राजनीति मनोरंजक है (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) लेकिन Politically उतनी ही ठीक है, जितनी कैटरीना कैफ की हिन्दी। इसके सामाजिक सरोकार उतने ही आधुनिक हैं, जितना प्रचार के लिए राहुल गांधी की नकल करते हुए लोकल ट्रेन में घूमने वाले रणबीर के रहे होंगे। यह महाभारत का (या बकौल प्रकाश झा, उसके किरदारों का) आधुनिक संस्करण है लेकिन हिम्मती नहीं।
मगर शुरू से ऐसा नहीं होता। यह साल की सबसे मजबूत फिल्मों की तरह शुरू होती है, अपने बहुत सारे किरदारों, बहुत सारी पार्टियों और एक परिवार की कहानी के साथ। तब यह कसी हुई है और महाभारत से मिलते जुलते नए किरदारों को पहचान कर आप खुश और चकित भी होते हैं। फिर धोखे और हत्याएं होनी शुरू होती हैं और तब भी यह सब thrilling है और बाँधे रखता है। बीच में कैटरीना जरूर आती हैं और अच्छी acting करने की पूरी कोशिश करती हैं लेकिन उन्हें नाकाम होते देखना बहुत कष्टदायक है और आपको उनपर इतना तरस आता है कि आप उनका चेहरा देखने से बचते हैं (वही चेहरा, जिसके लिए आपने कई सौ रुपए कई बार खर्च किए होंगे- उनकी बेवकूफ फिल्मों के लिए, जिन्हें वे गर्व से करती हैं)। बाकी सब तो कमाल के एक्टर हैं ही, लेकिन अर्जुन रामपाल की एक्टिंग surprising package है। फिर मासूम से रणबीर आते हैं और उतने मासूम नहीं रहते। यहीं से फिल्म अपनी दिशा पकड़ना शुरू करती है और साथ ही 'सही' होने से बचते रहना भी।
नाटकीय घटनाएं तो हैं और वे प्रकाश झा की पिछली फिल्मों में भी रही हैं। मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि प्रकाश झा की फिल्में सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने के बीच वही एंग्री यंग मैन वाली मसाला फिल्में रही हैं और चूंकि वे हमेशा पिछड़े हुए बिहार की कहानी होती हैं (इस बार मध्यप्रदेश में भी बिहार की ही), इसलिए लोग उन्हें सिर्फ सामाजिक या 'सार्थक' फिल्में समझने की भूल कर बैठते हैं। उनमें आक्रोश होता है और स्टाइलिश हिंसा, इसीलिए उन्हें दर्शक भी मिलते हैं।
फिल्म का पहला आधा हिस्सा महाभारत के पांडवों और श्रीकृष्ण को भी नकारात्मक सा दिखाता है और चूंकि घटनाएं कहीं न कहीं महाभारत से मिलती हैं इसलिए आपको अच्छा लगता है कि यह एक पुरानी गलत व्याख्यायित की गई कहानी का आधुनिक और स्वतंत्र वर्जन होगा। मतलब यह कि आप उम्मीद करेंगे कि द्रोपदी को बलिदान नहीं देने पड़ेंगे और अर्जुन को धर्म का रक्षक नहीं बताया जाएगा। मगर आखिरी आधे-एक घंटे में वे वही करते हैं, जो 'महाभारत' हमारे समाज के साथ करती आई है। द्रोपदी के साथ कुछ भी करो, आप उसे इस्तेमाल की चीज बना लो और बेच-खरीद लो लेकिन तीन-चार दिन में वह सब भूल जाएगी (पहले यह रोना रोकर कि हम औरतों को समझौते करने ही पड़ते हैं) और आपके किसी भी नायक से बेतहाशा प्यार करने लगेगी। क्योंकि आप इस अपराधबोध के साथ नहीं जी सकते कि आपने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी है इसलिए आखिरी हिस्से में वह आपको माफ कर चुकी होगी और यह भी अहसास करवाएगी कि हां, हीरो जी, आपने जो भी किया, वह आपकी मजबूरी थी और हीरो जी आपका जीवन तबाह करके चल देंगे और सॉरी बोलेंगे, आँखों में नकली से आँसू भर लाएँगे। इसीलिए यह बहुत सी मुंबईया फिल्मों की तरह घोर पुरुष-शासित फिल्म है और इसमें स्त्रियाँ passive ही हैं। वे आपके खेलने के लिए बनी हैं और खुश या बेवकूफ या दोनों हैं।
अजय देवगन का किरदार, जो कर्ण का है, सशक्त है लेकिन निर्देशक महोदय के चक्कर में उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। कितना अच्छा होता कि यह 'महाभारत' का कुछ वैसा ही रीमेक बन पाता जैसा 'देव डी' 'देवदास' का थी। कुछ लोग आपके खोखले और नकली आदर्शों से विद्रोह करते और नई दुनिया बना डालते। लेकिन यही 'राजनीति' की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसमें धारा के विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं है। उसके लेखक-निर्देशक नहीं समझ पाते कि कैसे खत्म करें तो वे पुरानी हिन्दी फिल्मों को ही याद करते हैं, जिनमें हीरो आखिर में हीरो ही बना रहेगा और खबरदार, जो आप उसके बारे में कुछ बुरा सोचते हुए थियेटर से निकले। इसके लिए आखिर में मधुर सा संगीत बजेगा और हीरो अपने पक्ष में सहानुभूति जुटाने के लिए चार लाइनें बोलकर चलता बनेगा और हीरोइन को गर्भवती होने की खुशखबरी सुनानी होगी।
आप बस ये मत कहिए कि आपने कुछ अलग या नया बनाया है या आप हमारी और समाज की फिक्र करते हैं। हम इसे एक अच्छी एक्शन थ्रिलर तो मानने को तैयार हैं लेकिन सच्ची और बोल्ड फिल्म नहीं। यह बच्चों के लिए नहीं है, इसलिए नहीं कि इसमें अश्लीलता या क्रूरता है, बल्कि इसलिए कि यह अपनी बुराइयों को नैतिक शिक्षा की किताब में सिखाती है। यह साल की सबसे कमजोर फिल्मों की तरह खत्म होती है और आपसे उम्मीद करती है कि आप उसके खलनायक से सहानुभूति से पेश आएं और उनके आगे हाथ जोड़ें, जो अर्जुन है या स्वयं श्रीकृष्ण।
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18 पाठकों का कहना है :
अच्छी बात है. अब पैसे फूंकने थियेटर नहीं जाएंगे, कभी टीवी पर देखने मिली तो देख लेंगे.
बहुत ही उम्दा रपट है. शानदार.
कभी फिल्म दिख गयी..( अब देखने तो नहीं जाऊंगा )तो आपकी समीक्षा एक बार और पढ़ने का मन करेगा.
..कविता के बाद आपका यह अंदाज अच्छा लगा.
हमने भी कल पैसे बरबाद कर डाले...
फ़िल्म की मूल समस्या है कि इसमें सब कुछ समेट लेने की कोशिश की गयी है। अगर कुछ चीजें (मेरे हिसाब से गैर जरूरत) निकाल दी गयी होती तो फ़िल्म बेहतर हो सकती थी। जब पूरे फ़िल्म प्रादेशिक राजनीति पर केन्द्रित थी तो १२ सीटों वाला मुख्यमंत्री का ड्रामा निकाल देते तो कम से कम १५ मिनट बचते,
अगर अपने दर्शकों की बुद्धि पर जरा भी भरोसा होता तो महाभारत वाला एंगल उन्हे अपनी बुद्धि से समझने देते। क्योंकि फ़िजूल में १५ मिनट और खर्च करके दर्शकों का गला पकडकर समझाया गया कि मूर्खाधिराज अगर आप अभी तक न समझें हों तो हम खुल से समझाते हैं कि ये महाभारत से मिलता प्रसंग है।
कुछ चीजें फ़िल्म में बहुत अखरी... लेकिन याद रहा तो केवल...अंखिया मिलाये कभी अंखिया चुराये क्या तूने किया जादू। मजा आ गया, :)
अजय देवगन ने निराश किया, पूरे समय इतना गुस्से में भरी आंखे लिये रहे कि एक्दम भी रीयलिस्टिक नहीं लगा...:)
ये पूरी तरह से मसाला फ़िल्म है जिसको स्यूडो पैरेलल फ़िल्म का चोला पहनाने का प्रयास किया गया है।
मेरे रूममेट का कमेंट:
Why does Jha has this f****** fetish with getting women pregnant ? Remember Mritudand, and three women in this movie, :)
आखिर में,
हमारे पैसे तब वसूल हुये जब हीरो अपनी पीएचडी का टाईटल बताता है, कसम से इतना जोर से थियेटर में कभी नहीं हंसे...और ह्यूस्टन के जिस थियेटर में हम थे उसमें कम से कम ९५% दर्शक इंजीनियर/आईटी/पीएच्डी स्टूडेंट(इंजीनियरिंग) टाईप रहे होंगे तो हंसी का मस्त फ़व्वारा छूटा।
तुमने तो बिल्कुल ही नया एंगल दिया है। ब्लाग जगत की कृपा... दो दिन में इतनी तरह की समीक्षाएं पढ़ ली हैं कि फिल्म देखे बिना काम नहीं चलेगा।
एक अच्छा लेख है. ’राजनीति’ के बारे मे कुछ अ-राजनैतिक मगर सटीक बातें आपने रखी हैं, मगर आपकी सभी निष्पत्तियों से सहमत नही हो पा रहा हूँ.
सच है, कि राजनीति मे प्रकाश झा जी उन सारी उम्मीदों पर पूरी तरह खरे नही उतर पाते हैं जो हम जैसे कई उनके किसी नये प्रोजेक्ट की घोषणा होते ही उनसे बाँध लेते हैं. मगर प्रकाश झा की फ़िल्म-मेकिंग को मैं उस किस्सागो की श्रेणी मे रखूँगा जो किसी बिना बिजली वाले गाँव मे कभी दिसम्बर की बची हुई रातों मे अलाव को घेर के बैठे हम अन/अधपढ़ श्रोताओं को को अपने किस्सों मे बाँध कर रखता था. जहाँ पर तमाम नये-पुराने किस्से ’एक समय की बात थी..’ से ही शुरू हो ने के बावजूद अपने ट्विस्ट्स और टर्न्स की अलग-अलग पटरियाँ पकड़ लेते थे. और भले ही वे सारी कहानियाँ हमने बार-बार सुनी होती थीं, मगर कहानियों की ओरिजिनलिटी या उनका सस्पेंस हमें बाँधे नही रहता था, वरन् यह कहने वाली की किस्सागोई की अद्भुत कला होती थी जो हमें बार-बार खींच कर उन्ही मुकामों पे ले जाती थी जहाँ से हम कई बार गुजर चुके होते थे, मगर हर बार नये से लगते थे.
वर्तमान के प्रकाश झा हिरानी, चोपड़ा या (अब के) विशाल वाली उस कैटेगरी के फ़िल्मकार हैं जो फ़िल्म को मूलतः मनोरंजन के ऐंगल के साथ बनाते हैं. और वहाँ पर ’समाज-परिवर्तन’ या ’स्रजनात्मक प्रयोगवाद’ ऑप्शनल ऑब्जेक्टिव्स मे रहते हैं. मगर उनकी फ़िल्मों की जान उस प्लाट रूपी तोते मे होती है, जो पूरी फ़िल्म को एक सूत्र मे बाँधे रखता है, बिखरने नही देता. मृत्युदंड और गंगाजल ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हे बार-बार देख कर लगता है कि उनके प्लाट और स्क्रीन्प्ले पर कितनी मेहनत की गयी होगी. ’राजनीति’ यहीं पर लड़खड़ाती है.
महाभारत को ढाई घंटे की फ़िल्म मे समेटने की कोशिश वैसी ही है जैसे आप शेर को स्लीपिंग बैग मे बंद करने की कोशिश करें या व्हेल के शिकार के लिये पानी मे बंसी डालें. जिसने भी महाभारत को ठीक से पढ़ा होगा वो अच्छे से जानता होगा कि यह मिथकीय ग्रंथ कोई ’मोरलिटी-टेल’ या ’बुराई-पर-अच्छाई-की-जीत’ टाइप क्लीशे नही है. महाभारत की कोई भी पात्र जस्ट ’ब्लैक-एंड-व्हाइट’ मे पेंट नही किया जा सकता है. और उसकी विशिष्टता कथानक की कांप्लीकेसी मे नही वरन उसके कैरेक्टर्स के आंतरिक विरोधाभासों, विडम्बनाओं, मानवीय दुर्बलताओं से जनित नैतिक/सामाजिक दुविधाओं मे है, जो इस ग्रंथ को जटिलता देता और उसे ’मोर-ह्यूमन’ भी बनाता है. ’राजनीति’ का कथानक उसी जटिलता को निगल तो लेता है मगर पचा नही पाता है, और कहानी की जड़े उखड़ने लगती हैं.
आपके ’इम्प्रेशन’ के विपरीत मुझे फ़िल्म की शुरुआत बेहद टिपिकल, कमजोर, और अस्सी के दशक की उन प्रेडिक्टिबल फ़िल्मों की तरह लगी जिनमे कथानक पहले १५ मिनट मे ही निर्वाण को प्राप्त हो जाता था, मगर उसके बाद प्रकाश अपने परिचित अंदाज मे ट्विस्ट परोसना शुरू कर देते हैं और कहानी को ऊपर उठा ले जाते है. मगर उनकी हर फ़िल्म का ’एजी-प्लाट’ के बावजूद अंत मे लड़खड़ा जाना व्यथित करता है, यह भी उसका अपवाद नही है. और रणवीर को अर्जुन से माइकल कार्लोन मे बदलते देख स्वाभाविक ही ’सरकार’ के अभिषेक याद आते है, और फिर यह ’समर’ उस ’शंकर’ के प्रभाव से कभी मुक्त होता नही दिखता. और मुझे अर्जुन रामपाल भी खास प्रभावित करते नही दिखे. उनके साथ समस्या यह है कि हर फ़िल्म मे वो ’अर्जुन रामपाल’ ही होते हैं, उस फ़िल्म का किरदार नही. खासकर उनके मनोज बाजपेई के साथ के दृश्य देख कर ऐसा लगता है जैसे कबूतर को बिल्ली के पिंजरे मे छोड़ दिया गया हो. शायद एक अच्छा ’हेयर-कट’ उन्हे प्रथ्वी के रोल मे ढलने मे आसानी देता ! मनोज बाजपेई फ़िल्म के हर दृश्य मे हमें यह याद दिलाते हैं कि अभी हम उन्हे कितना कम देख पाये हैं. शायद इस फ़िल्म का अच्छा बिजनेस हमें उनको आगे और अच्छे और ’मीटी’ रोल्स मे देख पाने का मौका दे.
स्त्री-चरित्रों के बारे मे आपका ऑब्सर्वेशन एकदम सही है. फ़िल्म उन नारी-चरित्रों को यूज भर करती देखती है, समर की तरह ! सारा का चरित्र ’स्टेरियोटाइप्ड’ होते हुए भी कुछ ईमानदारी लाता दिखता है, मगर वह भी अल्पजीवी भर होती है. मगर देखें तो स्त्री-चरित्रों की यह उपेक्षा हमारे सिनेमा का सबसे व्यापक ट्रेंड नही है क्या? बालीवुड मे फ़ीमेल कैरेक्टर्स को उतना स्पेस भर भी नही मिलता जितना ’लिटिल मिस सनशाइन’ की दस-साला अबीगेल को मिल जाता है. खुद कश्यप के सिने-संसार मे भी मुझे सिर्फ़ देव-डी की ’चंदा’ को छोड़ कर किसी भी फ़ीमेल कैरेक्टर के साथ न्याय नही हुआ लगता.
खैर, ’राजनीति’ का सबसे कमजोर पक्ष मुझे उसके संवाद लगते हैं. इतने महत्वाकांक्षी प्लाट मे इतने साधारण और घिसे-पिटे संवाद मुझे एक ’बिग-ऑपर्च्यूनिटी-वेस्टेड’ टाइप ही लगता है. कम से कम उन स्टेज-स्पीचेज को लेकर तो कुछ क्रियेटिव हुआ ही जा सकता था.
मगर इन सब के बावजूद मुझे प्रकाश की जो विशेषता सबसे आकर्षित करती है, वो ये कि कथानक या उसके ट्रीटमेंट पर वो किसी अनावश्यक बौद्धिकता का मुलम्मा नही चढ़ाते (और उनकी ’दामुल’ मैने नही देखी है). और यदि दर्शक अत्यधिक ’डम्ब’ (हफ़्ते भर पहले ’हाउसफ़ुल’ देखी थी) या अतिशय बुद्धिजीवी नही है, तो प्रकाश झा अपनी (मनमोहन देसाई या सिप्पी टाइप) दमदार किस्सागोई के द्वारा उसे ढाई घंटे तक बाँधे रहते हैं. और उनकी फ़िल्मे बार-बार देखे जा सकने की हद तक मनोरंजक होती हैं. और भी महत्वपूर्ण यह कि उनकी इन फ़िल्मों मे हमे ’उस हिंदुस्तान’ की झलक मिलती है जो आज के सिनेमा के परदे से तेजी से गायब होता जा रहा है. सिर्फ़ इतनी बातें ही उनकी हर आने वाली फ़िल्म को प्रतीक्षा योग्य बनाती हैं, भले ही उसका रिजल्ट हर बार उतना सुखद न रहे. कुल मिला कर मै भी मानता हूँ कि ’राजनीति’ मे वो अपने प्लाट को ले कर ’इम्पक्केबल’ नही रह पाये और न ट्रीटमेंट को ले कर कल्पनाशील (खासकर सो-काल्ड ’कर्ण-कुंती-संवाद’ तो समझ नही आया कि इमोशनल है या कॉमिक?) मगर जब तक हम उनसे युग-प्रवर्तक फ़िल्मों की अपेक्षा न करें, तब तक उनकी फ़िल्मों पे पैसे खर्च करना कभी घाटे का सौदा नही लगता.
वैसे अब एक और मिथकीय कथानक के किसी मास्टर-डाइरेक्टर द्वारा ’माडर्न-मेकओवर’ टाइप प्रोजेक्ट ’रावण’ के प्रति उत्सुकता चरम पर है, ट्रेलर्स इसे और कटालाइज ही करते हैं. कितनी खरी उतरेगी, यह देखना बाकी है!
''मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि प्रकाश झा की फिल्में सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने के बीच वही एंग्री यंग मैन वाली मसाला फिल्में रही हैं और चूंकि वे हमेशा पिछड़े हुए बिहार की कहानी होती हैं (इस बार मध्यप्रदेश में भी बिहार की ही), इसलिए लोग उन्हें सिर्फ सामाजिक या 'सार्थक' फिल्में समझने की भूल कर बैठते हैं। उनमें आक्रोश होता है और स्टाइलिश हिंसा, इसीलिए उन्हें दर्शक भी मिलते हैं।''
मैंने फिल्म अभी देखी नहीं(समीक्षा के बाद भी देखूंगा)....मगर, प्रकाश झा की निर्देशन क्षमता पर ये निर्णायक टिप्पणी बेहद साधारण लगी...पहली बात, प्रकाश झा की हर फिल्म का मूल अलग होता है..बिहार एक ढांचे की तरह कई फिल्मों में मौजूद हो सकता है, मगर उन्हें दर्शक मिलने की आपकी वजह जंची नहीं....दामुल, दिल क्या करे, मुंगेरीलाल के हसीन सपने(सीरियल) उनकी वैराइटी और क्राफ्ट के नमूने भर हैं...इन्हें भी दर्शक खूब मिले थे...
खैर, फिल्म समीक्षाएं इतनी पढ़ चुका हूं कि फिल्म देखने के वक्त भी समीक्षकों के उपदेश डिस्टर्ब करते रहेंगे, फिर भी देखूंगा
अभी तक के पढ़े किसी भी हिन्दी रिव्यू से बेहतर रिव्यू लगा आपका।
अच्छा कहा आपने...बहुत सारी उम्मीदों के साथ पहले दिन ही ह़ल पहुंच गया था...लेकिन जब फिल्म खत्म हुई तो पता चला कि मैंने दिल क्या करें के बाद झा साहब की सबसे कमजोर फिल्म देखी है...
उम्मीद से बहुत नीचे...
@ निखिल, दामुल और दिल क्या करे को तो दर्शक नहीं मिले. और यह उनकी 'अपहरण', 'गंगाजल' और 'राजनीति' के संदर्भ में है, जो करीब- करीब उनके फिल्मी हिट करियर का चालीस पचास फीसदी तो हैं ही. राजनीति को देखकर नहीं लगता कि यह किसी समर्थवान निर्देशक की फिल्म है. वे समय और यथार्थ पर से अपनी पकड़ खो चुके से लगते हैं और सबसे बुरी बात, जिस तरह वे अपने खलनायकों को जस्टिफाइ करते हैं, उससे लगता है कि या तो उनकी समझ में यह नहीं आया या उनकी नीयत खराब थी.
अगर प्रकाश झा भी पैसा कमाने की होड़ में राजनीति बनाकर निश्चिंत हो गए है, तब तो फिल्म जल्दी ही देखूंगा.....कई अच्छे निर्देशकों का यही हाल हो गया है....विशआाल भारद्वाज कमीने में कन्फ्यूज करते हैं, राकेश मेहरा रंग दे बसंती के बाद दिल्ली 6 में भटक गए हैं....श्याम बेनेगल तक डीडी छाप फिल्में बना रहे हैं जिसमें सरकारी पैसा मिलने की गुंजाइश हो....अब क्या अनीस बज़्मी की फिल्मों को यथार्थ मानना पडेगा...इस देश का क्या होगा गौरव...
यह माना कि फिल्में राजनीति का चित्रण नहीं कर सकती हैं पर तब आप क्या कीजियेगा जब राजनीति ही फिल्मी हो जाये ।
solanki jee ur two words of intellect n illusory language cant discard prakash jha's initiative 2 put forth d true social subjects on celluloid................u need sm introspection n inspection 2 say ny word on prakash sir n bihar respectively................aalochana saarthak aarthon ke saath honi chahiye na ki nirarthak shabdadambar ke sath
Mujhe is film mein aur Maniratnam ki film "GURU" mein kuchh kuchh common chezein dikhti hain.
dono hi bahut kamjor filmein hain.
मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूँगा... बस "नीरज" जी के लिए यह लिंक ले कर आया हूँ।
जिस पीएचडी थेसिस के नाम पर एक "समझदार" हँसता है, उसी पीएचडी थेसिस पर कोई दूसरा "समझदार" (कम या ज्यादा.. यह आप हीं निर्धारित करें) कुछ रोचक जानकारियाँ लेकर आया है। बाकी तो आप खुद हीं समझ जाएँगे।
http://passionforcinema.com/the-dissertation-of-dr-samar-pratap/
गौरव जी,
"बिहार" के प्राति आपका प्रेम देखकर आँखों से आँसू आ गए। reference के लिए आपकी हीं पंक्तियाँ:
मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि प्रकाश झा की फिल्में सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने के बीच वही एंग्री यंग मैन वाली मसाला फिल्में रही हैं और चूंकि वे हमेशा पिछड़े हुए बिहार की कहानी होती हैं (इस बार मध्यप्रदेश में भी बिहार की ही), इसलिए लोग उन्हें सिर्फ सामाजिक या 'सार्थक' फिल्में समझने की भूल कर बैठते हैं।
काश बिहार यूँ हीं पिछड़ा रहे हमेशा और प्रकाश झा ऐसे हीं "एंग्री यंग मैन" वाली फिल्में बनाते रहें, क्योंकि और किसी प्रदेश के फिल्मकारों में तो इतनी हिम्मत भी नहीं।
वैसे... आपकी समीक्षा अलग तरह की है...... व्यक्तिगत आक्षेप से बचने की आपने पूरी कोशिश की है (अगर प्रकाश झा को छोड़ दें तो) यह समीक्षा/आलोचना पसंदा आई।
Krish Bihari noor ka ik misra hai..
"gunaah kya hai ye jana gunaah ke baad.."
hum bhi movie dekhne ka gunaah kar ke jaane ye gunaah hai...
Kaash Prakaash Jha ye Gunaah kar ke samjh jaayen ki ye gunaah hai..aur esi punravritti na ho..
-Masto
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