मैं जहाँ से आग रचता हूँ, गढ़ता हूँ गालियाँ
वहीं आप बर्फ़ में दबाकर आते हैं अपनी सब्जियाँ और पत्नियाँ,
मैं आपकी मेहरबानियों से इतना तंग आ चुका हूँ
कि यक़ीन मानिए
मैं आपकी भूख के किसी दिन,
चाहे वह इतवार ही क्यों न हो,
आपकी सब्जियों को जला डालूँगा बेलिहाज़
आपकी पत्नियों से नहीं किया जा सकता प्यार और नफ़रत
यह वे जानती हैं
जब आप हँस रहे होंगे
उसी क्षण मारेंगे हम गोली, यह हमारा रिवाज़ है
यानी आप तकलीफ़ में रहें, जियें उदास-उदास तो बचे रहेंगे
दफ़्तर से लौटकर चाय के साथ रोज़ रोएँ तो बेहतर है
आपकी तस्वीरों से पोंछेंगे हमारे बच्चे अपना नंगा पसीना
आपके बच्चों से पूछेंगे हमारी बोली में उनके पिताओं के नाम
जिनमें हमेशा आपका नाम हो, यह ज़रूरी नहीं
सँभालिए दिल को कि अंगूर खाने वाले लोग भी मरा करते हैं
आपको नहीं बचा पाएगा अपोलो
जैसे आपकी माँओं को नहीं बचा पाई थी भागवत
जैसे भीड़ कुछ कम थी तो बढ़ती नहीं थी साँस
जैसे सपने हमारे भी थे, माना थी हड्डियाँ कुछ कम
जैसे दरवाज़े उतने ही बन्द थे गर्मियों में भी
और चौकीदार हमें पहचानने लगे थे
जैसे वक़्त देखकर नहीं भर आता था जी
हूक उठती तो हम आपकी घास पर थूकते थे
जैसे कद गालियों की तरह अन्दर से निकलता था
जैसे चाँद निकलने से नहीं मिट जाती थी भूख
जैसे सूरज के होने का अर्थ ईश्वर का होना नहीं था
जैसे खिलौना एक ही हो
कि होना था हमें ही अपने बच्चों के लिए चींटी
यूँ कुत्ते की तरह चौकन्ना नहीं
मैं भी किसी फूल को अपने माथे पर रखकर
आपकी तरह बिन याददाश्त सोना चाहता था
लेकिन आपका सिर बिल्कुल भी प्यारा नहीं
और मेरे हाथ में बन्दूक है साहब
[+/-] |
सँभालिए दिल को कि अंगूर खाने वाले लोग भी मरा करते हैं |
[+/-] |
उसका फूल सा बच्चा और कुत्तों जैसे दिन |
यह 'रमेश पेंटर और एक किलो प्यार' नामक कहानी का तीसरा और अंतिम हिस्सा है।
पहले दोनों हिस्से-
कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी
हमजोली की गोली और हलवा बनाने की विधि
शौकत ने जेल में पहली फुर्सत पाते ही जब्बार से कहा कि वह उसकी बहन से निकाह करना चाहता है. जब्बार ने फिल्मी अंदाज में उसका सिर दीवार में दे मारा. पंक्चर लगाते रहने से उसके हाथों में छेद होने लगे थे और उसकी बहन कहती थी कि किसी दिन वह टायर की तरह फटकर मरेगा.
वह मार उस दिन की पहली या आखिरी मार नहीं थी. धर्मवीर चौहान जब अपने सिपाहियों के साथ उन छप्पन मुसलमानों को पकड़कर लाया, तब उसके सीने पर बायीं तरफ हल्का सा दांतों से काटने का निशान था और उस निशान की मीठी सी टीस में वह खुद को तैमूर समझने लगा. जब शौकत शाम वाली पाली में पिट रहा था और चूंकि उसकी हथेलियों में जब्बार की तरह छोटे छोटे छेद नहीं थे, इसलिए उनमें कीलें ठोकने की कोशिश की जा रही थी, तब उसने धर्मवीर चौहान को मादरचोद कहा.
उफ! यह पुलिस का अपमान था, इसलिए सर्दियां नहीं थी, फिर भी आग जलाई गई और ईश्वर या ईंधन होता तो शौकत बच जाता. लेकिन देश कंगाल होता जा रहा था, इसलिए लकड़ियां और केरोसिन बर्बाद नहीं किया जा सकता था. पचपन मुसलमानों और अठारह पुलिसवालों ने, जो हर धर्म के थे और हर धर्म के लिए समान थे (कोई सेंसर हो तो इस पर ध्यान दे और मेरी खताओं के लिए माफी बख्शे), देखा कि शौकत को बांधकर आग में फेंक दिया गया है.
फिर भी मेरे ईश्वर, सुबूतों और गवाहों की इतनी कमी थी कि जजों के पेट बड़े होते जाते थे और वे एक दिन केस बीच में ही छोड़कर रिटायर हो जाते थे. फिर वे अपने बंगलों की घास में अपने कुत्तों के साथ लोटते और अपने पोते-पोतियों को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार सिखाते.
धर्मवीर चौहान की बेटी आहना मेरी ही क्लास में पढ़ती थी. धर्मेन्द्र की बेटी के नाम पर उसका नाम रखा गया था. धर्मवीर चौहान को धर्मेन्द्र और सनी देओल का गुस्से से दहाड़ना बहुत पसंद था. एक दिन वह मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा कि हमें कुछ करना चाहिए. मैंने पूछा- क्या?
हमारी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन हमने सोच रखा था कि हम क्या बनेंगे. वह हीरोइन बनना चाहती थी और मैं पुलिस अफसर. लेकिन वह पूरी दुनिया को अपने हीरोइन वाले एंगल से ही देखती थी, इसलिए उसने मुझसे कहा कि क्यों न हम कुछ वैसा करें, जैसा हीरो हीरोइन करते हैं.
हीरो हीरोइन आग में फँसे लोगों को बचाते थे, मीठी आवाज में अमर गाने गाते थे, खून से लथपथ होकर भी अच्छी अच्छी बातें करते थे और कभी मरते नहीं थे. मैंने पूछा कि वह इनमें से कौनसा काम करना चाहती है? उसने कहा- इश्क.
या ख़ुदा, उसने इश्क कहा तो मैं अपनी कच्ची उम्र के बावजूद अंदर तक काँप गया. मैंने कुछ सपने देखे, जिनमें वह हमारे क्लासरूम के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे मेरी गोद में सिर रखकर लेटी थी और मैं उसकी लटें सुलझाते हुए कोई अच्छा गाना गाने की तैयारी कर रहा था. एक सुनहरे एकांत में वह देर तक मेरे ऊपर लेटी रही. यह सपना नहीं था.
उन दिनों मैं हड़बड़ाया हुआ सा रहता था. कर्फ्यू कभी होता था और कभी नहीं. मैं चौबीसों घंटे स्कूल में ही रहना चाहता था. लेकिन कई बार तीन-तीन दिन तक कर्फ्यू के चलते शहर बन्द रहता था. तब मैं अपनी बालकनी में खड़ा होकर किसी दूसरे शहर में भाग जाने की बात सोचता. भागने के दृश्य में आहना मेरी उंगली पकड़कर मेरे पीछे पीछे जरूर दौड़ रही होती. उन दिनों हम नहीं जानते थे कि तोते और गौरैया इस तरह लुप्त हो जाने वाले हैं, नहीं तो मैं उन्हें भी जीभर के सपनों में देखता.
कर्फ्यू की ही एक शाम में, जब मैं, माँ और चाचा, तीनों घर में थे, धर्मवीर चौहान आया. उसने माँ से तैयार हो जाने को कहा और कहा कि वह उसे घुमाने ले जाएगा. माँ तुरंत मुस्कुराते हुए तैयार होने चल दी. चाचा किसी दूसरे कमरे से यह सब देख रहे थे. धर्मवीर चौहान ने मुझे लाड़ से पास बुलाया और एक बड़ी चॉकलेट दी. चॉकलेट पकड़ते हुए जब उसका हाथ मेरे हाथ से टकराया तो न जाने क्यों, मैं पागलों की तरह डर गया और रोने लगा. माँ तैयार होती होती ही बाहर आई, ब्लाउज और पेटीकोट में ही, और उसे देखकर मैं और जोर से रोने लगा.
यह पतन था कोई, हाँ, मैं जानता था और मुझे जबरदस्ती उसका हिस्सा बना दिया गया था. वे सब बेशर्मी से हँसते थे और मुझे डर लगता था.
इतना डर कि मैंने माँ से कहा- मैं भी आपके साथ चलूंगा. माँ ने मुझे बहुत समझाया कि वह शो के काम से बाहर जा रही है (हमारे घर में ‘शो के काम’ का मतलब ऐसा काम था, जिस पर कोई सवाल नहीं पूछा जा सकता था और जिसके लिए मरते हुए आदमी को छोड़कर जाना भी ज्यादा बुरा नहीं समझा जा सकता था), लेकिन मैं रोता रहा और नहीं माना.
वे पुलिस की जिप्सी में मुझे अपने साथ ले गए और फिर मुझे थाने में दो तीन सिपाहियों के पास छोड़ दिया. माँ लाल रंग की साड़ी में थी और जब वह मेरी ओर स्नेह से हाथ हिलाते हुए धर्मवीर चौहान के साथ जा रही थी, तब मुझे सच में लगा कि अब वह कभी नहीं लौटेगी.
मैं थाने में इधर-उधर मँडराने लगा. सींखचों के उस पार जो लोग थे, वे मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे मरे हुए हों. उन्हीं में जब्बार था. मैंने छेद वाली हथेलियों से उसे पहचाना. उसकी दाढ़ी जगह जगह से कटी हुई थी और वह एक आँख ही खोले हुए था. जब कोई सिपाही आसपास नहीं था, तब उसने मुझे पास बुलाया.
उसके गले से ठीक से आवाज ही नहीं निकल रही थी. उसने मेरे सामने हाथ जोड़े और कुछ कहा. तीन-चार मिनट बाद मुझे समझ में आया कि वह लिखने के लिए कागज और पेन माँग रहा है. मेरी जेब में दस का एक नोट था. पेन के लिए मुझे थोड़ा भटकना पड़ा.
फिर उसने उस नोट पर तीन-चार टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें लिखी और मुझे पकड़ा दिया. वह शायद कोई और भाषा थी, जैसे उर्दू. मैं उसे पढ़ नहीं सका. जब्बार ने फिर से मेरे आगे हाथ जोड़े और रोने लगा.
उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके घर तक यह नोट पहुँचा दूँगा?
हाँ, ज़रूर.
मैं उसका घर जानता था, लेकिन उसने फिर भी दो बार मुझे पूरा रास्ता समझाया. मुझे भगतसिंह की मूर्ति वाले चौक से सीधा निकल जाना था और फिर शिवमंदिर के साथ वाली गली में मिठाइयों की एक छोटी सी दुकान तक जाना था. वहाँ से एक संकरी गली मुड़ती थी, जिसमें मुझे नीले दरवाजे वाले घर में घुस जाना था.
उस कमरे में मौज़ूद सब लोग (क्या जेल को कमरा कहा जा सकता है?) जब्बार के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे. मैं एक साथ उम्मीद और मृत्यु, दोनों था. अब वह नोट, जो मेरे पास था, किसी भी हाथ में जा सकता था. कांस्टेबल प्रवीण कुमार, मिस माधुरी या धर्मवीर चौहान के पास भी. मैं सब बातें भूलकर उसके बदले अगली सुबह किसी जनरल स्टोर से माजा की एक बोतल खरीदकर पी भी सकता था.
लेकिन जब प्रवीण कुमार ने रात ग्यारह बजे मुझे मेरे घर छोड़ा और चाचा शराब पीकर बैठे थे, उसके बाद वह रात मुझ पर बहुत भारी गुजरी. यह बताने के लिए मैं किसी परीकथा का सहारा लेना चाहता हूँ. उसे किसी और तरह बता पाना नामुमकिन ही है.
बाहर नारंगी आसमान था और धूप भी थी. इस तरह आप मुझे झूठा समझिए और खुश रहिए. इसे भी झूठ समझिए कि जब मैं बिस्तर पर औंधा लेटा था, तब मैं वहाँ नहीं, किसी और कमरे में था या किसी सुन्दर शहर के किसी चहकते हुए पार्क में या मैं उड़कर छत पर चिपक गया था और अपने आप को ऊपर से देख रहा था। कोई ऐसा नियम था, जिसमें यह मेरी गलती थी कि धरमवीर चौहान मिस माधुरी की लेता है। मैंने भी माना कि इसमें मेरी कोई न कोई गलती है। चाचा ने मुझसे पूछा और मैंने हामी भरी। उन्होंने कहा कि अब वे फिर से मुझे इस गलती की सजा देंगे और जितनी बार माँ वहाँ जाएगी, मुझे सजा मिलेगी.
मैं रोने लगा। कितना मासूम सा था मैं, गुब्बारे सा कोमल। सपने देखता था और सोचता था कि कभी पहाड़ और समुद्र देखूंगा। मुझे सजाएँ सिखाई गई और मारा गया।
संभोग कितना बदसूरत शब्द है और मैं अपने जीवन के आखिरी क्षण तक उससे घृणा करना चाहता था। मुझे दीवारों में दरारें दिखाई देती थीं और लगता था कि किसी भी पल मैं उनके साथ भरभराकर गिर जाऊँगा। जहाँ जहाँ आप मुझे मारना चाहेंगे, मैं वहाँ नहीं मिलूंगा।
लेकिन बेवकूफ! मैं तो वहाँ था ही नहीं। संसार में कितनी टॉफियाँ, गोलगप्पे और रसमलाई है। मैं किसी कस्बाई मेले में चला गया था और तरह-तरह के झूले झूलने के दौरान वह सब खा रहा था। वह सुंदर दुनिया मेरी थी और मैं उसका मालिक था। मैं जब चाहे बटन दबाकर कहीं भी जा सकता था, कुछ भी बन सकता था। इसीलिए चाचा ने जब अपनी पैंट उतारी, तब मैं छत से कुछ नीचे उतरकर पंखे की पंखुड़ी पर ही तो बैठा हुआ था। मुझमें इतनी ताकत थी कि मैं उन्हें वहीं ज़िन्दा ज़मीन के नीचे गाड़कर बाहर जा सकता था। लेकिन यह तो वहम है कि मैं वहाँ था बिस्तर पर और यदि था भी तो चूंकि उन्होंने मुझसे कहा कि यह माँ की गलती का प्रायश्चित है और मैंने नहीं किया तो माँ आज रात ही मार दी जाएगी। इसलिए जब मैं वहाँ नारंगी आसमान की उपस्थिति में अन्दर हरी चादर पर पड़ा दर्द से चिल्ला रहा था और मर जाना चाहता था, तब मुझे लगा कि मैंने शराब पी ली है या यह कोई भूतों वाला सपना है, जिसमें से मुझे जागकर बाहर निकल जाने का रास्ता खोजना है।
इस बार ज्यादा निर्मम था।
‘मेरा फूल सा बच्चा’- माँ अक्सर कहती थी।
अगले दो दिन कुत्तों जैसे बीते। मैं बटन दबाता था और दुनिया नहीं बदलती थी। माँ नहीं आई और मुझे कभी थोड़ा, कभी ज्यादा दर्द होता रहा। थोड़ा खून भी आया। नौकरानी आई और उसने पूछा कि क्या मुझे बुखार है? मैंने उसे गाली दी। उसने प्यार से मेरे लिए आलू के परांठे बनाए और मैंने प्लेट फेंककर मारी। उसने मुझे पुचकारा और मैंने उसके हाथ पर काट लिया।
तीन घंटे बाद वह जाने लगी तो मैंने पूछा- वह कहाँ है?
- कौन?
- माधुरी...
- तेरी मम्मी है बेटा।
मैंने पास रखा कप उठाकर उसकी ओर फेंका। वह झुक गई और बाल बाल बची। फिर वह भाग गई और अगले दिन नहीं आई। काश! अगला दिन भी न आता, मगर वह बेशर्म आया। मेरा जी हुआ कि किसी की हत्या कर दूं। उस रात के बाद से मैं रो भी नहीं पा रहा था। चाचा उस रात के बाद बाहर ही रहे, यहाँ तक कि अगली रात में भी। जब अँधेरा घिरा तो धरती घूमने लगी। मेरे अन्दर से हूक सी उठी और मैं बेहोश हो गया। जब मैं उठा तो दस बजकर दस मिनट हुए थे। पाँच कमरों वाले उस वहशी घर में मैं अकेला था। मुझे तेज भूख लगी थी और कुछ मिनट के लिए मुझे लगा कि अब दुनिया कुछ बेहतर है। मुझे लगा कि मैं भूल गया हूँ और अब जिया जा सकेगा।
वह जो रसोईघर था, जिसके वास्तुशास्त्र में मेरी जन्मकुंडली जितनी ही खामियाँ रही होंगी, उसकी टोंटी से जब मैं गिलास में पानी भर रहा था, तब मुझे अपने पिता की याद आई।
वे मुझे दो-तीन साल बाद याद आए थे। उनका जो चेहरा मेरे दिमाग में था, वह दुनिया का सबसे मासूम चेहरा था। वे इतने भोले थे कि जब उनकी हत्या हुई, वे सोच रहे थे कि चाचा उनके गले लगने आ रहे हैं।
शरीफ आदमियों को सुंदर औरतों से प्यार नहीं करना चाहिए। यह उस छोटी सी मिठाई की दुकान पर लिखा था, जहाँ से मुड़कर संकरी गली में जब्बार का नीले दरवाजे वाला घर था। तीसरी सुबह सात बजे समीर मेरे घर आया था और हम दोनों बच्चे गले लगकर रोते रहे थे। वह पता नहीं, क्यों रो रहा था। फिर आधे घंटे बाद हम उठे। वह स्कूल के लिए तैयार होकर निकला था। उसने अपने बैग में से अपना लंचबॉक्स निकाला और मैंने एक परांठा खाया। मुझे लगा कि जब मैं मरूंगा, समीर बहुत रोएगा।
फिर मैंने उसे कहा था कि मुझे उसके साथ कहीं जाना है, शिवमंदिर के साथ वाली गली में। हमने तय किया कि हम आज स्कूल नहीं जाएँगे। मैंने घर में ताला लगाया और हम दोनों निकल गए।
वह नीला दरवाजा नहीं खुला। हम पीछे के छोटे दरवाजे से जब्बार के घर में गए। वहाँ कई लोग थे और वे हमें डाँटकर बाहर निकालने ही वाले थे कि मैंने जेब से पचास का नोट निकालकर उनमें से सबसे जवान दिखने वाले आदमी को दिया।
- यह किसलिए? किसका लड़का है तू?
उसके पास खड़ी बूढ़ी औरत ने मुझसे पूछा।
- जब्बार ने दिया है...
यह कहकर हम दोनों दौड़कर बाहर आ गए और तब तक दौड़ते रहे, जब तक हमारी साँस नहीं फूल गई। माँ ने मुझे सिखाया था कि मुसलमानों से बचकर रहना चाहिए।
जब तक हम भगतसिंह की मूर्ति तक पहुंचें, मुझे आपको कुछ और बातें बतानी चाहिए। आहना और मेरे पिता के बारे में। मेरे पिता का नाम रमेश कुमार था और उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा अपने गांव में गुजारा था। वहां न बिजली थी और न उससे आनी वाली सुविधाएं। इसलिए डांस देखना तो दूर की बात थी, उन्हें टीवी या फिल्म देखने की भी बिल्कुल आदत नहीं थी। इसलिए वे मां के हजारों दीवानों से अलग थे। उन्हें मां से प्यार तब हुआ, जब वे उसके घर के बाहर लगी नेमप्लेट पर उसका नाम लिख रहे थे। वे पेंटर थे। वे शहर की दीवारों पर विज्ञापन लिखते थे, सिनेमाहॉल में फिल्मों और अभिनेताओं के नाम, स्कूलों पर अलग अलग रंगों से ‘आधुनिक सुविधाओं से युक्त सहशिक्षा विद्यालय’ और घरों पर उनके मालिकों के नाम। नीचे वे स्टाइल से अपने साइन करते थे और यदि उनके मेहनताने के पैसे बकाया होते तो उन्हें भी वहीं लिख देते थे। जैसे उन्होंने माधुरी के नाम वाली प्लेट पर नीचे कोने में लिखा था- पेंटर रमेश 75। इस तरह उन्हें हिसाब रजिस्टर में लिखकर नहीं रखना पड़ता था और यह लोगों की नैतिकता भी जगाता था क्योंकि इस तरह इस बात को शहर भर पढ़ सकता था कि इस आदमी ने रमेश पेंटर के इतने रुपए अभी तक नहीं चुकाए हैं। जब कोई उनके पैसे चुका देता था, तब उसी रात लिखी हुई वह संख्या गायब भी हो जाती थी।
लिखने के दौरान मां नहाने चली गई थी और इस तरह रमेश पेंटर के 75 रुपए देना भूल गई थी। लेकिन बाद के तीन दिन बहुत परेशानी में बीते क्योंकि पापा अपने गांव चले गए थे और माँ बदहवास सी होकर उन्हें ढूँढ़ती रही। उस दौरान तेरह लोगों ने माँ से पूछा कि क्या उसने रमेश पेंटर के पैसे नहीं दिए हैं।
बाद में जब छियानवे के दंगे हुए (क्या आप जानते हैं कि हमारे शहर में सालों का हिसाब इसी तरह रखा जाता है? लोग ऐसे बताते हैं कि पार्वती की बेटी तिरानवे के दंगों के आसपास हुई थी या राजकुमार ने उस साल दुकान खोली थी, जिस साल दंगे नहीं हुए थे) तो उन्होंने शादी कर ली। अठानवें के दंगों के दौरान तो मेरे पिता ने हरे और लाल झंडों पर ऐसे नारे भी लिखे थे- अबके साल की बकरीद पे, आग लगा दो मस्जिद में और एक भी हिन्दू छूट गया तो खुदा से रिश्ता टूट गया।
आहना का मुझसे पहले अमान से चक्कर था। वह उसे तोहफे देता था और एक-दो एडल्ट फिल्में भी दिखा चुका था। फिर उसे दूसरी लड़की मिल गई थी, जो थोड़ी सांवली थी मगर ज्यादा तेजी से बड़ी हो रही थी। वह खुद पैसे खर्च करती थी और जगह का इंतजाम भी। आहना अकेली थी और जब वह अपने खुश पिता को देखती थी, उसका दुख और भी बढ़ जाता था। फिर उसने माधुरी के बारे में जानना शुरू किया और वह मुझ तक पहुंची। मैं डरा हुआ था, उसने मुझमें उम्मीदें जगाईं और यूं मुझे जिन्दा रखना या मारना शुरू किया।
जब हम वापस भगतसिंह चौक पर पहुँचे, तब वहाँ से बहुत सारी लाल और नीली बत्तियों वाली गाड़ियाँ गुजर रही थी। जुलूस की आखिरी गाड़ी में से एक पुलिसिया हाथ निकला और उसने मुझे अन्दर खींच लिया। वह धर्मवीर था। समीर भौचक्का सा मुझे देखता रहा। धर्मवीर ने हाथ हिलाकर उसे बाय बाय कहा और गाड़ी चल दी। रास्ते में मुझे एक छोटी फाइवस्टार चॉकलेट दी गई और पीने के लिए पानी। मुझे जेल की याद आई और लगा कि जैसे मैं सारी उम्र अब वहीं गुजारूंगा। मैं सोचने लगा कि जेल में कौन कौनसी किताबें पढ़नी हैं और कितने बजे जगना-सोना है। रास्ते में हमारी गाड़ी जुलूस से अलग हो गई और हम एक प्राइवेट क्लीनिक के बाहर जाकर रुके। धर्मवीर उतरकर अन्दर गया और पाँच मिनट बाद माँ को लेकर बाहर आया। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह अब तक जिन्दा है। माँ साड़ी में थी और थकी-थकी सी लग रही थी। वे मुस्कुराते हुए गाड़ी में घुसे और माँ ने बैठकर मेरे गाल चूमे। मैं एक कोने में था और धर्मवीर दूसरे कोने में। आगे सिर्फ़ ड्राइवर बैठा था।
उस दोपहर मैंने जाना कि माँ दो दिन तक गायब रहे तो उसका मतलब उसका गर्भवती होना होता है। उसके पेट में मेरे जैसा एक और जीव था। धर्मवीर और माँ खुश लग रहे थे, हल्के हल्के शर्माते हुए से भी। उन्होंने बिल क्लिंटन के बारे में कोई बात की और यह भी कि अबॉर्शन कब करवाना है। ऐसे लहजे में, जैसे कह रहे हों कि टीवी कब खरीदना है या शिमला कब जाना है?
माँ बेफ़िक्र सी थी, कुल मिलाकर नहीं, बस मेरी तरफ से। उसने मुझसे नहीं पूछा कि पिछली रातें कैसे बीती थीं और मैंने कुछ खाया या नहीं? इससे ज्यादा वह नहीं सोच सकती थी मगर इतना पूछना तो उसकी आदत था ही। जब हम थाने के बाहर रुके तो वह गाड़ी में ही बैठी रही। उसने मुझसे कहा कि मैं अंकल के साथ अंदर जाऊँ। मैं डरा गया जैसे अन्दर नर्क था और माँ मेरी दुश्मन। यही सबसे भयानक था, माँ का तटस्थ और फिर दुश्मन हो जाना।
अन्दर वे सब कैदी, जो मुसलमान थे, एक कतार में खड़े थे और मुझे उसे पहचानना था, जिसने मुझे नोट दिया था। मैं शायद बता देता, लेकिन जब्बार उनमें था ही नहीं। तभी सारे सिपाहियों, थाने और शहर ने जाना कि जब्बार भाग गया है। आखिरी गिनती, जो बीस मिनट पहले हुई थी, उसमें वे पूरे पचपन थे। धर्मवीर उबल पड़ा। उसने तीन लोगों की गर्दन इस हद तक मरोड़ी कि वे बेहोश ही हो गए। माँ को बुलवाया गया। एक कमरे में अब हम तीन थे, मैं, माँ और धर्मवीर।
पहला दौर, जो प्यार से पूछने का होता है, उसकी फुर्सत उसे नहीं थी और न ही मन। उसने मुझे एक थप्पड़ मारा और पूछा कि मैंने उस नोट का क्या किया था और उसमें लिखा क्या था? मैं रोया नहीं क्योंकि मेरी माँ सामने बैठी थी और सात महीने बाद उसे प्यारा सा बच्चा होने वाला था। मैं अपने छोटे भाई या बहन को पहला इम्प्रेशन ही अपने कमजोर होने का नहीं दे सकता था। माँ ने मुझे दुलारा नहीं और वह किसी और दिशा में देखती रही, जहाँ से शोहरत आती थी और बम्बई जाने का रस्ता।
- सर... – मैंने अंकल नहीं कहा - ...मैंने वह नोट तो रास्ते में ही फाड़कर फेंक दिया था...उर्दू में लिखा था उसमें कुछ।
- अब यह नया बहाना है माधुरी...
उसने गुस्से से माँ को कहा। माँ उसकी ओर देखकर ऐसे मुस्कुराई जैसे अभी चूम लेना चाहती हो।
- तू बेटा स्कूल नहीं गया आज। सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा है और मुझसे झूठ बोलने की हिम्मत भी आ गई तुझमें। - वह दहाड़ रहा था– डंडा घुसेगा तो तेरा बाप भी सच बताएगा।
मैं गिड़गिड़ाया कि माँ, तुम्हारे पेट में बच्चा है, तुम यह मत सुनो, बाहर चली जाओ और जाने उसे कैसे, किस पर तरस आया कि उसने धर्मवीर से कहा- अब बस भी करो जान। सच में फेंक दिया होगा इसने।
उसने जाते-जाते मेरी पीठ पर कसकर एक मुक्का जड़ा और माँ उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गई।
उर्दू एक खूबसूरत भाषा है और 2002 के उन दंगों में उसने बहुत सी बाजियाँ पलटीं। क्या आपको याद है कि जब्बार ने मुझे दस रुपए का नोट दिया था और मैंने उसके घर में उस आदमी को पचास का नोट दिया था? जब्बार वाला नोट मैंने वाकई फाड़कर फेंक दिया था और फिर पचास के एक नोट पर हिन्दी में एक लाइन लिखी थी- रमेश पेंटर के भाई को मार डालो।
अपनी तमाम शहरी कृत्रिमता के बावजूद हिन्दी चारों तरफ से घेरकर मार डालती सी भाषा है जिसमें कहीं दूर भाग जाने का मन करता है। शायद इसीलिए जेल से भागकर जब्बार एक भीड़ भरी बस में बैठकर 38 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर गया। रास्ते में उसने एक जेब काटी, जिसमें साढ़े तीन सौ रुपए, ट्रेन के दो टिकट, इलायची के कुछ दाने और एक ड्राइविंग लाइसेंस था। दूसरे शहर में उसने सबसे पहले रेजर खरीदा और एक सुनसान गली की टूटी फूटी कोठरी में अपनी दाढ़ी काटी। फिर उसने एक लाल धागा खरीदकर अपनी कलाई पर बाँधा और अपने गले में हनुमानजी की तस्वीर वाला लॉकेट टाँग लिया। इसके बाद वह एक नाई की दुकान पर गया और हालांकि उसके पैर, जिनमें पिटाई का दर्द था, पूरे समय काँपते रहे और सूजी हुई एक आँख इधर-उधर खतरा तलाशती रही, फिर भी उसने बेफ़िक्र होने का दिखावा किया। उसने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा लिया। बेफ़िक्र दिखने के लिए उसने ‘जुड़वां’ फिल्म का एक गाना ‘तू मेरे दिल में बस जा, मुझको फँसा ले या फँस जा’ भी गुनगुनाया। नाई ने उससे बीस रुपए लिए और कहा कि उसके चेहरे पर छोटे-छोटे काले निशान हैं, इसलिए उसे फेशियल करवा लेना चाहिए। बदले में उसने नाई से पूछा कि शहर के हालात कैसे हैं? साथ ही यह भी बताया कि वह आज ही दिल्ली से आया है। नाई ने कहा कि लोग कम बाल कटवाने लगे हैं और कर्फ्यू की वजह से हफ़्ते में तीन दिन तो दुकानें बन्द ही रहती हैं।
धर्मशालाएँ बन्द रहती थीं मगर फिर भी उसने एक ढूंढ़ निकाली और उस पूरी रात बैठकर सोचता रहा कि क्या करना है। जब उसने सोच लिया तो अपने लॉकेट वाले हनुमानजी को चूमा और गहरी नींद में सो गया। जब वह जगा तो सुबह के दस बजे थे। शहर धुला हुआ सा लग रहा था। उसे अपना बचपन याद आया, जब वह एक बार अपने पिता के साथ इस शहर में आया था और उन्होंने बसंत टॉकीज में विनोद खन्ना की कोई फ़िल्म देखी थी।
मेरी माँ का मरना तय था। वह सोचती थी कि सब कुछ आसानी से और उसके तरीके से होगा। उसकी सुन्दरता की इतनी प्रशंसा की जा चुकी थी कि उसे डर लगना बन्द हो गया था। आप उसे दुनिया के सबसे भयानक कब्रिस्तान में रात भर छोड़ देते तो भी वह सुबह खर्राटे लेते हुए ही मिलती। वह नास्तिक और कठोर भी होती जा रही थी। उसे लगता था कि हजार लोगों के सामने स्टेज पर नाचकर वह दुनिया की मलिका बनने जा रही है। वह उन सबकी कुंठाओं में थी और वह समझती थी कि वह उनके रुई जैसे सपनों में है। इसी गलतफहमी में उसकी मौत लिखी थी, जब वह मुझे लेकर उस रात घर आई।
चाचा ने शराब पी रखी थी और वह किसी लड़की को लेकर आया था। वह जब बोतल खरीदकर अपनी मोटरसाइकिल की ओर बढ़ा था तो लड़की ने उससे टाइम पूछा था। हमारे शहर में इसका मतलब था- कितने पैसे देगा? पाँच बजे मतलब पाँच सौ। बेचारी शरीफ लड़कियां राह चलते वक्त भी नहीं पूछ सकती थीं।
माँ जब मेरा हाथ पकड़े अन्दर घुसी तो मैं सिहर सा गया और मैं उंगली छुड़ाकर बाहर भाग जाना चाहता था, लेकिन जीना मेरा सामने पड़ा और मैं छत पर भाग गया। तेज आवाज में नुसरत फतेह अली खान की कोई कव्वाली बज रही थी। आसमान काला ही था, जैसा उसे रात में होना चाहिए। जुगनू मर गए थे, शहर बेवकूफ था और माँ अहंकारी, जब मैंने जिन्दगी में पहली बार पूरी नंगी लड़की देखी। छत से उसका सिर और स्तन ही दिख रहे थे।
माँ चौंकना भी छोड़ चुकी थी इसलिए चौंकी नहीं। लेकिन जब वह अपने कमरे की ओर बढ़ी तो चाचा ने चिल्लाकर अपने सामने रखी बोतल उसके सिर पर दे मारी। वह चिल्लाई और अपना सिर पकड़कर बैठ गई। मैं डर गया जैसे मर ही जाना होगा। नंगी लड़की कमरे के दरवाजे पर चुपचाप बैठ गई और देखती रही। चाचा माँ को कराहते देखता रहा। माँ ने उसे कुछ गालियाँ बकी और बरामदे में इधर-उधर दौड़ी। उसे कुछ नहीं मिला और शायद वह जानती भी नहीं थी कि क्या ढूँढ़ रही है। दस मिनट इसी तरह बीते और वह भागते भागते गिर पड़ी। तभी मरी या बाद में, यह मैं नहीं कह सकता।
मैं चाचा के हाथों नहीं मरना चाहता था इसलिए मैंने सोचा कि वह ऊपर आएगा तो मैं छत से कूद जाऊंगा। मैंने अपने पिता को याद किया और रो लेना चाहा, लेकिन रोना मुश्किल था। नंगी लड़की ने एक बार ऊपर मेरी ओर देखा और तब मैंने जाना कि वह वेश्या नहीं, सबीना है। सबीना और शौकत, जिनके मुस्कुराने ने दुर्भाग्यवश उस शहर के पचासों घर उजाड़ दिए थे, अच्छे दिनों में जब्बार की पंक्चर वाली दुकान के ऊपर बने दो कमरे के उस घर में मिलते थे, जहाँ शौकत अपनी बीवी के साथ रहता था। उसकी बीवी या तो बीमार रहती थी या मायके में और जब वह अदालत की अपनी असिस्टेंट वाली नौकरी से लौटता था तो जब्बार की दुकान बन्द हो चुकी होती थी। फिर वह और सबीना ‘महकता आँचल’ नाम की एक कहानियों की पत्रिका पढ़ते थे, कभी-कभी अपने सीडी प्लेयर पर फिल्में देखते थे और शादी के वादे करते थे। आप शायद विश्वास न करें, लेकिन वह लड़की जो अपने शरीर से पूरी तरह बेपरवाह होकर मेरे घर में खड़ी थी, उसने शौकत को कभी अपना जिस्म छूने भी नहीं दिया था। उन दोनों ने तय किया था कि निकाह से पहले वे वैसा ही प्यार करेंगे, जैसा बच्चे उसे सोचते हैं।
वे एसएमएस करते थे और सोचते थे कि उंगलियों पर दुनिया है।
मृत्यु बाकी दुखों से अलग है। उससे जितना सतर्क रहो, उतना ही वह आपको फंसाती जाती है। चाचा यह बात नहीं जानता था। उसे होश आया और उसने फिल्मी अंदाज में माँ की लाश को ठिकाने लगाने की कोशिश की। लेकिन वह उसे तीन चार इंच से ज्यादा हिला नहीं पाया। वह वहीं माँ के सिर के पास बैठ गया और सबीना से कहा- तू कुछ बोली तो तू भी मरेगी।
फिर उसे कुछ याद आया और वह एक झटके में उठकर जीने की ओर बढ़ा। सबीना, जो अब तक चुप थी, उसने उसका रास्ता रोककर उसे अपनी बाँहों में भर लिया और उसकी गर्दन चूमने लगी। उसने एक बार और मेरी ओर देखा और मैं भला कैसे शुक्रिया कहता? मुझे इशारे नहीं आते थे, मेरी माँ वहाँ मर गई थी और मैं नहीं जानता था कि जिया तो भी क्या करूंगा?
चाचा भी उसे चूमने लगा और फिर रुककर चिल्लाया। मैं मुंडेर की ओट में हो गया और उसने जैसे कोई गाली दी। मैंने दो सेकंड बाद फिर से नीचे देखा तो वह जमीन पर उल्टा पड़ा था, उसकी कमर से खून बह रहा था और सबीना उसके शरीर पर जहाँ-तहाँ चाकू मारती जाती थी।
वह कव्वाली के साथ ही खत्म हुआ।
आहना मुझे अपनी माँ के बारे में बहुत सारी बातें बताती है। बहुत बाद के दिनों में, जब कर्फ्यू नहीं है और हमने एक-दूसरे को भोग लिया है। हाँ, मेरे साथ बहुत से डर भी हैं। जैसे जब वह मुझे छूती है तो कमरे में बिल्कुल अँधेरा होना चाहिए। हल्की सी भी रोशनी का मतलब है मेरा डर के मारे चीखने लगना और फिर फूट-फूटकर रोना। ऐसा कई अकेली रातों में भी होता है। मुझे एक सपना दिखता है जिसमें मैं अपने पिता के पीछे साइकिल पर बैठकर किसी गहरे जंगल वाले रास्ते से गुजर रहा हूं। उसके बाद हम संकरी गलियों वाले एक बदबूदार गाँव में पहुँचते हैं, जिसमें सिर्फ बूढ़े, बच्चे और औरतें हैं। उनके चेहरे ऐसे हैं, जैसे अभी आत्महत्या कर लेना चाहते हों। यह कम रोशनी वाला डरावना सपना होता है, जिसमें से बाहर आने के लिए मुझे साइकेट्रिस्ट की मदद की जरूरत होती है।
वह साइकेट्रिस्ट महंगा है, बहुत सारी अंग्रेज़ी बोलता है और खुश रहता है। मुझे चटख रंग, शादी वाली फिल्में और सांवली लड़कियां पसन्द हैं, यह जानकारी जाने उसके किस काम की होगी! आहना जब मेरे साथ होती है तो वह उसे समझाता है कि मुझे लेकर कहां कहां घूमने चली जाए। वह नहीं जानता कि पैसे न होने की वजह से किसी दिन अचानक हम उसके पास भी जाना बन्द कर देंगे और वह सोचेगा कि मैं बिल्कुल ठीक हूं।
यहां मेरे साथ बहुत सारे लोग हैं। शशांक की माँ उसे बचपन में इसलिए बहुत मारा करती थी कि उसे दही नहीं पसन्द था। एक बार उसे मारते-मारते घर का इकलौता बेलन भी टूट गया था। वह लड़कियों से डरता है और सब कुछ ठीक होते हुए भी लंगड़ाकर चलता है।
मैं कुछ भी ठीक से पकड़ नहीं पाता। हर बार मेरे हाथ काँपने लगते हैं। डॉक्टर के पास आने के बाद के कुछ हफ़्तों तक कुछ फ़ायदा होता है, लेकिन इतना नहीं कि मैं कोई आम नौकरी कर सकूं। इसीलिए मैं कहानियाँ लिखता हूँ। बल्कि मैं सिर्फ़ बोलता हूँ, आहना मेरे लिए लिखती है। इससे पैसा तो नहीं मिलता मगर अच्छा लगता है। जब हम कुछ पैसा जोड़ लेंगे तो एक कम्प्यूटर खरीदेंगे और उस पर लिखने के लिए कुछ पकड़ना नहीं होगा।
आहना अपनी माँ के बारे में बताती है, सुनीता देवी के बारे में। उन्होंने अपने घर में एक बड़ा सा पोस्टर चिपका रखा था, जिस पर मेरे पिता का वह मशहूर कथन लिखा था- जब कोई किसी से एक किलो प्यार करने लगता है, वह मर जाता है। इसका साफ-साफ मतलब किसी को नहीं मालूम था। मरने वाला वह भी हो सकता था जो प्यार करता है और वह भी जिसे प्यार किया जा रहा है। मेरी धारणा के उलट सुनीता देवी खुश रहती थीं। इतनी कि लोग उन्हें बेवकूफ़ समझने लगे थे। बस वे देर तक बाथरूम में बन्द रहती थीं और दुबली होती जाती थीं। फिर पता चला कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है। वे गुमसुम हो गईं और आहना के पिता मिस माधुरी को बेशर्मी से अपने घर लाने लगे।
- कैसी लगती थी मेरी माँ? क्या तुमने उन रातों में कभी देखा था उसे?
- सुन्दर, जैसी औरतें होती हैं...और निरीह भी।
- बुरी नहीं? कमीनी औरतों जैसी?
- बिल्कुल नहीं। मुझे उन पर तरस आता था। मेरी माँ की हालत उनसे बेहतर थी। कम से कम मेरी माँ जानती तो थी कि वह मरने वाली है।
हमारे माता-पिता मरते चले गए थे और हमारे सपनों में वे बूढ़े बनकर इकट्ठे होते जा रहे थे, उन बच्चों के साथ, जिन्हें हम कभी जन्म नहीं देंगे।
हमारे बचपन के दिनों में धर्मवीर चौहान एक दिन अच्छे मूड में था। वह अपने तीनों बच्चों के साथ घर के आगे बने बगीचे में खेल रहा था। मेरठ से उसकी बहन आई हुई थी और सुनीता के साथ रसोई में पकौड़ियाँ बना रही थी। सब कुछ पारिवारिक कहानियों की तरह था, जिन्हें आप महिला पत्रिकाओं में पढ़ते होंगे। फिर एक फल बेचने वाला आया, जिसे धर्मवीर ने बिहारी कहकर पुकारा। वह मुड़कर वापस आया और घर के अन्दर घुसा। उसने सिर पर गमछा बाँध रखा था। धर्मवीर ने कहा कि एक किलो आम तोल दो और यह ऐसे था, जैसे उसके हिस्से का प्यार एक किलो हो गया हो। (मगर उसे इतना प्यार किया किसने होगा?) फल वाले ने, जो जब्बार था, आमों के बीच में से एक पिस्टल निकाली और उसे गोली मार दी।
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हमजोली की गोली और हलवा बनाने की विधि |
यह 'रमेश पेंटर और एक किलो प्यार' नामक कहानी का दूसरा हिस्सा है।
इससे पहले - कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी
क्लास के बच्चे मुझे चिढ़ाया करते थे कि पाकिस्तान ने कहा है कि उन्हें माधुरी दे दी जाए तो वे कश्मीर को भूल जाएँगे। क्या सच में उन्होंने ऐसा कहा था? मैं परेशान हो उठता था और यह बयान ढूँढ़ने के लिए लाइब्रेरी में जाकर सारे पुराने अख़बार पढ़ता रहता था। मेरे दोस्त समीर ने मुझे बताया था कि पाकिस्तान में माँस खाना पड़ता है और वहाँ किसी को भी फाँसी पर लटका दिया जाता है। मुझे रात में नींद नहीं आती थी और जब माँ मेरे पास होती थी, तो मैं उससे चिपककर पड़ा रहता था। बहरहाल वे दूसरे दिन थे और तब कर्फ्यू भी नहीं लगा होता था।
मैं जब तक घर पहुंचा, मेरे शहर में एक सौ अड़तीस लोग मर चुके थे। माँ रात को देर से लौटी थी और मेरे पहुंचने के बाद जब वह जगी तो उसका चेहरा लाल और ख़ूबसूरत था। मैंने चाहा कि उसे कभी पता न लगे कि बाहर क्या हो रहा है। वह फिल्मों की हीरोइनों की तरह किसी दूसरी दुनिया की औरत लगती थी। कभी कभी मैं यकीन भी नहीं कर पाता था कि मैं उसके शरीर का ही एक हिस्सा हूं।
माँ हिन्दी की किताब का कोई पाठ पढ़ाया करती थी- हम बाहर निकलेंगे तो पाएंगे कि झरने, समुद्र, नदियाँ और पहाड़ हैं। यह दुनिया इतनी ख़ूबसूरत है कि जितनी देखो, उतनी कम है।
मैं बाहर निकलता था तो बदहवास चेहरे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर दौड़ते भागते लोग और शोर मचाती गाड़ियाँ दिखती थीं। वह जो भी ख़ूबसूरत था, मेरे हिस्से नहीं आया था, सिवा माँ के।
शौकत की बीवी नाज़िया के मायके में फ़ोन गया और इधर शौकत की माँ रोई ज़्यादा, बोली कम। नाज़िया की माँ ने कुल मिलाकर यही समझा कि कोई बहुत बुरी ख़बर है, लगभग ऐसा कि शौकत मर गया है। नाज़िया दीवार में सिर मारने लगी और सिर फटने को ही था कि शौकत के पिता का फ़ोन गया। उन्होंने बताया कि शौकत को पुलिस उठाकर ले गई है। यह कोई अच्छी ख़बर नहीं थी, मगर सुनते ही नाज़िया ख़ुशी से उछलने लगी। सब इंस्पेक्टर धर्मवीर चौहान के नेतृत्व में आठ पुलिस वाले उसके घर आए थे और उठाकर ले गए थे। इसी तरह उस दिन, जो अक्टूबर का कोई सोमवार था, मेरे शहर से छप्पन मुसलमान पुलिस ने उठाए। उनमें से सिर्फ़ एक ऐसा था, जो पत्थर मारने और आग लगाने वाली भीड़ के साथ भाग रहा था। लेकिन वह भी मारने वालों में नहीं था। वह इंजीनियर था और उसे दिल्ली मेट्रो की कोई नौकरी जॉइन करने के लिए उसी दिन दिल्ली पहुंचना था। इसलिए वह आग लगी हुई ट्रेन भी छोड़ना नहीं चाहता था।
सब इंस्पेक्टर धर्मवीर चौहान, जिसका जन्म मेरठ के पास के किसी छोटे से गाँव में हुआ था, हमारे घर अक्सर आया करता था। उसके नाम से मेरा पहला परिचय मेरे स्कूल के टॉयलेट में पेंसिल से लिखी गई एक लाइन पढ़कर हुआ। वह मेरे बचपन की सबसे डरावनी पंक्ति थी। लिखा था- धरमवीर चौहान मिस माधुरी की लेता है।
मैं चुपचाप आया और अपनी सीट पर बैठ गया। कुछ भी नाटकीय नहीं हुआ। किसी ने मेरा मजाक नहीं उड़ाया। किसी टीचर ने सब बच्चों को खड़ा करके गुनहगार नहीं ढूँढ़ा। जो लिखा था, वह भी उस दोपहर तक मिट गया। लेकिन मैं डर गया था। मुझे लगता था कि अब किसी भी पल धरती ख़त्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं होता। मुझे नीले रंग की जर्सी पहनकर अक्टूबर की एक सुबह चाचा के साथ घर लौटना था और मौत का इंतज़ार करना था।
- तुझे भूख लगी होगी मेरे राजा बेटा...
माँ ने उठते ही मुझे गोद में खींच लिया। चाचा, जो अपनी बाइक धो रहे थे, हमें देखकर मुस्कुराए।
नहीं माँ, मुझे भूख नहीं लगी मगर फिर भी मुझे कुछ खाना है, जिससे सब कुछ भुलाया जा सके।
सामने अख़बार रखा था और माँ उसे उठाकर पढ़ने लगी। उसमें माँ के शो के फिर से हिट होने की भी ख़बर थी। मैं उसकी गोद में था और मेरी ओर जो पन्ना था, उस पर एक सर्वे छपा था, जिसमें एक लाख मुस्लिमों से पूछा गया था कि भारत में किसी मुसलमान का जीवन कैसा है? सत्तर प्रतिशत लोगों ने बहुत अच्छा कहा था, बीस प्रतिशत ने ठीक ठाक, और दस प्रतिशत ने ‘मुश्किल’ कहा था। फिर किसी शाहनवाज़ अंसारी का लेख था, जिन्होंने कुछ प्राचीन ग्रंथों के माध्यम से सिद्ध किया था कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले सब लोग मूल रूप से हिन्दू ही हैं और जो दूसरे धर्मों के लोग हैं, वे सब धर्म-परिवर्तन से बने हैं। मेरी उम्र बारह साल थी और मैं माधुरी वाले बयान के चक्कर में लाइब्रेरी में इतनी किताबें पढ़ चुका था कि यह सब समझ गया। मैंने उठकर टीवी चलाया। ऐसा लग रहा था कि हर चैनल पर हास्य कवि सम्मेलन आ रहे हैं।
हमारे टीवी पर एक सौ चवालीस चैनल आते थे। मेरा जन्मदिन चौदह अप्रैल था और शहर में धारा भी एक सौ चवालीस लगी थी। मैंने इन सबके बारे में सोचा।
धरमवीर चौहान मिस माधुरी की लेता है, यह इस संसार का सबसे निर्मम वाक्य था। इसे सोचते हुए पढ़ा, हँसा, सोया या खाया नहीं जा सकता था। इसे सोचते हुए शहर से बाहर भाग जाने और किसी नदी में कूद जाने का मन करता था या थाने में जाकर धरमवीर चौहान का मुँह तोड़ देने का।
मिस माधुरी के बारे में कई बातें मशहूर थीं। जैसे एक यह कि उसके गुरु पंडित दीनानाथ, जिन्होंने उसे कत्थक सिखाया, उससे बेतहाशा प्यार करते थे और माधुरी के हिट होने के कुछ ही महीने बाद शहर के सबसे गंदे नाले में उनकी लाश मिली थी. एक यह भी कि एक दिन उसने जोर जबरदस्ती की कोशिश करते अपने पिता को बुरी तरह मार-पीटकर घर से बाहर निकाल दिया था. मुझे ये सब बातें मालूम नहीं थीं. मेरा जानना अपने पिता की मृत्यु से शुरु होता था. मेरे पिता, जो अपने इस कथन के लिए मशहूर थे कि वे बस प्यार के भूखे हैं, लेकिन उन्हें प्यार नहीं चाहिए क्योंकि जब कोई किसी से एक किलो प्यार करने लगता है तो वह मर जाता है। बुरा यह था कि यह एक किलो की सीमा किसी भी दिन अचानक पार हो सकती थी। जब मैं ढ़ाई महीने का था, तब एक दिन माँ ने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा था कि मौत हमारे शहर में घटने वाली सबसे आम घटना है, इसलिए मैं हर समय उसके लिए तैयार रहूं. बाद में मैंने यह बात कई लोगों के मुँह से सुनी और यह भी कि इसीलिए हमारे शहर में कोई किसी से प्रेम नहीं करता क्योंकि सब जानते हैं कि वे जिससे भी प्रेम करेंगे, उसे बहुत जल्द खो देंगे. बहुत बार तो ऐसा भी होता था कि उस संभावित दुख की अनिश्चितता कम करने के लिए लोग अपनी पत्नियों, मांओं और पिताओं को जिंदा जला देते थे.
खैर, माँ कहती थी कि अब हम जल्दी ही मुंबई चले जाएंगे और तब वह इतनी व्यस्त होगी कि कई बार मुझे उसे टीवी पर देखकर ही संतोष करना होगा. मैं उस दिन के लिए ही तैयारी कर रहा था और अपने आपको कठोर बना रहा था. समय मेरे इतना साथ था कि मेरे सिर पर चट्टानें सी टूटकर गिरती थी और बलात्कार होते थे.
उस रात शो के बाद माँ सीधी घर नहीं आई थी. वह धर्मवीर चौहान के साथ उसकी जीप में बैठकर सिविल लाइंस में उसके घर गई थी. वह शादीशुदा और बाल-बच्चों वाला आदमी था. उसकी पत्नी सुनीता एक आज्ञाकारी गृहणी थी और ऐसी औरतों को चाहिए कि नौ बजे बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते सो जाएं और पति जब आए, तब उसे गरमागरम खाना बनाकर खिलाएं और उसकी हर संभव सेवा करें. यदि पति मिस माधुरी के साथ आए तो खाना परोसकर वापस बच्चों के पास जाकर सो जाएँ. मिस माधुरी को चाहिए कि मुस्कुराती रहे और एक बार बाथरूम में जाकर पसीना भी पोंछ ले और लिपस्टिक फिर से लगा ले. अपने पर्स से हमजोली वाली एक गोली निकाले और खा ले. फिर बाहर आए और प्यार करे. प्यार, जो इतना कम है कि साँस लेने के लिए थमो, तब भी खत्म होता जाता है. चादरों और कपड़ों में सलवटें पड़ती थीं और धर्मवीर चौहान के छठी, नौवीं और तीसरी में पढ़ने वाले बच्चे जब स्कूल जाते थे तो बेफिक्र होकर हँसते थे और सोचते थे कि दुनिया सुन्दर है.
चोटों और टॉयलेट की दीवारों पर लिखे वाक्यों के बावज़ूद ऐसा मैं भी कभी कभी सोच लेता था. मगर फिर उस सुबह, कर्फ्य़ू वाली सुबह, जब हम जल्दी में थे और मैं सोच रहा था कि शहर की मौतों की आदत में अब मुझे भी अपना हिस्सा चढ़ाना है, चाचा ने बाइक रोक दी थी. दुनिया गोल थी और चाचा ने मुझे इसके साथ यह भी बताया कि माँ कल रात धर्मवीर चौहान के साथ थी. यह कोई नई बात नहीं थी. मुझे भूख लग रही थी और मैंने चाचा से कहा कि जल्दी चलो, मुझे ब्रेड रोल खाने हैं. चाचा गुस्से से काँप रहे थे और उन्होंने मुझे एक थप्पड मारा. मैं रोने लगा, लेकिन वह शांत जगह थी और मुझे लगा कि यह अच्छा है क्योंकि अब किसी ने मुझे थप्पड़ खाते और रोते नहीं देखा होगा. मगर यह अच्छा नहीं था. कितना अच्छा होता कि वहाँ कोई बड़ा शहर होता और तब चाचा को कर्फ्यू में भी ऐसी सुनसान जगह न मिलती, जहाँ वह बादल जैसा समय था, जो मुझ पर पहाड़ की तरह गिरा.
यूं मेरी उम्र ज्यादा नहीं थी और ऐसा भी हो सकता है कि मेरी स्थायी याददाश्त तब तक बननी शुरु ही न हुई हो. क्या वह कोई और जन्म या कहीं से सुनी हुई कोई भयानक कहानी है? मुझे उस दिन की कई कहानियाँ याद आती हैं और कभी कभी कुछ भी याद नहीं आता. कभी वह किसी बुरे भ्रम जैसा लगता है और कभी काले होते शहर और तूफान जैसा. वहाँ, जहाँ मुझे लगभग बाँध दिया गया था, मैं बार बार वापस लौटता हूँ और भाग निकलने के तरीके तलाशता हूँ, नाकाम रहता हूँ और पछताता हूँ, गालियाँ बकता हूँ.
उस दिन जब टीवी पर मनीषा कोइराला और जैकी श्रॉफ की मिलन नाम की फिल्म चल रही थी, जिसे देखकर संभोग से घृणा होती थी और आत्महत्या कर लेने का मन करता था, तभी चाचा ने मुझे नंगा किया. और मैं भागा, रोया, पकड़ा गया, चिल्लाया, गिड़गिड़ाया. मैंने उनके चेहरे पर थूका, एक अस्पष्ट सी गाली दी, किसी दैवीय जुबान में माफी माँगी, प्रेम और भगवान को याद किया, गायत्री मंत्र पढ़ा, उनके पेट पर मुक्के मारे और दर्द से बिलबिलाया. वहां जंगल के कानून चलते थे और मैंने सजा पाई. तीन घंटे बाद सिर झुकाए हुए जब मैं चाचा के साथ घर लौटा तो सफेद रुई सी माँ उठी और उसने मुझे गोद में लिटाकर पूछा कि क्या मुझे भूख लगी है.
वे ऐसी ही बेमतलब की बातें पूछती हैं. जब उन्हें पता होता है कि हम इतने उदास हैं कि मर जाने वाले हैं, तब वे हमें हलवा बनाने की विधि सिखाती हैं और पूछती हैं कि क्या हमने ब्रश किया.
अगला भाग- उसका फूल सा बच्चा और कुत्तों जैसे दिन
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कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी |
बहुत दिन से ब्लॉग पर कोई कहानी नहीं डाली। यह एक नई कहानी 'रमेश पेंटर और एक किलो प्यार' का पहला हिस्सा है। सोचा है कि रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके चार-पाँच दिन में पूरी कहानी आपको पढ़वा दूँगा। आप ज़्यादा बेचैन हुए तो यह जल्दी भी हो सकता है :-)
फोटो: Chris Ware, Gettyimages
कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था। उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा। बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है। उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा।
मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे। मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे। ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था। हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते। मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे। वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते। हमारा घर ही ऐसा था। बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था।
मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की। मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी। वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी। मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया। फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा। मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी। उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है।
मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था। उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे।
पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे। वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे।
यह 2002 की बात है। फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था। उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं। इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं। वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं। शो रात दस बजे था। आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे। नौ बजे से एंट्री शुरु हुई। साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर। उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी। उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं। यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे। वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था। उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा। सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे। वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए। उनकी बात नहीं सुनी गई।
तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं। पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए। जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है। वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी। वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे। उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया। यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई। जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया। यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी। बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था। साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था।
लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे।
वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे। उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी। सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे। रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे। कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे। ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे। शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था। वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना (शायद उसका यही नाम था...और धीरे धीरे आप देखेंगे कि इतने सारे नामों का कोई ख़ास अर्थ नहीं रह जाएगा) उसे देखकर मुस्कुराई। वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी।
जवाब में शौकत भी मुस्कुराया। फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा। तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है। वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू। सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे)। बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे। तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी। सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा। जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा। चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए। वे और आगे आ ही रहे थे कि तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया। निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था। भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है। कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे।
बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए। उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी। बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे। उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था। टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे। वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है।
मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता। मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता। सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती। जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता। लेकिन यह सब नहीं हुआ। आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं। ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत। मेरी माँ मिस माधुरी उस दिन देर तक सोती रही। तीसरे पीरियड में मेरी छुट्टी हो गई थी और चाचा मुझे लेने आए थे।
हमजोली की गोली और हलवा बनाने की विधि
उसका फूल सा बच्चा और कुत्तों जैसे दिन
[+/-] |
रोटी और शिमला मिर्च |
कुछ लोग मेरी तरफ़ थे
कुछ उस तरफ़ जिधर दुनिया गहरे रंगों की दिखती थी
चाँद इतना ही छोटा कि ख़ूबसूरत लगे
रास्ते उतने पत्थर जितना संगमरमर ज़मीन में है
जितने देवता बादलों में
जितनी तक़दीरें बदली हैं व्रत कथाओं की नायिकाओं की
जिन्हें बेटे मिले हैं सौ, पति समझदार या राजा
और इस तरह दिन बुहारी फिरने जितनी आसानी से बहुरे हैं
दुनिया बदलने वाले सब लोग,
जिन्हें नहीं मालूम था पहले कभी कि
फ़ीस माफ़ी की आसान चार लाइनी अर्ज़ी लिखना
किस तरह सबसे मुश्किल और रुलाऊ काम होता है,
क्या वे बाद में कतारों में लगे होंगे किसी दिन
टिकट खरीदते, बिल घटवाते या लोन माँगते हुए
वर्गपहेलियाँ बनाते हुए क्या उन्होंने भी माँगी होगी एक चाय उधार
ताकि कुछ मोटी गृहणियों की दुपहरियाँ थोड़ी आसान हो सकें
कुछ बच्चे सीख सकें बीस तीस नए शब्द
जो कभी काम न आएँगे
क्या यह सच है कि
दुनिया को वर्गपहेलियों की इतनी ज़रूरत न होती
तो कवि श्याम प्रकाश कुछ और कविताएँ लिख पाता
और मरते वक़्त रोटी और शिमला मिर्च होती उसके पेट में
[+/-] |
खिड़की से बाहर जो हाथ है |
क्या समय को भी बदला जा सकता होगा
कपड़ों या फिर मन की तरह
कि दुश्मनों के बच्चों में मिलाकर छोड़ आएँ अपने बच्चे
और अपने बूढ़े होने का इंतज़ार करें
कितना प्यार करें आख़िर इन कमज़ोर होते हाथों से
इस बिना फ़ुर्सत के समय में
और कितने पैदा करें बच्चे?
ख़त्म करने को दुश्मनियाँ
कितने जुलूसों में शामिल हों
कितने शामियानों के नीचे सिर झुकाए
यह सोचने की ज़गह वह सोचते हों
जो पिता ने सिखाया था कि सोचना चाहिए,
और ठीक कहाँ ख़त्म हों
कि आपको लगे- अच्छे ख़त्म हुए इस बार
शहर के बाहर से मँगाए जाते हैं मौसम
हमारी तरह हर बार
और हम मौसमों की तरह
एक भी बार नहीं ले पाते अपना मज़ा,
जैसे सफ़र में हों
नाम पूछते हैं और भूल जाते हैं
पानी माँगते हैं और पछताते हैं
मैं बार-बार तुमसे कहता हूँ
कि जब मैं चला जाऊँ, रखना मेरा ख़याल
खिड़की से बाहर जो हाथ है
उसे बचाए रखेंगे क्या ये खंभे और ट्रक
मेरे लौटने तक?
क्या यह शोर चीलों के आने तक
इसी तरह होता रहेगा?
जब मैं यहाँ नहीं होऊँगा
और नहीं होगा मेरे मनहूस उदास हो जाने का डर
क्या लगाएँगे ये लोग मेरी ठीक-ठीक क़ीमत
और कौनसी भाषा में
किस तरफ़ चेहरा करके हँस रहे होंगे?
है तुम्हें कुछ अंदाज़ा मेरी सोनपरी?
और कहाँ से होकर आएगी वह सुबह
जिसे उम्मीद के अर्थों में इस्तेमाल किया जाता रहा है?
[+/-] |
नहीं ओढ़ी गई चादरों समेत |
बार-बार कहना इतनी दूर तक फैला है, है इतना बेशुरू
कि पहली बार नहीं हो सकता
पहली उम्र कोई नहीं होती
और हर बाद में ज़रूरी है कि पहले दिन याद आते हों
हालांकि पहले आने वाला कोई आदमी पहले दिनों को पहले की तरह याद नहीं करता
इस तरह जो आगे दौड़े जाते हैं,
वे अपनी याददाश्त सिर पर चोट की तरह खो चुके हैं
मैं कैसे दिलाऊँ उन्हें उधार के हज़ार याद
मेरी उम्र जो मैंने उन्हें लगा दी
उन नाकुछ लोगों की उम्र जो मुझे लग गई
जिन्हें मैं जीता देखना चाहता हूँ
क्यों जानता हूँ कि बहुत देर तक नहीं बचा पाऊँगा
जबकि सब ड्राइवर शराब नहीं पीते
और एम्बुलेंसें अपना रास्ता खोज ही लेती हैं
फिर भी घर बेचे जाने ही हैं अपने कमरों समेत
उनमें खेले गए सब वर्जित खेलों,
उनमें ओढ़ी गई सब चादरों,
नहीं ओढ़ी गई चादरों,
नहीं मरे लोगों की मरने की शर्मिन्दा कोशिशों और उनकी सार्वजनिक हँसियों समेत
इच्छाएँ और माफ़ियाँ
क्यों महलों की तरह धरी रह जाती हैं
शब्द बनते जाते हैं वेश्या
क्यों हर रोज़ बढ़ती है ईंटें
जबकि सुबह कतार में अपने हिस्से की फाँसी का इंतज़ार करने से पहले की शाम
ये सब उनको बार-बार तोड़ते हैं
फिर रस्म की तरह
हाथ पीछे बाँधकर माँगते हैं अपने पैसे जैसे दया और आपकी बेटी माँगते हों
रेलगाड़ियों का फ़र्श पोंछ रहे बच्चों के दृश्यों को
किसी बहस में डुबोकर मारने की नाकाम कोशिश से पहले
आप उनसे सौ बार यही मोटा जन्म लेने की दुआएं झटक लेना चाहते हैं
जबकि आपके पास देने को एक ताज़ी साँस, एक पुराना सपना तक नहीं
आख़िर आपकी हँसी और गीतों से पीते हैं वे भूख मारने को चाय
जिसकी भाप में ख़त्म हो जाएँ भाषाएँ तो जान छूटे
किसी भी भाषा में मेरा होना इतनी बड़ी बात नहीं
जितना मेरी आदत होना होता
होता हमेशा होने से इतना बड़ा लगा कि
मैंने चश्मे पर लिखा तुम्हारा नाम
ताकि ठीक से पढ़ा जा सके
लेकिन पढ़ते हुए हम बार-बार वही पढ़ते रहे
जो और लिखा जा सकता था
बहुत दूर से लाना होता है पानी की तकलीफ़ को
यहां कुआं होता और होगा भी से बदलते थे
फ़्रिज कब तक हमें बासी होने से बचा सकते थे
लेकिन उम्मीद इतनी हावी थी हमारे अस्तित्व पर
कि मुझे तुम्हारे तो क्या
ज़ी सिनेमा के अहसान चुकाने का भी वक़्त नहीं मिला
[+/-] |
ईश्वर दरअसल एक औरत है |
यहां कोई और बात की जानी थी
लेकिन मेरे पीछे बस दो ही लोग खड़े थे
उनमें से एक पानी पीने का कहकर गया था, नहीं लौटा, आप देख ही रहे हैं
और दूसरे को आसानी से मारा जा सकता है
वह ऐसी ही जाति का है
इसलिए यहाँ जो बेहद जरूरी बात की जानी थी
उसे सुनने के लिए
आपको किसी और की तरफ
- किसी तारे का बेटा, हो सकता है कि मरा मरा हो, न जानता हो आपकी ज़ुबान -
लेकिन उसी की तरफ आपको उम्मीद से देखना होगा
हालांकि उम्मीद एक बेशर्म शब्द है
मगर खर्च की ओर से रहिए बेफ़िक्र
मैं लौटाऊंगा आपके पैसे
या कुछ जादू हैं मेरे पास, कुछ मेलों के दृश्य,
कुछ लडकियाँ जिनका जिस्म पारदर्शी है और जो रोना नहीं जानतीं
फ़िलहाल जब वक्त है तो मैं
कौओं के बीच से आपको निकालकर
उड़ने की मुश्किलें बता सकता हूं
लेकिन आप शायद सोए हुए रंग के गुलाब पसंद करेंगे
मैं हर ओर लौट जाने की अपनी कोशिशों के बीच
आपके बीच मैदान में खड़ा मिलूंगा
समझदार कपड़े ऐसे उड़ रहे होंगे
जैसा किसी बारिश में उन्हें उड़ना चाहिए
हम उनसे हारेंगे नहीं, ऐसा ज़रूर कहेंगे
इसके बाद जपना होगा कोई मंत्र
और किसी आधी छूटी दावत से लौटने के पश्चाताप को
अब भूलना ही होगा
गिरकर जुड़ेंगे बर्तन
जिनके टूट जाने के लिए प्रार्थनाएँ की गई थीं
मैं फ़ोन पर बात करते हुए
उसमें से कहीं लौट आने के लिए भाग रहा होऊंगा
कॉल में उस समय का अँधेरा होगा
जब दिन अपनी क़ीमत लिए बिना नहीं बीतते थे
और यादों को लैम्पपोस्ट की रोशनी में पढ़ा जा सकता था
माथा झटककर नहीं हो जाएगा पश्चाताप
किसी अकेले शुक्रवार को
नाक ढाँपकर
अपने हिस्से की हवा को पैरों से नापते हुए
मैं दफ़्तरों जैसे तनाव से भरे
तुम्हारे घर पहुँचूंगा और माफ़ी माँगूंगा
ईश्वर दरअसल एक औरत है
इससे तो मैं दस साल पहले भी आपको चौंका सकता था
लेकिन सबसे ख़ूबसूरत बात कहने के लिए
मुझे थोड़ा और वक़्त दीजिए
थोड़े और सिर
थोड़ी और ज़िन्दगी
[+/-] |
न्यूटन का चौथा नियम |
मेरे कमरों की छत
- यदि आप सरकार से असहमत होने की ज़हमत उठाते हुए मानते हैं कि किसान अपने खेत का मालिक है और रहने वाला अपने मकान का-
तो मेरे हुए जो कमरे सोलह महीने से
उनकी छत रोने के आकार की बनवाई गई है
जबकि बनाने और बनवाने वाले कविता के बारे में कुछ जानते हों
ऐसा इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोई न्यायाधीश तो कह सकता है
बाकी कोई नहीं
और सुना है कि यह नाकाम कोशिश होती है सदा
अपने निर्माण के ख़िलाफ़ लड़ना,
यह न्यूटन नहीं जानते थे
लेकिन उन्हीं की शैली का कोई नियम है
कि आप अपने पिता की हत्या नहीं कर सकते
और इस तरह नहीं रोक सकते अपना जन्म,
मैं जिस तरफ़ इशारा कर रहा हूं
उसमें आप जायदाद की लड़ाइयों के उदाहरण न लाएँ
तो बेहतर होगा
लेकिन मैं कब तक बचाऊँगा आपकी नज़ीरें,
आपका वक़्त और पवित्रता
जबकि मैं उन आस्थाओं को नहीं बचा सका, जिन्हें पृथ्वी के साथ होना था नष्ट
उन कुत्तों को, जो नींद के अलावा कुछ नहीं माँगते थे
आख़िर आपके दूधिया मुनाफ़े को मंत्रों से सुरक्षित करते हुए
मैं कब तक छिपा पाऊँगा यह तथ्य
कि मेरा भी एक शरीर है आपके नायकों जैसा
जिसे बच्चों की तरह की ठंड लगती है
अलग-अलग वक़्त अलग-अलग चीजों की भूख
और दिन छिपे से रोज़ाना डर
फिर भी जीवन रोशनी सा बहता है
जबकि उसमें पानी की कमी और तिलचट्टों की हत्याएँ हैं
और उन कमरों में
जहाँ महानता के ढोंग और उजली फ़िल्मों के दिलासे
आपको नहीं बचा सकते
मैं ‘रो देने’ के हिज्जों, उनकी ध्वनियों
और रोने की ध्वनि को टालते हुए
अपने बाल गिनता हूँ
सफ़र टालता हुआ और मुलाक़ातें
शर्मिन्दगी और दोस्तियाँ,
दीवारों और मेजों को टूटने से ऐसे बचाता हुआ
जैसे इस तरह सारी दुनिया बचा लूँगा और साथ में कश्मीर
जैसे एक बाल्टी पानी बचाकर
सिर तक भर दूँगा बाड़मेर का कोई गाँव
जैसे मैं चिल्लाऊँगा तो एक कैदी को तो छोड़ ही देंगे साहब
जैसे मेरे बोलने से कुछ कम बच्चों के सिर काटे जाएँगे
कुछ ज़्यादा स्कूल बन्द होंगे
कुछ वेटरों को मिलेगी ज़्यादा बख़्शीश
चार ज़्यादा लोग आँखें दान करने का फ़ॉर्म भरेंगे
और जल्दी मरेंगे
दो और लड़कियाँ आधी रात के बाद निकलेंगी घर से
और सलामत लौटेंगी, ख़ुश भी
न्यूटन के पिता सेबों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे
और न्यूटन कविता के बारे में
वरना आप ख़ुद सोचिए
यह कहना कितना बेवकूफ़ लगता है
कि मुझे और तुम्हें धरती नीचे खींचती है
जबकि रोना ईंटों में है
और किसी सेमिनार में मेरे कमरों की छतों के बारे में कोई बात नहीं हो रही
न ही इस बारे में कि
अनाज लाने के लिए घरों से भागे हुए लोग
सोना पाकर भी वापस क्यों नहीं लौट पा रहे?
[+/-] |
अपने निबन्ध से पहले गाय कहीं नहीं थी |
ऐसा यक़ीन नहीं होता था
कि इतिहास की किताब से पहले भी
और बाहर भी रहा होगा इतिहास
जैसे शायद अपने निबन्ध से पहले
गाय कहीं नहीं थी
कम से कम दो सींग चार थन (या दो?) वाली तरह तो नहीं
फिर भी रोशनी खोने पर
इतिहास खोने का डर था
जिसमें मैं चौथी क्लास में अपनी एक मैडम से हुए
इश्क़ को लेकर था बड़ा परेशान
तब लाल या साँवले रंग के थे लोग
क्योंकि साँवला लाल होना आदत था
उस पर रोने पर
सबके हँसने का डर था
शर्म इतनी आती थी पूरे कपड़े पहनने पर भी
कि मैं साँवला खाली था
फिल्मों में साँवली हिचकिचाती तालियाँ बजती थीं
सब अपनी पत्नियों के पास ले जाकर साँवले दुख
- अफ़सोस कि उन दुखों में बच्चे भी थे जो कार की तरह रोते थे, जिनके नाम मुश्किल रखे जाते थे, प्यारे कम हैरान ज़्यादा –
सब अपनी पत्नियों के पास ले जाकर साँवले दुख
फ़ैक्ट्री में ख़ूब गोरा काम करते थे
मोटा होना काले होने जैसा ऐब था
हम इलाज़ में हो जाते थे आधे डॉक्टर
डॉक्टर माँ के पेट से सीखकर आते थे हँसना
माँ ख़ुद मिट्टी खाती और मुझे रोकती थी
सुख के त्योहार थे
और दुख का निबन्ध तक नहीं था
निबन्ध नहीं को फाड़ा नहीं जा सकता था
[+/-] |
हमारे हिस्से नहीं आए खेतों की याद में |
कंचनजंघा की छत पर
मेरे उबले हुए होठों की भाप से
सेक रहे थे हम
तुम्हारी हथेलियों की गुदगुदी
और हमारे हिस्से नहीं आए गाँव वाले खेत को जाने वाली पगडंडी
आसमान तक खड़ी हो गई थी
उस पर तुम गेहूं थी
हाय, उन खेतों में माँ दाल थी, पिता सूरज
और मैं अपने भाइयों के साथ
ट्यूबवैल बनने की पढ़ाई कर रहा था
तुम सुनहरे रंग की थी
क्योंकि तुम्हारे बनाए जा सकते थे जेवर,
तुम्हें पहना जा सकता था
तुम्हें रखा जा सकता था
तुम्हारे पति की शादी के बाद के
दिखावे के सामान में
सबसे आगे
काजू, बादाम, किशमिश,
तुम प्लेट में सजे हुए
सूखे मेवों के रंग की भी थी
थोड़ी बिग बाज़ार के रंग की भी
हम तुम्हें ब्याहना नहीं
रोज नाश्ते में खाना चाहते थे
क्योंकि जमीन के उबाऊ मुकदमों के बीच
हमारी आँतें हमें खाने लगी थीं
मेरा सारा प्यार
जिसमें कुछ लड़कों की पराजय
कुछ लड़कियों की ईर्ष्या
कुछ विदेशी फिल्मों वाले चुम्बन और निराश एसएमएस थे
तुम्हारी रोटियों के लिए था जानेमन
(यह एक पुरानी कविता का नया जन्म है)
[+/-] |
चुम्बन चुम्बन पर लिखा होगा मरने वाले का नाम |
तमाम समझाइशों के बावज़ूद
ख़त्म होना होगा बार-बार
कुर्सियों के नीचे से घास
हमें खाने की कोशिश में
हमारी माँ होगी
गिनतियों में घटते जाते हैं दुख
जैसे भीतर छिपा लिए गए हैं सब बच्चे
पोलियो की खुराक से बचाने के लिए
तुम्हारे गाल पर जो कुआँ है
वहाँ मैं पत्थर घिसता हूं
आवाज़ देते देते होता जाता बेआवाज़
हम बाहर निकलकर बाँटेंगे अख़बार
अन्दर मलेंगे रोने पर ग्लिसरिन
भर्राए हुए आएगा समय
ऊँघते हुए सब दिलासे
इंच इंच बढ़ेगी घास
फुट फुट आग होगी
मैं तुम्हारे गले को काटते हुए
थाली माँगूंगा, खाना
कुछ प्याज ज्यादा, थोड़ी मिर्च कम
और आधे घंटे तक नहीं पीना चाहिए पानी
क़त्ल जब भी होगा
खुली हवा और बसंत में होगा
चुम्बन चुम्बन पर लिखा होगा
मरने वाले का नाम
निर्ममता आँखों के न होने पर शुरु होनी चाहिए थी
मगर ऐसा हुआ कि ऊबी याददाश्त,
घास कुर्सियों के ऊपर उगी थी
और तुम्हारे गाल का अकेला कुआँ
मेरे खून में उजड़कर बह रहा था
नाराज़ होना किताब में नहीं लिखा था
थप्पड़ों में बीता था स्कूल
जब भेस बदलकर आई पुलिस
- उसमें वह पछताता सा लड़का जो इस रोल में नहीं बैठता था फिट-
तब मैं नक्शों पर मार्क करना सीख रहा था न्यूयॉर्क
पूछ रहा था- दर्द पहले आएगा या ब्योमकेश माँ?
टेबल फैन घूमता नहीं था
इसलिए हम सब एक कतार में बैठा और सोया करते थे
अपने घर में टिकट खरीदते थे जैसे
पापा गिनते थे रेलगाड़ियाँ रात भर
चाय और सूरज आपके घर आते होंगे हर सुबह
हवा जिधर से आती थी,
वही गोली की दिशा थी
जिस पर मैंने चुटकुले गढ़े
गेहूं की एक खास किस्म थी
जिसे हाथ में लेकर देखते हुए
उन्होंने माँगे मुझसे पैसे
यह घटना की तरह नहीं हुआ
[+/-] |
देखना, न देखना |
देखना, न देखने जितना ही आसान था
मगर फिर भी इस गोल अभागी पृथ्वी पर
एक भी कोना ऐसा नहीं था
जहाँ दृश्य को किसी से बाँटे बिना
सिर्फ़ मैं तुम्हें देख पाता
घासलेट छिड़ककर मर जाने को टालने के लिए
हम घास बीनने जाया करते थे चारों तरफ
और इस तरह जाया करते थे अपनी अनमोल उम्र
फिर अपना हौसला पार्क के बाहर बेच रहे थे
बोर्ड पर लिखकर छ: रुपए दर्जन
और मैं तुम्हें रोशनदान से बाहर आने के दरवाजे सुझाते हुए
कैसे भूल गया था अपने भीख माँगने के दिन
जब तुम्हारे कानों में गेहूं की बालियाँ थीं
जिन्हें मैं भरपूर रोते हुए खा जाना चाहता था
इस तरह लगती थी भूख
कि चोटें छोटी लगती थीं और पैसे भगवान
हम अच्छी कविताओं के बारे में बात करते हुए
उन्हें पकाकर खाने के बारे में सोचते थे
बुरी कविताओं से भरते थे घर के बूढ़े अपना पेट
बच्चे खाते थे लोरियाँ
और रात भर रोते थे
तुम बरसात की हर शाम
कड़ाही में अपने हाथ तलती थी
कैदख़ाने का रंग पकौड़ियों जैसा था
जिसकी दीवारें चाटते हुए
मैंने माँगी थी तुम्हारे गर्भ में शरण
यदि देखने को भी खरीदना होता
तब क्या तुम मुझे माफ़ कर देती
इस बात के लिए
कि मैंने आखिर तक तुम्हारी आँखों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा
[+/-] |
नत्था! और हमारा अंधा होना... |
आप बाहर निकलते हैं और रो लेना चाहते हैं. क्या यह पूरी फिल्म के दौरान बार-बार जोर-जोर से हंसने का पछतावा है? शायद हो, शायद कुछ और हो. शायद अनुषा रिजवी इस तरह से हम पर हंस रही हों कि कैसे बेशर्मी से गरीबी और मृत्यु के दृश्यों में हम मुंह फाड़कर हंस पाते हैं. हां, वे इसे इसी तरह बनाना चाहती थी और पॉपकोर्न के थैलों के बीच किसी और तरह इसे बनाना शायद मुमकिन भी नहीं था. हमने हिन्दी फिल्मों को बस इस एक कोने में ले जाकर छोड़ दिया है. हम कोई गंभीर बात नहीं सुनेंगे. सुनाओगे तो चिल्लाकर उसका विरोध करेंगे या इगनोर कर देंगे. हम महात्मा गांधी को सिरे से खारिज करते हैं, जब तक वह ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ न हो. हम गाँवों की कहानियों पर थूकते हैं, जब तक वह ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ न हो. हम नहीं जानते कि विदर्भ कहां है और कौन बेवकूफ किसान हैं, जो अपनी जान दे रहे हैं और हम जानना भी नहीं चाहते. ऐसे में ‘पीपली लाइव’ उस आखिरी हथियार ‘हंसी’ के साथ आती है और हमें हमारे समय की सबसे मार्मिक कहानियां ठहाकों के बीच सुनाती है. यही सबसे त्रासद है.
अनुषा रिजवी और उनके सह-निर्देशक पति महमूद फारुकी दास्तानगोई की परंपरा से आते हैं और इसीलिए उनका हाथ आपकी नब्ज पर है. वे सबसे हताश कर देने वाली बातों पर रसीले चुटकुले गढ़ सकते हैं और आप ध्यान दीजिए, पसीने से भीगा एक मजदूर जब हर रोज वही गड्ढ़ा खोद रहा है, तब आप अकेले हैं जो हंस रहे हैं. फिल्म तो उसके साथ खड़ी होकर उसकी तकलीफ में रो रही है. यही कला है. या जादू.
ऐसा ही जादू रघुवीर यादव में है और उनसे ज्यादा नवाजुद्दीन में, जिनके छोटे से चरित्र के पास फिल्म की सबसे ज्यादा दुविधाएं हैं. एक स्थानीय अखबार का पत्रकार राकेश ही फिल्म के दो हिन्दुस्तानों के बीच की कड़ी है. वही है जो गढ्ढ़ा खोदने वाले होरी महतो और अंग्रेजी समाचार चैनल की एंकर नंदिता मलिक को करीब से देखता है और ऐसा देखने के बाद कोई संवेदनशील आदमी चैन से कैसे रह सकता है? वह बेचैन होता है, लेकिन बेचारा है मगर फिर भी घटनाएं उसी से होकर बदलती हैं.
नत्था, जो हर जगह है, मरता हुआ या जीते हुए मरने की कामना करता हुआ, धूल से पटे चेहरे के साथ जिसे आप दैवीय विनम्रता से गुड़गांव की भव्य इमारतें रचते हुए देखते हैं, जिसके खेत उसी बैंक ने कर्ज के बदले हथिया लिए हैं, जो टीवी पर रोज यह विज्ञापन दिखाता है कि वह हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा या सर उठा के जियो. कैसे जियो भाई? क्या उसके पास सर झुका कर या कीचड़ में धंसाकर भी जीते रहने का विकल्प छोड़ा गया है? यह उसी नत्था की तलाश है, जिसकी खबर टीवी पर आने पर आप शिल्पा शेट्टी या सानिया मिर्जा की खोज में चैनल बदल देते हैं. लेकिन पा लेने के बावजूद यह उसी नत्था को हमेशा के लिए खो देने की भी कहानी है क्योंकि आप उसे दिन में हजार बार देखते हैं और एक बार भी नहीं देखते. कोई फिल्म हमें कितना बदलेगी?