यह किसी घायल वर्ष की अनोखी रात है,
काली रसोई, खाली बर्तन और भूख।
धूप ऐसे है, जैसे चोर हो
पिता, जैसे बस याद
और माँगने हों पैसे और भाग जाना हो।
शहर बार बार आता हो,बार-बार रुकती हो बस,
सीटियां, कंडक्टर, उतर जाना, खाना चोटें,
लौटना क्योंकि सामान भूल जाना।
एक अनजान लड़की से पूछना उसका नाम, फोन नम्बर
और भूल जाना,
वह करती है इंतज़ार पूरे अगस्त
और फिर इतनी हताश होती है कि जिए जाती है।
बारात में नाचते हुए
पछाड़ खाकर गिरना,
किसी को पुकारते हुए पहचानना अपनी आवाज,
तालियां बजाना और अपने हाथों को सितार होते हुए देखना,
अचानक याद आना कि सुबह का भूला हूं।
इतनी देर होना
जैसे जल्दी हो और काटना हो अभी और वक्त,
देखते हुए लोग और उनके बच्चे, गिनते हुए दुख।
चोट और जेल बहुत आम शब्द हैं,
छुट्टी नहीं
और लौट आएँ कि इससे पहले रात हो
हमें बाँधनी हैं अपनी दीवारें
उतारने हैं बाहर से इश्तिहार
गरारे करके नर्म करनी है आवाज़
और फिर टीवी ऑन करके सोना है, खरीदना है उससे पहले
लेने हैं लोन, दिखानी है देशभक्ति,
कारों को अच्छा और नारों को बुरा कहना है।
हम निश्चित ही धुंध में पहचाने जाएँगे,
प्रेम और बारिश के किसी दिन।
किसी पन्द्रह अगस्त को उठाएगी पुलिस
और अदालतों में ताश खेले जा रहे होंगे,
जज साहब कहेंगे कि
उन्हें कैटरीना कैफ से हो गया है इश्क़
और जब हम ‘बेकसूर’ जैसे किसी फिल्मी शब्द से
खत्म करते होंगे अपना बयान
आप कहेंगे कि यह नाटक है
और इस पर टमाटर फेंके जाने चाहिए।
रात से पहले, नींद से ज़्यादा।
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12 पाठकों का कहना है :
la-jabav!!
जबरदस्त
nice
vah gourav ji. bahut khoob. kafi aage tak jaoge.
अद्भुत बड़े भाई...
छुट्टी नहीं
और लौट आएँ कि इससे पहले रात हो
हमें बाँधनी हैं अपनी दीवारें
उतारने हैं बाहर से इश्तिहार
गरारे करके नर्म करनी है आवाज़
और फिर टीवी ऑन करके सोना है, खरीदना है उससे पहले
लेने हैं लोन, दिखानी है देशभक्ति,
कारों को अच्छा और नारों को बुरा कहना है ..
ये सब कुछ तो हो रहहै आज कल ... तो क्या आज हर रात घायल है .... या बस ये भी ..... यूँ ही ....
शशक्त अभिव्यक्ति ...
गौरवजी, यह काव्यात्मकता बनाये रखिये ।
My Goodness! Kya likhte Ho Bhai!!! At times you become a volcano of awesome imaginations...
Shrikant
गौरव. जबसे मैने आपकी कविता " तेरी वो सहेली कह्ती है पढी थी. तभी से मै आपका पीछा कर रहा हूँ (follower हूँ). आज भी अप्ने कइ मित्रोँ को गाहे ब गाहे आपकी कुछ् कवितायेँ पढाता रहता हूँ. कारण यह था कि आपकी पिछली कविताओँ से मै खुद को जोड पाता था . और यही कमोबेश एक कवि की सफलता भी होती है. मगर पिछले कुछ पोस्ट मेरी समझ के बाहर ( या कहेँ उपर) रहे हैँ . कारण कदाचित मेरा अल्पग्यान रहा हो. परंतु सत्य यही है कि मै समझ नही पाया. दुख यह कह्ने मे हो रहा है गौरव की ये आपकी कविता हो सकती है मेरी नहीं... मेरी बात का अन्यथा अर्थ न लिया जाये. यह एक follower की निराशा भर है.
सत्य
ओर हाँ पिछ्ले पोस्ट की भी बात यहीँ कर दूँ. बिला शक आपने एक बहुत अच्छा review दिया है राजनिती का.मगर politically correct नही कहना ज्यादती हो गयी. मुझे तवक्को है कि आप मेरे इस बात से सहमत् होंगे कि दामुल is a pollitically coreect movie.and barring recognition it hardly collect a handfull of penny.अत: जब आप director और producer दोनो हो तो थोडी सी सिनेमाटिक लिबर्टी बनती है भाई.
और चुकि मै आपका नियमित पाठक हूँ इसलिये मेरी एक शिकायत बनती है .. आप बडी बजट की फिल्मोँ का ही रिव्यू करते है.आपका ध्यान mumbai /.. a city of gold पर नही जाता. कभी सिद्धार्थ जाधव के अभिनय पर भी कुछ लिखेँ.
सत्य
हकीकत के जामे पर,
कैक्ट्स टके है,
समाजिक आडम्बर के,
जिसके चश्मे उतरने ही चाहिये!
@सत्य... आप तहलका में देखेंगे तो सिटी ऑफ गोल्ड की समीक्षा भी मिलेगी और बाकी छोटी फिल्मों की भी... http://www.tehelkahindi.com/review/films/index.1.html
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