हम अचानक किसी शहर की छत पर
रंगीन आसमान के नीचे
अपने सपने काट रहे होते हैं
तुम्हारे सुन्दर हाथों में हमारे मालिकों,
हमें बताओ कि
हमें क्या सोचना है और क्या नहीं,
कहाँ जाना है और कहाँ नहीं,
कौनसे पानी से चेहरा धोना है,
कौनसे को रोना है आँसुओं में?
हमें बताओ और रोटी दो
और थोड़ी सी पगार।
हम सर उठाकर बाहर देखते हैं।
आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन,
ज़मीन पीस देंगे।
हमें नींद नहीं आती।
गोलियाँ खाई हैं,
काँपती नहीं जुबान
और सच का ग़श खाकर गिर पड़े हैं।
यह ज़हर की तरह उतरता है रात दिन
शहर
हमारी नसों में।
यहाँ दूर से आती है हमारे कटने की आवाज़,
हमारी नज़र का धुंधलका।
मैं महानता की हद तक अकेला हूँ
अपने ग़ुस्से में समेटता हुआ
सारी जीतों का जश्न,
बेवक़्त के खाने,
मसाले डोसे और नंगी लड़कियाँ,
ललकार और आश्वासन,
सीधे रास्तों के चालाक लोग
और अपनी कठिन होती भाषा की मज़बूरी।
मैं अपनी पूरी निरंतरता में टुकड़े टुकड़े हूँ,
हर साँस में ऑक्सीजन का आधा।
हर प्यास में भाप।
आख़िरी पेड़ के कागज़ पर कविताएँ न लिखी जाएँ।
उन पर लिखा जाए मेरा नाम
और वह सुन्दर हो
और सुखी।
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9 पाठकों का कहना है :
बेहतरीन कविता, गौरव! क्या लिखते हो मित्र!
आधुनिक जीवन शैली की जद्दोजहद उकेरती सफल अभिव्यक्ति.
आख़िरी पेड़ के कागज़ पर कविताएँ न लिखी जाएँ।
उन पर लिखा जाए मेरा नाम
और वह सुन्दर हो
और सुखी...
wah gaurav bhai.. kya khoob likha..
andar fansi hui joojhati hui si maansikata jab bhi kabhi baahar aati he to apne poore 'jvalamukhi' ki tarah fat padati he..
हमारी नसों में।
यहाँ दूर से आती है हमारे कटने की आवाज़,
हमारी नज़र का धुंधलका।
मैं महानता की हद तक अकेला हूँ
अपने ग़ुस्से में समेटता हुआ
सारी जीतों का जश्न,
बेवक़्त के खाने,
मसाले डोसे और नंगी लड़कियाँ,
ललकार और आश्वासन,
सीधे रास्तों के चालाक लोग
और अपनी कठिन होती भाषा की मज़बूरी।
... गज़ब... आप भोगे हुए लेखक हो...
आसमान फट ही गया लगता है..
मैं अपनी पूरी निरंतरता में टुकड़े टुकड़े हूँ, हर साँस में ऑक्सीजन का आधा। हर प्यास में भाप।
angaar likhte ho dost..
aap me bahut kuchh karne ki tamana hai aur janoon bhi khuda aap ko shourat de
wow.. Bahut shaandar
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