घाघ आदमियों के बीच
पेड़ थे सब लड़के
और यह फ़ानूस, मोमबत्ती या आग के भी जन्म से
बहुत पहले की बात है
जब पंख वाले बारिशी कीड़े
फड़फड़ाते थे सूरज की ओर चेहरा करके
और किसी साधारण शाम में,
जब अपनी उम्र और माँओं पर थोड़ा तरस खाकर
हम सबको साथियों,
हो जाना चाहिए था थोड़ा सा रूमानी,
हम बिगड़े हुए स्कूटरों की तरह
घर की नीलामी के वक़्त भी
सबसे बेकार की चीज थे,
सबसे उदास भी बेकार में ही।
समुद्र उठता है
मेरी छाती की ज़मीन में,
बाघ कपड़े पहनकर
निकलते हैं शिकार पर,
बेघर और अनाथ समय
बदहवास सा दौड़ता है बेवज़ह,
हर दिशा से बढ़ा आता है
हत्यारों का हुज़ूम।
जब शुरु किया हमने
तो चौथी कक्षा की किताब की
बकरी की एक कोमल कहानी के बारे में सोचा था,
जब ख़त्म करेंगे तो
धड़ाधड़ गोलियाँ और नंगे शरीर होंगे निश्चित ही।
मगर फिर भी हे ईश्वर!
ज़रा सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी
हमेशा बची रहे हममें,
बहुत सी चीजें और चित्र हों
जो कभी समझ में न आएँ।
स्वतंत्र रहने की हमारी ज़िद्दी अमर चाहत के बावज़ूद
ऐसे लोग हों ज़रूर,
जो बार बार टोकते हों,
बताते हों सही ग़लत,
ऐसी फ़िल्में रहें हमेशा,
जिन्हें छिपकर कम वॉल्यूम में देखना पड़े,
एक करोड़वीं बार भी तुम्हें चूमूँ
तो लाल हों गाल,
नाखून कुतरते रहें परेशानियों में,
खाने के वक़्त भी हिलाते रहें पैर।
बेवज़ह उदास नहीं रहता कोई।
घरों के आख़िरी कोनों
या पुराने स्कूलों को खोदकर देखो,
खोलो पलंग की चादरों की आख़िरी तह।
शहर को एक बार जलाकर देखो नंगा,
घर की रोटियों में ढूँढ़ो काँच।
चिट्ठियाँ जहाँ ख़त्म होती हैं,
वे मृत्यु के अक्षर होते हैं।
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15 पाठकों का कहना है :
अँधेरे का यह कैसा भयावह रूप है!!! कई लाइन बहुत खूबसूरती लिए हुए है... जैसे
घाघ आदमियों के बीच
ज़रा सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी हमेशा बची रहे हममें,
बहुत सी चीजें और चित्र हों जो कभी समझ में न आएँ
घर की रोटियों में ढूँढ़ो काँच।
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चिट्ठियाँ जहाँ ख़त्म होती हैं, वे मृत्यु के अक्षर होते हैं। ---- कितनी बड़ी बात कह दी आपने... कई चिठ्ठी पढ़ते वक़्त आखिर में उसकी ओरे से यही ख्याल आता है...
यार न लिखा करो ऐसे कवितायेँ मन रोने रोने को फटने लगता है कवितायेँ ही क्यों लिखनी हैं जरा हिम्मत करो निकलो बाहर तोड़ो सारी परवशता सदियों से जो लदी है हम पर कहीं धरम पंथ सम्प्रदाय और मजहब के नाम पर कहीं संस्कारों के नाम पर कहीं आदर्शों के नाम पर कहीं विचारधाराओं के नाम पर कहीं कानून और राजनीती के नाम पर कहीं समाज और अर्थव्यवस्था के नाम पर और मिल कर जीने का कोई विज्ञानं सम्मत रास्ता तलाश तो करो-- कब तक यूं ही घुट घुट कर डर डर कर मर मर कर जीना है --- मुझे जवाब देना shabdateet blogspot .com पर
bahut sundar kavita hai achnak hi aapke blog par aa gya hoon sanwad banaiega
kavi mitr bahut priy laga tumhara blog
kavi mitr bahut priy laga tumhara blog
सागर भाई ने दुरुस्त फरमाया, वैसे शब्दों के माध्यम से बड़ी-बड़ी और गहरी बात कह जाते हो हमेशा
रौंगटे खड़े कर देते हो यार..
सोचता हूँ किसी सन्डे तुम्हारा पुराना सामान खंगाल लूं .....
अद्भुत
डॉ साहब इसी संडे को कर डालो येह शुभ काम..वरना लेट होने की कोफ़्त भी कम नही होती है..मैने भी उलटा-पलटा था पुराना सामान..और वो महक काफ़ी वक्त तक जेहन पे चिपकी रही.. :-)
आ गया इतवार भी :)
बेवज़ह उदास नहीं रहता कोई।
घरों के आख़िरी कोनों
या पुराने स्कूलों को खोदकर देखो
great...
बहुत अच्छा लिखते हैं आप! दिल को छू लेने वाला
घाग आदमियों के बीच पेड़ थे सब लडके ... वाह
तेरा जाना और आना
धडकनो मे
उसकी रात और दिन
ख्यालो से टिककर
...एक अनछुई लम्बी सांस
के इर्द-गिर्द
ख्वाब से भरी लम्स
समेट लेती है
अपने दरमियाँ
जब तू उडना चाहता है
सपनो से भरी पतंग पर
तुम्हारी हर उडान से लगकर
हो जाती है पृथ्वी और
तुम्हे जोड देती है
मांझे से
हर रात तुम्हारी
हर दिन तुम्हारा
कसो मे खींची ख्वाहिशो को
ढकेल देना
कुँये की अंधी आंखो मे
और खिल जाना आसमान पर
दर्द के कब्र पर लिख देना
कल की उडान बाकी है !
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