँखें, तुम्हारे जेवर
बंद हो रोशनी तो देख पाऊँ
नए शहर की रेलगाड़ियाँ
सौतेली माँओं जैसी लगती हैं
और मुझे सपने में भी याद है
कि सब्जियाँ खरीदनी हैं
हाँफना नहीं है लौटते हुए
बचाए रखनी है फ़ोन की एक साँस बैटरी
और थोड़ा आत्मसम्मान
हमें हाथ पकड़कर चलना है
खोना है मेलों में
और ढूँढ़ते रहना है घर
जिस पाँच बार बेचा जा चुका,
पिता हुए अमीर और मोटे, माँ जवान
इतना सूखा कि छींटे माथे तक
इतने लोग कि सब लाचार
इतने पिता कि अनाथ सब
इतना प्यार कि ध्वस्त हुईं सब खुशबुएँ, बचपना और चाँद
इतना निहत्था कि डर नहीं