तलाशता हूँ जेबें

घोड़े दौड़ते हैं नींद में,
उन्हें बेचकर सो जाती हो तुम।
हम अपने सपनों में आग लगाकर
दिन रात रोशनी बाँटते हैं अथक,
तुम मुझे देखती हो ऐसे
जैसे काँच को देखती हो
और शोर के पीछे की गली में
हम लावारिस पड़े हैं।
हाँ, तुम थोड़ी आश्वस्त।

जीत की तालियों की गगनचुम्बी गड़गड़ाहट के बिना
हम जान झोंककर तमाशा करते हैं दोस्तों!
यह और बात है कि
हमारी आँखों के नीचे पड़े काले गढ्ढों
और दुखती काँपती टाँगों से आप होते हैं विकर्षित
और खाली बोतलें फेंकते हैं।
मगर यकीन मानिए,
जिस समय हमें अपने बिस्तरों में दुबककर प्रेम करना चाहिए था,
हम आपके लिए गीत लिख रहे थे।

आप बार बार यही क्यों कहते हैं
कि वे बुरे बने।
उन्हें छोड़कर क्या आप
कल रात भर मेरे जागने के बारे में दो बातें करना चाहेंगे?

कैसी हवा चलती है माँ,
बार बार लगती है भूख,
तलाशता हूँ जेबें।



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16 पाठकों का कहना है :

Puja Upadhyay said...

"जीत की तालियों की गगनचुम्बी गड़गड़ाहट के बिना
हम जान झोंककर तमाशा करते हैं दोस्तों!"

Is line se bahut identify karti hoon...kavita ke बिम्ब हमेशा की तरह अलग से हैं. सृजन ऐसे ही होता है, थोडा और धैर्य बस...
"आप बार बार यही क्यों कहते हैं
कि वे बुरे बने।
उन्हें छोड़कर क्या आप
कल रात भर मेरे जागने के बारे में दो बातें करना चाहेंगे?"
रात भर का जागना इसलिए होता है की सुबह कागज पर कोई कल्पना उतर सके, कोई ख्वाब मूर्त हो फिल्म के किसी परदे पर. अच्छी लगी कविता.

Satish Saxena said...

दिल पर प्रभाव करती रचना , शुभकामनायें !

अनिल कान्त said...

मुझे समीक्षा करना ठीक से नहीं आता
बस इतना समझ आता है कि कौन सी कविता मुझे अच्छी लगी और किसने असर छोडा

आपकी कविता ने दोनों काम किये हैं.

kishore ghildiyal said...

aapki kavita ne sachmuch mann moh liya ati sundar
jyotishkishore.blogspot.com

सागर said...

तुम कभी मिलोगे तभी बता सकूँगा की तुम कैसा लिखते हो और वो क्या होता है ? मुझे अक्सर दूर देश के कवि याद आते है वो त्रासदियाँ देख कर आया हो, या फिर युगद्रष्टा, या फिर नोबेल प्राइज़ के आस पास का लेखक... नहीं शायद को बहलाने, फुसलाने, और सब्ज़ बाग़ दिखाकर भाग जाने वाला तमाशबीन... समझ रहे हो तुम क्या बुनते हो ? ये कभी मिलना होगा तभी समझा सकूँगा... हफ्ते भर में दूसरी बार आना सुखद रहा... अपूर्व की पिछली कमेन्ट याद है... "आपका एक पाठक वर्ग है" उसका ख्याल ऐसे ही रख्खा करें "

सदा said...

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

डॉ .अनुराग said...

जिस समय हमें अपने बिस्तरों में दुबककर प्रेम करना चाहिए था,
हम आपके लिए गीत लिख रहे थे।

हमेशा की तरह .अद्भुत......कल ही तुम्हारी एक पुरानी कविता" कि घर है ".वेब लोग पर दी है ....

गौरव सोलंकी said...

अनुराग जी, weblog पर कविताएँ देखी। अच्छा लगा।
@ सागर, ऐसी प्रतिक्रियाएँ ही प्रेरित करती हैं और भावुक भी।

राहुल पाठक said...

गौरव भाई....कहने को शब्द नही है...हर बार की तरह.. अद्भुत.....
मुझे तुम्हारी स्टायल बहुत ही बढ़िया लगती है.....

"कैसी हवा चलती है माँ,
बार बार लगती है भूख,
तलाशता हूँ जेबें।"

बिल्कुल अलग ही तरह से बात कहते हो.....बेहतरीन प्रस्‍तुति और शुभकामनायें

अपूर्व said...

इस अद्वितीय कविता को पढ़ कर बस खाली जेबें तलाश रहा था कुछ कहने के लिये..मगर जब सागर साहब ने अपने नाम के अनुरूप और सर्वथा कथनीय बात कह दी तो उसके आगे कुछ कहना फ़ीका ही लगेगा..सो उनकी बात और मंशा को हमारे द्वारा भी कॉपी-पेस्ट मान लें..और यह भी
तुम मुझे देखती हो ऐसे
जैसे काँच को देखती हो

ओम आर्य said...

गौरव जी
आपकी रचनाये पढ्कर मै भी अपनी मन की जेबे तलाशने लगता हूँ..........

सागर भाई ने जो कुछ कह दिया है उसके आगे तो सही मे कुछ भी कहना फीका है ..........जैसा कि अपूर्व जी का भी यही कहनाहै , मै भी इसी बात से सहमत हूँ.........!

Ambarish said...

pata nahi kaisi hawa chali aapki rachnaon ki aur main ud gaya unke sath.. ab talaash raha hun khud ko!!!

padmja sharma said...

गौरव ,
कोई तो बात है आपके लेखन में . अलग सा ,नया सा है . युवा हो . डूब जाओगे तो तिर जाओगे .

Anviti said...

Maine aapki kahaniyan Rasrang[Dainik Bhaskar] mein padhi....bahut acchi lagi....wahin se aapke blog ka address bhi mila...shukriya

गौरव सोलंकी said...

आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया। मैं भी अब तक खाली जेबें तलाश रहा हूँ। :)
पद्मजा जी और अन्विति, आप पहली बार आई हैं और वह भी अख़बार के रास्ते। आपका बहुत बहुत स्वागत...

Anonymous said...

gavrav ji
samachar patra ke madhyam se pahli bar blog par .. aapki rachnaye padhi. kamal ka chintan...vo bhi is umra me. ...badhai. kavita ka aseem akash aap jaise rachnakaron ke hstaxro ke liye jagah banaye rakhta hai....shubhkamanayen.....k.joglekar