मैं घर से बहुत दूर नहीं रहता। वह कस्बा, जिसे छोड़कर (और उसे छोड़ने का मुझे रत्ती भर भी अफ़सोस नहीं) मैं दिल्ली में रहता हूँ, उसमें ऐसा कुछ ख़ास नहीं कि आप उसकी याद में मरे जाएँ। हालाँकि ऐसे दिन थे, जब उसकी याद में मैं मरा जाता था मगर बुरे और बेवकूफ़ बाकी दिनों की तरह वे बीत गए और मैं बिल्कुल ठीक आपके सामने बैठा हूँ। जबकि यक़ीन मानिए, ऐसे दिन थे जब मुझे लगता था कि अब ज़्यादा दिन नहीं जीना चाहिए। 2004 की अगस्त की एक शाम में मैं अपने हरे भरे कॉलेज के एक लॉन में पागलों की तरह खड़ा होकर कहीं भाग जाने के बारे में आधे घंटे तक सोचता रहा था। मगर मैं नहीं भागा और मुझे आश्चर्य है कि मैंने अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। इस पर मुझे अब भी विश्वास नहीं होता क्योंकि उस घुमावदार पढ़ाई का एक अक्षर भी अब मुझे याद नहीं। मुझे लगता है कि मैं उसी शाम वहाँ से भाग आया था और तब से कहीं और, किसी और के नाम से रह रहा हूँ।
भारती पारीक नाम की एक लड़की थी जो दीदी के कॉलेज का कोई चुनाव जीती थी। मैं उन दिनों बहुत छोटा था और दीदी की सहेलियों के साथ शहर भर में जीप में घूमते हुए मैंने भी 'भारती पारीक ज़िन्दाबाद' के नारे लगाए थे। यह तेरह चौदह साल पहले की बात होगी। पिछले कई दिन से वह दिन मेरे दिमाग पर चिपककर बैठा है। न जाने क्यूँ, मैं जानना चाहता हूँ कि उस भारती पारीक नाम की लड़की का क्या हुआ! उसने कुछ बड़ा नहीं किया, यह तो तय है, लेकिन न जाने क्यूँ, मैं उसे एक बार देख लेना चाहता हूँ। वह किसी घर की रसोई और अपने दो तीन बच्चे सँभाल रही होगी, उसकी ऐसी ही छवि मेरे मन में बनती है। मेरे कस्बे की बहुत सी लड़कियों की यही कहानी है। वे इन्दिरा गाँधी, पी टी उषा, लता मंगेशकर या किरण बेदी बनना चाहती थी मगर आख़िर में सब माँ ही बनकर रह गईं। अब वे हफ़्ते में एक दो दिन अपने डिप्रेशन के दौरे झेलती हैं और बाकी दिन चुगली में कोई रस ढूँढ़ लेने की कोशिश करती हैं।
मैं चाहता हूँ कि कुछ और न हो तो भारती पारीक किसी स्कूल में पढ़ा ही रही हो। काश अब भी वह टीवी पर राजनैतिक ख़बरें चाव से देखती हो! काश उसने घर से भागकर शादी की हो और वह किसी महानगर में रहती हो!
मुझे उसका चेहरा भी याद नहीं। कभी सामने भी पड़े तो मैं उसे पहचान नहीं पाऊँगा और वैसे भी महानगरों की ख़ास बात यह है कि यहाँ इतने चेहरे हैं कि रोज़ गली से गुज़रती हुई लड़की पर भी आप नज़र नहीं रख सकते। बहुत दूर तक आप उनका पीछा नहीं कर सकते और उन्हें न पा सकने की कुंठा और हताशा में उनके घर पहुँचकर उनके चरित्र की धज्जियाँ नहीं उड़ा सकते। इसीलिए मुझे दिल्ली पसन्द है। असुरक्षा के बावज़ूद यह अपनी लड़कियों को आज़ादी देता है।
यहाँ बारहवीं की लड़कियाँ ट्यूशन से अपने बॉय फ्रेंड के साथ लौटते हुए सड़क पर ज़ोर ज़ोर से हँस सकती हैं। भारती पारीक की भी कोई बेटी हो तो उसे रहने को दिल्ली मिले या मुम्बई या बेंगलुरू।
आप इतने नाराज़ क्यों होते हैं जब वे शहरों की तरफ़ या पश्चिम की तरफ तेजी से भागना चाहती हैं? उन्हें डिस्को, पिज़्ज़ा या अंग्रेज़ी अपने हमउम्र लड़कों से ज़्यादा पसन्द है तो सिर्फ़ इसलिए कि ये चीजें उन्हें आपके कस्बाई घरों की जेलों को तोड़ती हुई दिखती हैं। वे पान की दुकानों और संकरी गलियों के मुहानों पर खड़े लड़कों और अधेड़ों की चीर देने वाली नज़रें ख़त्म कर देना चाहती हैं और आप ऐसा नहीं होने देना चाहते। तब डिस्को में आपको व्यभिचार दिखता है और बार बार आपको राष्ट्रीयता और संस्कृति याद आती है।
लेकिन आओ पश्चिम, सब आरोप और बुराइयाँ अपने सिर लेते हुए मैं तुम्हारी आज़ादी का बाँहें फैलाकर स्वागत करता हूँ।
और क्या आप भारती पारीक को जानते हैं?
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10 पाठकों का कहना है :
आमीन!!!
आपका लेखन बहुत कुछ सोंचने को मजबूर कर देता है। छोटे कस्बे से निकल कर बडे शहर की खुली हवा और आजादी क्या होती है, इसका स्वाद हमें अच्छे से पता है।
''यहाँ बारहवीं की लड़कियाँ ट्यूशन से अपने बॉय फ्रेंड के साथ लौटते हुए सड़क पर ज़ोर ज़ोर से हँस सकती हैं। भारती पारीक की भी कोई बेटी हो तो उसे रहने को दिल्ली मिले या मुम्बई या बेंगलुरू।
आप इतने नाराज़ क्यों होते हैं जब वे शहरों की तरफ़ या पश्चिम की तरफ तेजी से भागना चाहती हैं? उन्हें डिस्को, पिज़्ज़ा या अंग्रेज़ी अपने हमउम्र लड़कों से ज़्यादा पसन्द है तो सिर्फ़ इसलिए कि ये चीजें उन्हें आपके कस्बाई घरों की जेलों को तोड़ती हुई दिखती हैं। वे पान की दुकानों और संकरी गलियों के मुहानों पर खड़े लड़कों और अधेड़ों की चीर देने वाली नज़रें ख़त्म कर देना चाहती हैं और आप ऐसा नहीं होने देना चाहते। तब डिस्को में आपको व्यभिचार दिखता है और बार बार आपको राष्ट्रीयता और संस्कृति याद आती है।''
ये कस्बाई घर हर जगह जेल नहीं होते....अधेड़ों की नज़र हमेशा चीरने वाली नहीं होती....कई लोगों को डिस्को आता नहीं इसीलिए नापसंद करते हैं, व्यभिचार सबको नहीं दिखता.....राष्ट्रीयता और संस्कृति याद आना बहुत बुरा है क्या....आपकी भारती पारीक को पसंद के हिसाब से कहीं भी रखें, लेखों में इतने आज़ाद न हों कि लड़की की आज़ादी सिर्फ पश्चिम में ही नज़र आने लगे....आज़ाद शहरों के कई किस्से ऐसे हैं जिन पर हर उम्र में गर्व नहीं किया जा सकता...
बस इतना कहना था....
आप अच्छा लिखते हैं ये तो आपको भी पता है...
मैं तो उन्हें ऐसे शहर या देश में बसने को कहूँगा जहाँ बलात्कार नहीं होते हों . स्त्री की सुरक्षा और असुरक्षा का स्तर इसी बात से पता चलता है .
क्या वहाँ बलात्कार नहीं होते ?
wah..
evry tym i read u n i i fall in love wth it..!!!
speechless.....as usual..!!!
great luck :)
बड़े दिनों बाद आया तुम्हारे ब्लॉग पर, और आते ही मज़ा आ गया.
क्या खूब लिखते हो, बड़ा सुन्दर सोचते हो. लिखते रहो - कहते रहो... बड़ा अच्छा लगता है,
बड़े दिनों बाद आया तुम्हारे ब्लॉग पर, और आते ही मज़ा आ गया.
क्या खूब लिखते हो, बड़ा सुन्दर सोचते हो. लिखते रहो - कहते रहो... बड़ा अच्छा लगता है,
TheD
Dinesh
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