एक ख़ुशख़बरी है। मेरी एक कहानी 'डर के आगे' का अनिरुद्ध शंकर और गौरव जैन ने अंग्रेज़ी में बहुत ख़ूबसूरत अनुवाद किया है और वह तहलका के वार्षिक कहानी विशेषांक में छपा है। ज़्यादा ख़ुशी की बात यह है कि 12 अंग्रेज़ी कहानियों के इस संकलन में एक कहानी तमिल से और एक हिन्दी से अनूदित है और वहाँ मैं हिन्दी का प्रतिनिधि हूँ। मुझे लगा कि जिस तरह मैं स्वार्थी होकर अपनी पीड़ा और गुस्सा अक्सर आपसे बाँटता हूँ, उसी तरह ख़ुशी भी बांटूं। यहाँ यह कहानी हिन्दी में दे रहा हूँ और आप इसका अनुवाद देखना चाहते हैं तो यहाँ जाएँ- Beyond Fear.
डर के आगे
मैं सात साल का हूं। माँ ने मुझे पुजारियों के घर से दूध लाने को कहा है। वे मन्दिर में रहते हैं, शायद इसीलिए उनके घर को सब पुजारियों का घर कहते हैं। शिप्पी ने मुझे बताया है कि पुजारी भगवान नहीं होते। उसने उनके घर के एक बूढ़े को बीड़ी पीते देखा है और तब से उसकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई है। भगवान कौन होते हैं, यह पूछने पर वह उलझ जाती है और सोचने लगती है। शिप्पी मुझसे बड़ी है या बड़ी नहीं भी है तो भी उसे देखकर मुझे ऐसा ही लगता है। वह आधे गाल पर हाथ रखकर सोचती है तो मेरी नज़रों में और भी बड़ी हो जाती है।
मैं डोलू उठाकर चल देता हूं। इस बर्तन को हाथ में लेते ही झुलाते डुलाते हुए चलने का मन करता है, शायद इसीलिए इसे डोलू कहते हैं। शिप्पी अपने घर की देहरी पर बैठी है। मुझे अकेले जाते देख वह भी मेरे साथ हो लेती है। वह वादा करती है कि अगर मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा तो लौटने के बाद वह मुझे बैट बॉल खेलना सिखाएगी। मैं कहता हूं कि तब तक तो रात हो जाएगी और वह कहती है कि हाँ, अब दिन भी छोटे होने लगे हैं। मैं सिर उठाकर आसमान तक देखता हूं मगर मुझे कहीं दिन का चेहरा या पेट या पैर नहीं दिखाई देते।
उसने नया फ्रॉक पहन रखा है, जो उसके घुटनों से थोड़ा ऊँचा है। मैं उसे कहता हूं कि यह पुराना है, इसीलिए ऊँचा हो गया है। वह मेरे सामने पीठ करके खड़ी हो जाती है और पीछे चिपका हुआ स्टिकर दिखाकर बताती है कि यह उसने पहली बार पहना है। स्टिकर को छूने के प्रयास में उसके फ्रॉक का एक हुक खुल जाता है। अब वह चलती है तो एक कंधे पर फ्रॉक लटक सा जाता है। वह मुझसे आगे है। मैं उसे पकड़कर रोक लेता हूं और बताता हूं कि उसका एक हुक खुला है। वह बताती है कि उसे शर्म आ रही है। मुझे भला सा लगता है। वह मुझसे लम्बी है। उसका हुक लगाने के लिए मुझे तलवों के बल पर ऊँचा होना पड़ता है। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। मैं उसे बताता हूं कि पुजारियों के कुत्ते से मुझे बहुत डर लगता है। वह बताती है कि कुत्तों से कभी नज़र नहीं मिलानी चाहिए, नहीं तो वे गुस्सा हो जाते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि कुत्तों के आस पास कभी भागना नहीं चाहिए। यह मुझे माँ ने बताया था। माँ की याद आने पर मुझे लगता है कि हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, नहीं तो देर से लौटने पर माँ डाँटेगी।
रास्ते में सरकारी स्कूल के अन्दर से होकर जाना पड़ता है। स्कूल के सब कमरों पर ताले टँगे हैं, लेकिन एक कमरे का दरवाजा टूटा है, जिसमें से भीतर जाया जा सकता है। हम उधर से गुजरते हैं तो उस कमरे में कभी कभी आइस पाइस खेलते हैं। लेकिन आज जल्दी है, इसलिए हम सीधे निकल जाते हैं।
रामदेव जी का मन्दिर गाँव से बाहर है। उसके आस पास रेत के ऊँचे टीले शुरु हो जाते हैं, जिन पर लोटना और फिसलना मेरे और शिप्पी के प्रिय खेलों में से है। वह बाहर ही खड़ी रहती है। मैं जब घर के अन्दर से दूध लेकर आता हूँ तो वह ललचाई नज़रों से उन टीलों को देख रही है। मैं उसे बैट बॉल का वादा याद दिलाता हूं तो वह थोड़ी सी उदास होकर मेरे साथ लौट चलती है। दिन इतने छोटे हैं कि हमारे लौटते लौटते धुंधलका होने लगा है।
स्कूल के अन्दर वाली राह सुनसान है। हम दोनों हाथ पकड़कर चल रहे हैं। तभी पीछे किसी के पैरों की आहट सुनाई देने लगती है। मैं पीछे मुड़कर देखता हूं। नहीं, पहले शिप्पी देखती है कि पुजारियों का लड़का अतुल हमारे पीछे आ रहा है। वह फुसफुसाकर मुझसे कहती है कि उसे इसका नाम नहीं पता, लेकिन यह अच्छा लड़का नहीं है। वह अचानक काँपने लगी है। मैं भी मुड़कर देखता हूं कि वह सिगरेट के कश लगाता हुआ आ रहा है। मैं उसे रोज़ देखता हूँ, लेकिन आज मेरे मन में भी डर की एक लहर दौड़ जाती है। हम तेज तेज चलने लगते हैं और कुछ देर में लगभग दौड़ने लगते हैं। हम टूटे दरवाजे वाले कमरे के सामने हैं, जब वह हमारे सामने आ खड़ा होता है।
शिप्पी की उम्र आठ साल है। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उसने चौड़े घेरे का ऊँचा गुलाबी फ़्रॉक पहन रखा है। उसका हाथ मैंने कसकर पकड़ रखा है। अतुल हमसे पाँच-छ: साल बड़ा है। वह मेरे सिर पर हाथ फेरता है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेरे हाथ से शिप्पी का हाथ छुड़ा देता है। उसकी आँखों में आँसू आ गए हैं। वह बुरी तरह काँपने लगी है। मैं देख रहा हूं कि वह उसे खींचकर टूटे हुए दरवाज़े से कमरे के अन्दर ले गया है। मैं डरकर भाग लेता हूं और कुछ दूर जाकर फिर थमकर खड़ा हो जाता हूं। मैं बार-बार भागता हूँ और फिर लौट आता हूँ। उस ठंडी शाम में मैं पसीने से भीगा हुआ हूं। मुझे कुछ समझ नहीं आता। मेरा रोने का मन करता है, लेकिन डर के मारे मैं रो भी नहीं पाता।
मेरे बड़े होने के बाद टीवी पर एक विज्ञापन आता है- डर के आगे जीत है...
नहीं, डर के आगे जीत नहीं है। डर के आगे सरकारी स्कूल का एक कमरा है, जिसमें घुसते हुए अतुल का हाथ शिप्पी के ऊँचे फ्रॉक को और भी ऊँचा उठाता हुआ ऊपर तक चला जा रहा है। डर के आगे मेरा उस कमरे के बाहर अँधेरा होने तक खड़ा रहना और फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरकर जाते अतुल के बाद रोती बिलखती शिप्पी को देखते रहना है। डर के आगे घुप्प अँधेरा है, जिसके बाद मैं शिप्पी से कभी नहीं पूछता कि भगवान कौन होते हैं?
डर के चार घंटे आगे शिप्पी का बिना किसी से कुछ कहे अपने बिस्तर पर सो जाना है।
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सात साल बीत गए हैं। मैं चौदह साल का हूं। चौदह का लड़का होना कुछ नहीं होने जैसा होता है। मैं लाख रोकता हूं लेकिन ठुड्डी पर बेतरतीब बाल निकलने लगे हैं। मैं बाल कटवाने जाता हूं तो नाई से दाढ़ी बनाने के लिए कहने में बहुत शर्म आती है। मैं हर बार यूं ही लौट आता हूं और बेतरतीबी अपने अंदाज़ से बढ़ती रहती है। मैं अब बच्चा नहीं हूं और बड़े भी मुझे अपने साथ नहीं बैठने देते। कुछ साल पहले तक साथ की जिन लड़कियों के साथ गुत्थमगुत्था होकर कुश्ती लड़ा करता था, वे अब सहमी सी रहती हैं और बचकर निकल जाती हैं। उन्हें बड़ी माना जाने लगा है, लेकिन चौदह के लड़के घर के सबसे उपेक्षित श्रेणी के सदस्य होते हैं, जिनके सिर पर सबका संदेह मंडराता रहता है। अब चड्डी पहनकर घर में घूमने पर माँ डाँट देती है। चौदह के लड़कों को लगता है कि नहाते हुए उनके चेहरे पर फूटने वाले मुँहासों जैसा ही कुछ है, जो उन्हें पता नहीं है और सबको लगता है कि उसके पता लगने के बाद वे बड़े हो गए हैं। उन्हें अवास्तविक और सम्मोहक से सपने दिखते हैं, जिन्हें वे कभी कभी सहन नहीं कर पाते। मैं हर सुबह अपने उन नशीले सपनों पर शर्मिन्दा होता हूं और अपने आप ही उपेक्षा की लकीर पर थोड़ा और जमकर बैठ जाता हूं।
दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। मुझे बताया नहीं जाता, लेकिन मुझे मालूम है। दीदी की शादी हो जाने के ख़याल से मुझे बहुत बुरा लगता है।
दीदी पूरियाँ तल रही है, दीदी दहीबड़े बना रही है, दीदी ने भौंहें बनवाई हैं, दीदी ने साड़ी पहनी है, दीदी रो रही है। दीदी जब अन्दर वाले कमरे से बर्तनों का नया सेट निकालने जाती है तो एक मिनट रुककर रो लेती है। दीदी पैन से अपनी हथेली पर कुछ लिखती है और फिर खुरचकर मिटा देती है। मैं पूछता हूं कि क्यों रोती हो तो वह मुझे झिड़क देती है और तेजी से बाहर निकल जाती है। माँ मुझे डाँटती है कि वह औरतों का कमरा है, मुझे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मैं माँ की नहीं सुनता और वहीं अँधेरे में पड़ा रहता हूं। माँ बड़ बड़ करती रहती है। फिर पुकार होती है कि बाज़ार से काजू लाने हैं, लेकिन मैं नहीं सुनता। बाहर गाड़ी आकर रुकती है। घर में भगदड़ मच जाती है। “अरे सिद्धार्थ, मेरी चुन्नी तो लाना”, माँ चिल्लाती है और मैं सोचता रहता हूं कि दीदी क्यों रोती है?
माँ बाहर गई है और बाकी लड़कियाँ औरतें उसी अँधेरे कमरे में इकट्ठी हो गई हैं।
“गठीले बदन का है”, मौसी इस तरह कहती है कि दीदी की सब सहेलियाँ हँसने लगती हैं।
- क्या करता है?
- उससे क्या लेना?
फिर हँसी।
- हैंडसम है..
मेरी चचेरी बहन दीदी की बाँह पर चिकोटी काटती है। दीदी नहीं रोती। क्यों?
- नाम क्या है लड़के का?
कोई दरवाजे के बाहर से पूछता है।
- अतुल.....
और ऐसा होता है कि कमरे की दीवारों पर राख पुतने लगती है, मेरे सिवा सब गायब होने लगते हैं। छत तड़ तड़ तड़ाक टूटती है और गिरने लगती है। लेटे हुए मुझे चाँद दिखाई देता है, जिस पर बैठकर शिप्पी चरखा कातती हुई सुबक सुबक कर रो रही है। उसका सूत सपनों के रंग का है- मटमैला। मैं शिप्पी को पुकारता हूं, लेकिन वह मुझसे बात नहीं करती। वह सूत पर लिखकर भेजती है-पूछती है कि मैं रात को कैसे सो जाता हूं? मैं हाथ जोड़ता हूं, पैर पड़ता हूं, बाल नोचता हूं, छाती पीटता हूं और शिप्पी नहीं सुनती।
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तुमने सुना क्या? दरवाज़े के उस पार की दुनिया में दीदी अपनी दो सहेलियों से फुसफुसाकर बातें कर रही है। वह शादी के बाद पहली बार तीन दिन के लिए आई है। वह इतनी ख़ुश है कि तुम्हें देखती है तो ऐसे, जैसे भूल ही गई है। जैसे वे सब शामें, जब तुम दोनों बेसिरपैर के शब्द बोलते हुए हँसा करते थे - एक लड़का रोज़ हमारे घर के सामने से गुज़रता था और गर्दन घुमाकर अन्दर ज़रूर देखता था। हमने उसका नामकरण किया था, ‘टेढ़ी गर्दन वाला’ और फिर इसे ‘गर्दन टेढ़ी वाला’ बनाने से इसकी शॉर्ट फ़ॉर्म GTV हो गई थी। हम हँसते थे और एक दूसरे को मारकर भागते थे, पकड़ते थे, थककर चूर हो जाते थे और एक थाली में खाना खाते थे। - जैसे वे सब शामें बचपने का एक मज़ाक भर थीं और उन्हें भूल जाना ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी है। वह तुमसे कोई ख़ास बात नहीं करती। तुम्हें उसकी बदली हुई दुनिया जाननी है तो तुम्हें दरवाज़ों की ओट में खड़े होकर उसकी बातें सुननी ही होंगी। तुम्हारे पास और कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं गया। तुम चौदह साल के मासूम से लड़के हो, अपनी मासूमियत से आजिज और जून की गर्मी में पसीने से भीगे हुए छिपकर खड़े हो।
- तू तो मेरी जान, एक हफ़्ते में ही गुलाब सी खिल गई है।
यह रश्मि की आवाज़ है। दीदी हँसती है। दीदी की हँसी में इन दिनों एक नया रस घुल गया है, जिसने उसकी हँसी की चाशनी को गाढ़ा कर दिया है। इसमें दुख की कोई बात नहीं है। मैं आपको बताऊँ कि दुख की कोई बात नहीं होती, दुख होता है सिर्फ़ – गहरे काले रंग का - जिसमें डूब जाना होता है। वह ऐसे आता है जैसे आप सड़क पर नंगे खड़े हैं, बरसात होने लगी है और आपका कोई घर नहीं है।
- वे फौलाद हैं जैसे... – दीदी धीरे धीरे कह रही है – मैं बेहिसाब प्यार करने लगी हूँ उनसे।
- और तेरा वो मधुसूदन?
दीदी चुप हुई है। मुझे लगता है कि वह रो देगी। मधुसूदन उसे चिट्ठियाँ देता था और मिलने के लिए बेकरार रहता था। वह कॉलेज के गेट पर खड़ा होकर उसकी राह देखता था और उसकी शादी तय होने के बाद से उदास रहने लगा था। उस नौजवान हँसमुख लड़के को मैंने दीदी के पैरों में पड़कर रोते भी देखा था। लड़के जब अपना सारा आत्मसम्मान भुलाकर लड़कियों के सामने रोते हैं तो उन्हें बचाकर किसी सुन्दर दुनिया में ले जाने का मन करता है। वे लड़के, जो बहुत से बेहतर काम कर सकते हैं, प्यार कर बैठते हैं और ख़त्म हो जाते हैं।
- अरे कैसा मधुसूदन? पागल थी मैं भी जो सोचती थी कि उसके बिना कैसे जी पाऊँगी? बेवकूफ़ हो जाते हैं हम कच्ची उम्र के प्यार में।
- वो कॉलेज छोड़ गया है।
- मैं अपने अतुल के बारे में बता रही थी और तुम लोगों ने बात ही बदल दी।
- हाँ हाँ, बता ना। हम तो एक हफ़्ते से इंतज़ार कर रहे हैं। फ़ोन पर भी तू कुछ नहीं बताती थी। हँसती रहती थी बस।
हाँ, वह हँसती रहती थी उन दिनों और मैं उसे ऐसे देखता था जैसे किसी संकरी अँधेरी सुरंग में बैठकर रोशनी का सपना देखता हूँ। अचानक उसकी दुनिया बदल गई थी। वह अमीर और ख़ुश हो गई थी। उस दिन से मैं यह तय तौर पर मानता रहा हूँ कि प्यार जो भी है (है भी या नहीं?), वह एक तरह की आत्महत्या है, एक किस्म का धीमा ज़हर और वह अनुभव जो दीदी ने नया नया भोगा था, पल्स पोलियो की दवा की बूँदों की तरह मृत्यु के विरुद्ध हमारे सतत संघर्ष में ‘ज़िन्दगी’ है।
दीदी ने बताया- हमारा जो कमरा है, इतना बड़ा है कि स्कूल के किसी क्लासरूम जैसा लगता है। बड़े रोमांटिक हैं अतुल। जानती हो...पहली रात मुझे बोले कि तुम स्कर्ट पहनोगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। मैं और स्कर्ट भला? यहाँ पहनती तो मार डालते पापा। छठी के बाद कभी नहीं पहनी। लेकिन उन्होंने मेरे लिए तीन चार स्कर्ट खरीदकर रखी थी। छोटी छोटी। - हँसी का एक गुब्बारा मेरे कानों को हल्के से छूता है – वैसे वे कहते हैं कि जब वे अकेले थे...मतलब शादी से पहले मेरे बिना...तो फ़्रॉक वाली लड़कियाँ उनकी फेंटेसी थी। उन्होंने कहा है कि स्कर्ट से ऊब जाएँगे तो फ़्रॉक पे आएँगे। इतने क्रिएटिव हैं...और ये है प्यार शालू, जो ख़ुशी ही ख़ुशी देता है। कभी ख़त्म न होने वाला सुख। मधु अपनी ज़गह ठीक होगा लेकिन अब मुझे समझ में आया है कि अपने आप को जलाते रहना, मारते रहना कहाँ की समझदारी है?....हाँ, पूरी बात तो सुनो। फिर उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ बाहर चलूँ। दूसरी मंजिल पर है हमारा कमरा और बाहर भी कोई नहीं था लेकिन इस तरह स्कूल की लड़कियों जैसी स्कर्ट में नई दुल्हन मैं कैसे बाहर जाती भला? लेकिन वे मुझे खींच कर ले गए..ज़बर्दस्ती अपनी बाँहों में उठाकर...तुमने तो देखा ही है कितने तगड़े हैं अतुल! मुझ जैसी तो दो लड़कियों को एक साथ उठा सकते हैं। पहले मैं सोचती थी कि यह जो सलमान ख़ान है, किसी कैमरा ट्रिक से ऐसा दिखता है...सच्ची मैं ऐसा ही सोचती थी लेकिन पहली बार मैंने किसी आदमी को इतने क़रीब से देखा और वो भी अतुल को। उन्होंने जब फूल की तरह मुझे उठा रखा था तो मेरा चेहरा उनके कन्धे के पास था...और मैंने उनकी बाँह में उभरी हुई मछलियों पर काट लिया। उन्होंने मेरे कान पर इतनी ज़ोर से काटा कि क्या बताऊँ...देख रश्मि..निशान होगा अब भी इस कान पर। - दीदी रुकी। रश्मि ने शायद देखा हो। मैं गर्मी में बेहाल हो रहा था। पंखा चलाता तो उन लोगों को पता चल जाता कि दूसरे कमरे में कोई है। - फिर उन्होंने कहा कि हम रोल प्ले करेंग़े...
दीदी चुप हो गई।
- अब ये रोल प्ले कौनसा खेल है दुल्हनिया जी?
शालू का स्वर बहुत अधीर था। सच कहूँ तो मैं भाग जाना चाहता था। सुहागरात के किस्से जानने के लिए बाज़ार में बीस रुपए में तीन किताबें आ जाती थीं और उसके लिए मुझे छिपकर अपनी बहन की कहानी सुनने की कोई ज़रूरत नहीं थी, लेकिन मैं भाग भी नहीं पाया। जो लोग शरीर को निकृष्ट मानते हैं और दुनियावी प्रेम को पतित, दरअसल वे संसार से आँख मूँदकर भागे हुए लोग हैं। वे उस गहरे अँधेरे गड्ढ़े को नहीं देखना चाहते जिसमें दिन रात जीवन का व्यापार चलता है और लोग एक दूसरे की पत्नियों के साथ सोते हैं। अपने बच्चों को सुलाकर उन्हीं के पास लेटे हुए सीडी प्लेयर पर ब्लू फ़िल्में देखते हैं। औरतें अपने बेटों की उम्र के लड़कों का सान्निध्य पाने के लिए उनके सामने अश्लील बातें फुसफुसाती हैं, शराब पीती हैं, अपनी महंगी गाड़ियों में घुमाती हैं और कामुक लाड़ से उन्हें छाती में भींच लेती हैं। पन्द्रह सौ रुपए और डिप्लोमेट की एक बोतल में अठारह अठारह साल के लड़के किसी की भी हत्या करने को तैयार बैठे हैं। ज़िन्दगी एक पल्प फ़िक्शन ही है, फुटपाथ पर बिकने वाला सस्ता साहित्य।
- रोल प्ले माने एक तरह का नाटक, जिसमें दोनों लोग कुछ देर के लिए कुछ और होने का नाटक करते हैं, जो वे नहीं हैं।
- ऐसा क्यों भला और क्या बने तुम दोनों?
- बहुत मज़ा आता है उसमें। आपके दिल में जो भी बात दबी हो, वो कह सकते हो...जो करना हो, कर सकते हो...
- अरे वाह! और क्या बनी तू?
- उन्होंने कहा कि मैं छोटी बच्ची बनूँ, स्कूल जाने वाली और सब बातों से अनजान।
- और तेरे वे?
- वे वे ही रहे।
- और फिर?
शालू और रश्मि आगे की कहानी सुनने के लिए पागल हुई जा रही थी। मैं आगे नहीं सुन पाया और बाहर आ गया।
बचपन में एक सुबह मैं और शिप्पी खेलने के लिए निकले थे। अगले दिन शिप्पी का परिवार हमेशा के लिए गाँव छोड़कर चला जाने वाला था। वह बहुत ख़ुश लग रही थी। बेरी के उस झाड़ के पास, जहाँ हम अक्सर बेर तोड़ने जाते थे, वह अचानक रुककर रोने लगी थी।
- क्या हुआ?
मैंने घबराकर पूछा था। उसने रोते रोते ही गर्दन हिलाकर मुझे अपने पास बुलाया। मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। उसने मेरा हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिया।
- मेरी कसम खा कि तू उस दिन की बात कभी किसी से नहीं कहेगा। मुझसे भी नहीं। हम हमेशा के लिए वह दिन भूल जाएँगे।
लड़कियाँ बहुत कम उम्र में समझदार हो जाती हैं। मैं हैरान सा उसके सिर पर हाथ रखकर खड़ा रहा और मुझे बोलने के लिए कोई बात न सूझी। फिर वह रोते रोते ही मेरे गले लग गई और देर तक सुबकती रही। जब हम वहाँ से चले, बिना बेर तोड़े, तो वह सचमुच सब कुछ भूल चुकी थी, कुछ देर पहले का अपना रोना भी। हमने एक भैंस की पीठ पर एक के ऊपर एक, दो कौए बैठे हुए देखे और वह खिलखिलाकर हँसी। उसके इस भूल जाने से मैं डर भी गया था। इस तरह तो वह किसी दिन मुझे भी भूल सकती थी। इस तरह तो किसी दिन बाज़ार में माँ मुझे भूलकर आ सकती थी और फिर लता का कोई गीत गुनगुनाते हुए आराम से आलू मटर बना सकती थी। उन दिनों मुझे माँ के बिना कहीं भी अकेला छूट जाने के ख़याल से ही बहुत भय लगता था और अपने बचपन में मैं बार बार अकेला छूटा। किसी दिन माँ ताला लगाकर बाहर चली जाती थी और मुझे अन्दर ही छोड़ जाती थी। मुझे लगता था कि वह मुझे भूल गई है। मैं बदहवास सा होकर घर में इधर उधर दौड़ता था, अपने छोटे छोटे हाथों से दरवाज़ा तोड़ देने की कोशिश करता था, किसी तरह दीवार पर चढ़कर उस पार कूद जाने की सोचता था और आख़िर में हारकर रोने लगता था। उसके लौटकर आने तक मैं थककर सो चुका होता था और वह सोचती होगी कि मैं पूरे समय सोता ही रहा हूँ। वह स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरती थी और मेरा मन करता था कि मैं किसी तरह उसके गर्भ में फिर से चला जाऊँ, ताकि वह मुझे छोड़कर कहीं न जा सके।
जिन स्त्रियों को मैंने अपना संसार माना, बहुत सी बुरी चीजों के साथ वे मुझे भी अक्सर भूल जाती रहीं।