सब कुछ छिना जा रहा
रेंगकर छिपकलियां होती जा रहीं ओझल
दीवारों पर से उतरती पपड़ी के निशान
किसी हिन्दी शब्द जैसे हैं
जिसका अर्थ अभी इसी क्षण हम कुएं में फेंक आएंगे
भूल जाएंगे
‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो’ गाती हुई लड़कियों को
बीच में रोककर चूमा नहीं जा सकता
स्कूल चूंकि प्रार्थनाओं से चलते हैं
कतारों में चलेगा प्रेम
और अपनी अपनी कक्षाओं में जाकर बैठेगा
आसमान से तोड़कर लाए जाएंगे मास्टरजी
जो रबी और खरीफ का फर्क जरूर जानते होंगे
यह रजिस्टर में लिखा है
और फिर सामने बोर्ड पर कि
वे छीनेंगे मुझसे मेरी निराशा
मैं कहीं का न रहूंगा
घोड़ों पर मौत आएगी दूरबीन की तरह
मेरे ऊपर खुदी होगी उसकी कीमत
और जब आप मुझे खोलेंगे
तो दरअसल मर रहे होंगे
’शहीद होना था’ यह एक पश्चाताप की तरह
दूर से देखा जा सकेगा
पास से लगेगा वाक्य
जब सब पिट रहे होंगे
मैं दृश्य से निकाल दूंगा चाँटे
हथकड़ियों को धो-माँजकर छिपा दूँगा
डोलियों के नीचे से कहारों को निकालकर
ही रुक पाएंगी शादियाँ
दुखों के नाम नहीं होंगे
कि उनकी हत्याएँ की जा सकें
पैदल चलना होता जाएगा मुहावरा
सुबह का सूरज मुझसे पहले ख़त्म होगा
और फिर रोटी जब बाँटी जाएगी
तब हथियार होगी
स्कूल से लौटती हुई सब लड़कियाँ भी
छीनी जा रही होती हैं
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सब कुछ छिना जा रहा |
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उसके पीछे हमारी पागल गायें |
हम सुबह से सोचते थे कि मारे जाएंगे
बिजली भागती थी
उसके पीछे हमारी पागल गायें
और इस तरह हम अनाथ होते थे
बाड़ में कुछ फूल उग आए थे
जिनका नाम रखा गया इंदिरा गाँधी के नाम पर
होते गए हमारे नाक बन्द मरते गए डॉक्टर
एक गाली लगातार तैरती थी क्रिकेट मैचों के बीच
मेरी बहन ने पहले हमारे खेल देखना
फिर रस्सी कूदना छोड़ा
खुले दरवाजे से बिस्किट खाते हुए आए पिता
और पीली दीवार के सामने फेरे हुए
जिस पर से शाहरुख ख़ान की तस्वीर सुबह हटाई गई थी
मुझे लगी थी भूख और सारी तस्वीरें उदास आईं
एलबम बाँधकर हमने सोचा कि तीन हजार में खरीदा जा सकता था कूलर
बाद में तीन अच्छी लड़कियों की एक-एक रात
पहले कभी पिताजी के लिए नौकरी
या कभी भी साढ़े चार पुलिस वाले
शोर जब खूब होता था
मैंने तुम्हारे गले पर रखा अपना चुभने वाला हाथ
और यूँ तुम्हारी आवाज को खा गया बिल्कुल मासूम
पापा जब बिस्किट खरीद रहे थे खुश
तब मैंने खोला था दरवाजा
और तुम बन्द हो गई थी
हम सबने शुरु से तय किया था
कि तुम्हारी हर चिट्ठी पढ़ा करेंगे
खूब था गोंद और खोलकर चिपकाते थे
उत्सव हुआ जैसे थी आदत
फिर पीछे फूल और चांदी फेंकी गई
जब सब लौटे
तब दूर से हमें रोते हुए दिखाई देना था
वीडियो कैसेट में हम गोरे लग रहे थे
नए थे गाने
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खाली होते हैं घर, लदता है सामान |
चिमटे से पकड़कर सूरज को उठाते हुए
याद आती हैं हिदायतें
सपनों का फ़र्ज़ है कि उनके अंत में गुफा हो
और उसमें मृत्यु
मृत्यु महानता की तरह आए
पुजारी करे ईश्वर की तरह माथे पर तिलक
हिजड़े बदतमीज और सपेरे डरावने हों
आप मुट्ठी बंद करें और उल्टे लौटें
दबे पाँव खुले खुले
खुश रहो राजा बेटा!
तंग होते हुए ब्रश करना बाल बनाना
दुखी होते हुए होना ज्ञानवान
पैदा होते हुए पिता
हथेलियों में सहेजकर रखना पुराना पसीना
स्विच दबाना और मरने की एक्टिंग करना
भूल जाना कि किसे किसे रखना था याद
किससे करनी थी नफ़रत
किसे माफ़ और किसे प्यार करना था
नुक्कड़ों से डरकर बाजारों में छिपते हुए
मैं चला जाता हूं कि शाम आती ही है और आएगी
आप उबलते हुए दूध से नहीं धो सकते चेहरा चाहे कितना भी महंगा हो
लिखना कोई एक अक्षर और पूछना सौ हिज्जे, तीस कहानियाँ
स्कूल के जूते बेचकर चाकू खरीदते हुए मुझे लगा
कि हमारे यहां भी होना था जीवन
यह सबसे आखिर में याद आया कि
किसी और के आने में आपको जाना होता है
खाली होते हैं घर, लदता है सामान
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चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ |
यह उजाले की मजबूरी है
कि उसकी आँखें नहीं होतीं
और वह ख़ुद अपने लिए
अँधेरा ही है।
जिस तरह सब लालटेनें अनपढ़ हैं,
सब पंखे गर्मी से बेहाल,
अब आरामदेह गद्दे खुरदरी लकड़ी और नुकीली कीलों के बीच धँसे हैं ,
याहू मैसेंजर का नहीं है कोई दोस्त,
सब एसी कारें सड़कों पर धूप में जल और चल रही हैं,
नंगे हैं महंगे से महंगे कपड़े,
मछलियाँ संसार के किसी भी पानी में डूबकर
आत्महत्या नहीं कर सकतीं,
नहीं है जुबान किसी इस्पात-से गीत के पास भी,
कोई शीशा नहीं देख सकता
किसी शीशे में अपने नैन-नक्श।
चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ
और नौकरी करने वाले दोस्त काम आएँगे,
यह उनकी इच्छा के साथ-साथ
शनिवार और इतवार के होने पर भी निर्भर करता है।
आँखों में काँटे या आग है
इसलिए किताबें और दुखद होती जाती हैं,
फिल्में थोड़ी और काली,
शहर थोड़ा और राख
और इस तरह इस कविता में भी विद्रोह है
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था।
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रात से पहले, नींद से ज़्यादा |
यह किसी घायल वर्ष की अनोखी रात है,
काली रसोई, खाली बर्तन और भूख।
धूप ऐसे है, जैसे चोर हो
पिता, जैसे बस याद
और माँगने हों पैसे और भाग जाना हो।
शहर बार बार आता हो,बार-बार रुकती हो बस,
सीटियां, कंडक्टर, उतर जाना, खाना चोटें,
लौटना क्योंकि सामान भूल जाना।
एक अनजान लड़की से पूछना उसका नाम, फोन नम्बर
और भूल जाना,
वह करती है इंतज़ार पूरे अगस्त
और फिर इतनी हताश होती है कि जिए जाती है।
बारात में नाचते हुए
पछाड़ खाकर गिरना,
किसी को पुकारते हुए पहचानना अपनी आवाज,
तालियां बजाना और अपने हाथों को सितार होते हुए देखना,
अचानक याद आना कि सुबह का भूला हूं।
इतनी देर होना
जैसे जल्दी हो और काटना हो अभी और वक्त,
देखते हुए लोग और उनके बच्चे, गिनते हुए दुख।
चोट और जेल बहुत आम शब्द हैं,
छुट्टी नहीं
और लौट आएँ कि इससे पहले रात हो
हमें बाँधनी हैं अपनी दीवारें
उतारने हैं बाहर से इश्तिहार
गरारे करके नर्म करनी है आवाज़
और फिर टीवी ऑन करके सोना है, खरीदना है उससे पहले
लेने हैं लोन, दिखानी है देशभक्ति,
कारों को अच्छा और नारों को बुरा कहना है।
हम निश्चित ही धुंध में पहचाने जाएँगे,
प्रेम और बारिश के किसी दिन।
किसी पन्द्रह अगस्त को उठाएगी पुलिस
और अदालतों में ताश खेले जा रहे होंगे,
जज साहब कहेंगे कि
उन्हें कैटरीना कैफ से हो गया है इश्क़
और जब हम ‘बेकसूर’ जैसे किसी फिल्मी शब्द से
खत्म करते होंगे अपना बयान
आप कहेंगे कि यह नाटक है
और इस पर टमाटर फेंके जाने चाहिए।
रात से पहले, नींद से ज़्यादा।
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राजनीति Politically Correct नहीं है |
राजनीति मनोरंजक है (आखिरी आधे घंटे को छोड़कर) लेकिन Politically उतनी ही ठीक है, जितनी कैटरीना कैफ की हिन्दी। इसके सामाजिक सरोकार उतने ही आधुनिक हैं, जितना प्रचार के लिए राहुल गांधी की नकल करते हुए लोकल ट्रेन में घूमने वाले रणबीर के रहे होंगे। यह महाभारत का (या बकौल प्रकाश झा, उसके किरदारों का) आधुनिक संस्करण है लेकिन हिम्मती नहीं।
मगर शुरू से ऐसा नहीं होता। यह साल की सबसे मजबूत फिल्मों की तरह शुरू होती है, अपने बहुत सारे किरदारों, बहुत सारी पार्टियों और एक परिवार की कहानी के साथ। तब यह कसी हुई है और महाभारत से मिलते जुलते नए किरदारों को पहचान कर आप खुश और चकित भी होते हैं। फिर धोखे और हत्याएं होनी शुरू होती हैं और तब भी यह सब thrilling है और बाँधे रखता है। बीच में कैटरीना जरूर आती हैं और अच्छी acting करने की पूरी कोशिश करती हैं लेकिन उन्हें नाकाम होते देखना बहुत कष्टदायक है और आपको उनपर इतना तरस आता है कि आप उनका चेहरा देखने से बचते हैं (वही चेहरा, जिसके लिए आपने कई सौ रुपए कई बार खर्च किए होंगे- उनकी बेवकूफ फिल्मों के लिए, जिन्हें वे गर्व से करती हैं)। बाकी सब तो कमाल के एक्टर हैं ही, लेकिन अर्जुन रामपाल की एक्टिंग surprising package है। फिर मासूम से रणबीर आते हैं और उतने मासूम नहीं रहते। यहीं से फिल्म अपनी दिशा पकड़ना शुरू करती है और साथ ही 'सही' होने से बचते रहना भी।
नाटकीय घटनाएं तो हैं और वे प्रकाश झा की पिछली फिल्मों में भी रही हैं। मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि प्रकाश झा की फिल्में सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने के बीच वही एंग्री यंग मैन वाली मसाला फिल्में रही हैं और चूंकि वे हमेशा पिछड़े हुए बिहार की कहानी होती हैं (इस बार मध्यप्रदेश में भी बिहार की ही), इसलिए लोग उन्हें सिर्फ सामाजिक या 'सार्थक' फिल्में समझने की भूल कर बैठते हैं। उनमें आक्रोश होता है और स्टाइलिश हिंसा, इसीलिए उन्हें दर्शक भी मिलते हैं।
फिल्म का पहला आधा हिस्सा महाभारत के पांडवों और श्रीकृष्ण को भी नकारात्मक सा दिखाता है और चूंकि घटनाएं कहीं न कहीं महाभारत से मिलती हैं इसलिए आपको अच्छा लगता है कि यह एक पुरानी गलत व्याख्यायित की गई कहानी का आधुनिक और स्वतंत्र वर्जन होगा। मतलब यह कि आप उम्मीद करेंगे कि द्रोपदी को बलिदान नहीं देने पड़ेंगे और अर्जुन को धर्म का रक्षक नहीं बताया जाएगा। मगर आखिरी आधे-एक घंटे में वे वही करते हैं, जो 'महाभारत' हमारे समाज के साथ करती आई है। द्रोपदी के साथ कुछ भी करो, आप उसे इस्तेमाल की चीज बना लो और बेच-खरीद लो लेकिन तीन-चार दिन में वह सब भूल जाएगी (पहले यह रोना रोकर कि हम औरतों को समझौते करने ही पड़ते हैं) और आपके किसी भी नायक से बेतहाशा प्यार करने लगेगी। क्योंकि आप इस अपराधबोध के साथ नहीं जी सकते कि आपने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी है इसलिए आखिरी हिस्से में वह आपको माफ कर चुकी होगी और यह भी अहसास करवाएगी कि हां, हीरो जी, आपने जो भी किया, वह आपकी मजबूरी थी और हीरो जी आपका जीवन तबाह करके चल देंगे और सॉरी बोलेंगे, आँखों में नकली से आँसू भर लाएँगे। इसीलिए यह बहुत सी मुंबईया फिल्मों की तरह घोर पुरुष-शासित फिल्म है और इसमें स्त्रियाँ passive ही हैं। वे आपके खेलने के लिए बनी हैं और खुश या बेवकूफ या दोनों हैं।
अजय देवगन का किरदार, जो कर्ण का है, सशक्त है लेकिन निर्देशक महोदय के चक्कर में उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। कितना अच्छा होता कि यह 'महाभारत' का कुछ वैसा ही रीमेक बन पाता जैसा 'देव डी' 'देवदास' का थी। कुछ लोग आपके खोखले और नकली आदर्शों से विद्रोह करते और नई दुनिया बना डालते। लेकिन यही 'राजनीति' की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसमें धारा के विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं है। उसके लेखक-निर्देशक नहीं समझ पाते कि कैसे खत्म करें तो वे पुरानी हिन्दी फिल्मों को ही याद करते हैं, जिनमें हीरो आखिर में हीरो ही बना रहेगा और खबरदार, जो आप उसके बारे में कुछ बुरा सोचते हुए थियेटर से निकले। इसके लिए आखिर में मधुर सा संगीत बजेगा और हीरो अपने पक्ष में सहानुभूति जुटाने के लिए चार लाइनें बोलकर चलता बनेगा और हीरोइन को गर्भवती होने की खुशखबरी सुनानी होगी।
आप बस ये मत कहिए कि आपने कुछ अलग या नया बनाया है या आप हमारी और समाज की फिक्र करते हैं। हम इसे एक अच्छी एक्शन थ्रिलर तो मानने को तैयार हैं लेकिन सच्ची और बोल्ड फिल्म नहीं। यह बच्चों के लिए नहीं है, इसलिए नहीं कि इसमें अश्लीलता या क्रूरता है, बल्कि इसलिए कि यह अपनी बुराइयों को नैतिक शिक्षा की किताब में सिखाती है। यह साल की सबसे कमजोर फिल्मों की तरह खत्म होती है और आपसे उम्मीद करती है कि आप उसके खलनायक से सहानुभूति से पेश आएं और उनके आगे हाथ जोड़ें, जो अर्जुन है या स्वयं श्रीकृष्ण।