जहां से सड़क शुरू होती थी
वहां पहली दफ़ा मैंने जानी
कोई राह न बचने वाली बात
और यह कि मजबूर होना किसी औरत का नाम नहीं है।
जब सब मेरे सामने थे
तब मैं रुआंसा और कमज़ोर हुआ
और शोर बहुत था
कि गर्मियां आती गईं गाँव के न होने पर भी।
भूल जाऊँ मैं अँधेरा, हँसी और डिश एंटिने,
पक्षियों से मोहब्बत हो तो जिया जाए,
हवास खोकर पानी ढूँढ़ें, मर जाएँ
और किसी बस में न जाना हो हमेशा अकेले।
वे सराय, जिनमें हम रुकते किसी साल
अगर हम जाते कहीं और रात होती,
वे पहाड़, जिन पर टूटते हमारे पैर,
वे चैनल, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाता और हम करते इंतज़ार,
वे चूहे, जो घूमते मूर्तियों पर सुनहरे मन्दिर में,
वे शहर, जिनमें रंग और सूरज हों, रिक्शों के बिना,
हम अगले साल धान बोते तुम्हारे खेत में
और उनमें वे सब हमारे दुख के साथ उगते।
अकाल हो विधाता!
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10 पाठकों का कहना है :
वाह! अकाल हो विधाता!
bahut khoob mitra....asha nirasha ka khoob mishran...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
tum bade kavi ho gaurav.
बहुत अच्छी प्रस्तुति
bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
गजब लिखा है........"
एक अजीब सी बेचैनी से भर उठी ..........
अच्छी रचना
Achi rachna hai......
Nayi Kshadikao ke intjar me..............
vaaah...
आखिरी लाइन क़यामत है ....
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