उधर से आओ तुम दोबारा
पान और पैसे खाते हुए
दृश्य में शाम को कोई टीवी देख रहा हो,
फिल्म नहीं
दर्द नहीं के बराबर होता हो,
कोई बच्चा बाँटता हो टॉफी तो बेहतर है।
हम सैनिक बनें या सताए जाएँ,
टक्कर खाएँ या अकेले हों,
किसी को भाई कहकर पुकारें और डरें नहीं,
जैसे डरना गिर गया हो छत से।
किसी की अंत्येष्टि हो तो
हम मुस्कुराना और योजनाएं बनाना सीखें।
सोते-सोते लिखना सीखें किताबें,
ट्रेन में करना प्यार।
दर्द हो तो
उसे दृश्य से मिटाकर सीख पाएं
बच्चों से टॉफी बँटवाना।
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8 पाठकों का कहना है :
अच्छा है !!!
badhiya
दिलचस्प!!!!!
आपकी कवितायें ज्यादातर मेरी समझ के बाहर होती हैं...पर आपका लिखा पढने के लिए मैं लालायित भी रहता हूँ क्यूंकि वे अलग-अलग न जाने कितने दृश्यों, स्थितियों-परिस्थितियों में उड़ा कर ले जाती हैं और अक्सर पटक भी देती हैं कहीं ले जाकर....
कभी-कभी दर्द कितने अच्छे लगते हैं न!!!
nice
अलग अलग प्रसंग .. अलग अलग दृश्यों को जोड़ कर लिखी .... पर अंत में दर्द को भूल जाने चेष्टा ... अच्छी लगी आपकी कविता ...
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