चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ

यह उजाले की मजबूरी है
कि उसकी आँखें नहीं होतीं
और वह ख़ुद अपने लिए
अँधेरा ही है।
जिस तरह सब लालटेनें अनपढ़ हैं,
सब पंखे गर्मी से बेहाल,
अब आरामदेह गद्दे खुरदरी लकड़ी और नुकीली कीलों के बीच धँसे हैं ,
याहू मैसेंजर का नहीं है कोई दोस्त,
सब एसी कारें सड़कों पर धूप में जल और चल रही हैं,
नंगे हैं महंगे से महंगे कपड़े,
मछलियाँ संसार के किसी भी पानी में डूबकर
आत्महत्या नहीं कर सकतीं,
नहीं है जुबान किसी इस्पात-से गीत के पास भी,
कोई शीशा नहीं देख सकता
किसी शीशे में अपने नैन-नक्श।

चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ
और नौकरी करने वाले दोस्त काम आएँगे,
यह उनकी इच्छा के साथ-साथ
शनिवार और इतवार के होने पर भी निर्भर करता है।

आँखों में काँटे या आग है
इसलिए किताबें और दुखद होती जाती हैं,
फिल्में थोड़ी और काली,
शहर थोड़ा और राख
और इस तरह इस कविता में भी विद्रोह है
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था।



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20 पाठकों का कहना है :

Unknown said...

once again a nice work like always :).
but I m still confused abt title (Do u want to convey more in this title that I m not getting)

गौरव सोलंकी said...

@Ashish
For me, the title is not necessarily the theme of the poem. Generally I choose my favourite line as title...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अनोखे अंदाज़ में लिखी गई इस विद्रोही कविता के लिए बधाई.
आपको और शायद मुझे भी, नहीं मालूम कि कल यह कितनी पढ़ी जायेगी..! मगर मेरी कामना है कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

फैंटास्टिक डियर !
फैंटास्टिक।

दिलीप said...

waah bahut sundar abhivyakti...

Dr Anjali solanki said...

यह उजाले की मजबूरी है
कि उसकी आँखें नहीं होतीं
और वह ख़ुद अपने लिए
अँधेरा ही है।
badhiyaa......

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया !!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

तुम्हारे लिये तालियाँ बजा रहा हूँ.. हो सकता है सुनाई दे रही हों....

Stuti Pandey said...

बहुत अच्छा लिखते हैं आप. आपका लेखन हमेशा सोच में डुबो देता है. शुभकामना!

प्रवीण पाण्डेय said...

अलग है पर अच्छी लगी ।

राहुल पाठक said...

Gourav Solanki is back..

"चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ"

Bahut hi badiya likha hai...bilkul sach....

सब पंखे गर्मी से बेहाल,
अब आरामदेह गद्दे खुरदरी लकड़ी और नुकीली कीलों के बीच धँसे हैं ,

:)

Sadhu Sadhu......
Bahut hi achi rachna.....


abhi bhi tumhari Chadikao ke intazar me....

चन्दन said...

तुम्हारी सबसे बेहतरीन कविताओं मे से एक!

I am posting it on my blog without your permission..ok?

Anonymous said...

badhiyaa hai

Anonymous said...

badhiya hai

प्रदीप जिलवाने said...

एक और उम्‍दा कविता. बधाई.

Apurva Srivastav said...

beautiful capture of the irony of life and nature.
loved the poem & the title !
amazingly true .. every line !

स्वप्निल तिवारी said...

incredible .... har cheez me virodhabhas ko dhundh nikala ... adbhut

विवेक रस्तोगी said...

पर इतना विद्रोह क्यों ? इस विद्रोही कविता से बहुत ही ज्यादा विद्रोह झलक रहा है वो भी भौतिक सुख सुविधाओं की चीजों से जैसे पंखा, कार आदि.

विश्व दीपक said...

तुम्हारी अब तक की सबसे सुलझी रचना....

या शायद तुम्हारी बाकी रचनाओं को मैं समझ नहीं पाया हूँ

जो भी कारण हो, लेकिन यह रचना पसंद आई। विद्रोह "खुलकर" सामने आ रहा है।

-विश्व दीपक

गौतम राजऋषि said...

उफ़्फ़्फ़...इन अनूठे बिम्बों का जादू। इस कविता को अपनी पसंदीदा फ़ेहरिश्त में शामिल कर रहा हूँ।