उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा

यह 'ब्लू फ़िल्म' नामक कहानी का चौथा हिस्सा है। पहले तीन हिस्से ब्लॉग पर बहुत दिन पहले पोस्ट कर चुका हूँ। फिर लगा कि ब्लॉग पर शायद लोग लम्बी कहानियाँ नहीं पढ़ते, इसलिए रुका रहा। पिछले कुछ समय से कई साथियों ने लगातार कहा कि मैं पूरी कहानी ब्लॉग पर डालूँ, इसलिए इस चौथे अंश के साथ कहानी को आगे बढ़ा रहा हूँ। जिन्होंने इंतज़ार किया, उम्मीद करता हूँ कि वे क्षमा करेंगे। हालांकि लम्बी प्रतीक्षाएँ ऐसी पीड़ा देती हैं, जिनके लिए माफ़ी सम्भव नहीं ...फिर भी अंग्रेज़ी में कहूँ तो please bear with me...
भाग 1 जामुनी जादू
भाग 2 पापा जल्दी घर आ जाओ

भाग 3 मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं



घर के बाहर भीड़ लगी थी। तीन लड़के लता का पीछा करते हुए घर तक आए थे। लता ने तेजी से अन्दर घुसकर माँ को बाहर बुला लिया था और बताया था कि कई दिन से ये लड़के ब्यूटीपार्लर से घर तक उसके पीछे आते हैं। माँ उन लड़कों को रोककर गालियाँ देने लगी थी। वे लड़के भी हँस-हँसकर जवाब दे रहे थे। आस पड़ोस के और राह चलते लोग आ जुटे थे। अच्छा खासा तमाशा बन गया था।

पिताजी कुछ देर से बाहर आए। तब तक माँ अकेली बोलती रही। उसने लता को अन्दर भेज दिया। मैं घर में नहीं था। मैं यादव के घर में पड़ा रागिनी को याद कर रहा था। कोई पड़ोसी कुछ बोल नहीं रहा था। माँ चिल्लाती चिल्लाती रोने को हो गई थी। लड़के खड़े बेशर्मी से हँसते रहे थे।

पिताजी चश्मा लगाते हुए बाहर निकले। उन्होंने सफेद कुरता पायजामा पहन रखा था। उनके चेहरे पर कुछ था कि उनका अध्यापक होना पहली नज़र में ही पता चल जाता था। ऐसा लगता था कि उन्हें मारो तो वे सिर्फ़ धमकाएँगे, मार नहीं सकेंगे। उन तीन लड़कों में जो लड़का मुख्य लड़का था, वह गली की एक बूढ़ी औरत को बुला लाया। वह उसके उस दोस्त की माँ थी, जिससे मिलने वे तीनों रोज़ शाम को आते थे। उस बूढ़ी औरत ने चिल्ला चिल्लाकर इस बात को सत्यापित किया। पिताजी चुप रहे। हो सकता है कि पिताजी कुछ बोले भी हों मगर वह किसी को सुना नहीं। भीड़ और बढ़ गई थी जैसे शाहरुख़ ख़ान की कोई फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म होती तो उस दृश्य में मेरे पिताजी को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया जाता। सब मुख्य लड़के की मुस्कुराहट पर तालियाँ बजाते। मैं और लता भी हॉल में बैठकर ऐसी कोई फ़िल्म देख रहे होते तो पिताजी को खलनायक ही समझते। वैसे वे पूरी फ़िल्म के खलनायक या नायक कभी नहीं बन सकते थे क्योंकि वे अध्यापक थे। उनका एक ही सीन होता।

पिताजी ने थोड़ी तेज आवाज़ में उन्हें चले जाने को कहा तो भीड़ को सुना। भीड अब पहले से धीरे फुसफुसाने लगी। यह उन लड़कों को अपमानजनक लगा। मुख्य लड़के ने हँसना बन्द कर दिया। उसके पीछे पीछे बाकी दोनों लड़के भी गंभीर हो गए। सब वहीं खड़े रहे। फिर अचानक मुख्य लड़का तैश में आ गया और उसने पिताजी को गाली दी।

वह एक लम्बी गली थी, जिसमें हमारा घर था। उस गली के दोनों कोनों पर खड़े आदमियों ने वह गाली सुनी। हमारे घर के पचास मीटर के दायरे में ही साठ सत्तर लोग होंगे। घरों में बैठे लोगों और छत से देख रहे लोगों के साथ गाय, भैंसों, कुत्तों, चिड़ियों, कबूतरों, मेंढ़कों और चूहों के कानों को जोड़कर ठीक ठीक हिसाब लगाया जाए तो करीब दो हज़ार कानों ने वह गाली सुनी। मेरी जानकारी में पिताजी को ऊँचा तो नहीं सुनता था, लेकिन और कौनसी वज़ह हो सकती है कि पिताजी ने पूछा, क्या?

यह क्या उन लड़कों को किसी चुटकुले सा लगा और वे हँस दिए। भीड़ चुप, जैसे भीड़ को अजगर सूंघते हों। दो क्षण के लिए भीड़ का सिर झुका और फिर उठ गया। आँखें तीर की तरह हमारी देहरी पर। माँ, जिसे कभी कभी ऊँचा सुनता था, उसने अपनी बाटा की चप्पल उतारी और लड़के के मुँह पर दे मारी। माँ का निशाना इतना अच्छा नहीं था लेकिन लड़का बचने के प्रयास में नीचे झुक गया तो चप्पल सीधे उसकी नाक पर लगी। भीड़ हँसी, भीड़ फुसफुसाई, अजगर सूंघता हुआ लड़कों के पास आ खड़ा हुआ। लड़के स्तब्ध से कुछ क्षण खड़े रहे और फिर चले गए। पिताजी भीड़ के पार से गली के दूसरे मोड़ को देखते रहे। माँ ने नाली के पास पड़ी अपनी चप्पल उठाई और एक चप्पल पैर में पहने, एक हाथ में लिए भीतर चली गई। भीड़ भी छँट गई।

उस रात माँ ने राजमा की सब्जी बनाई। मैं उसी के साथ रोटियाँ खा रहा था, जब माँ ने मुझे शाम की पूरी घटना सुनाई। मुझे लगा कि उस घटना को सुनकर मुझे ज़ोरों से गुस्सा आना चाहिए था, जो नहीं आया। मैंने और दिनों की अपेक्षा आधी रोटी ज़्यादा ही खाई होगी। माँ बीच बीच में रोने लगती थी। मुझे दुख होता था। लता अन्दर बैठी किसी पत्रिका का बुनाई विशेषांक पढ़ रही थी। उस रात पिताजी मुझे नहीं दिखे, हालांकि वे घर में ही थे।

शाम को मैं यादव के घर में पड़ा रहा था। मैं रागिनी के गीत गाता रहा था और वह उकताकर अपना ब्लू फ़िल्मों का कलेक्शन उठा लाया था। उसके पिता का ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस था। उनके घर वी.सी.आर. था।

- इसके कितने सही हैं ना यार! बस ऐसे मिल जाएँ एक बार...

- फिर क्या करेगा?

- फिर तो वही बताएगी कि क्या किया?

उसने ऐसा चेहरा बनाया कि उसके दिमाग में बना चित्र मुझे साफ साफ दिख गया। मुझे हँसी आ गई। मैं उठकर बैठ गया और यादव की तरह टकटकी बाँधकर टीवी देखने लगा।

वह ख़ुशी नहीं थी, जो हमें उन फ़िल्मों को देखकर मिलती थी। या तो वह उम्र ऐसी थी या वह समय, या वह शहर, कि हमारा रोने का मन करता था तो भी हम ब्लू फ़िल्में देखते थे, गुस्सा आता था तो भी, प्यार के बिना जीना असंभव लगने लगता, तो भी...

हमारी आँखों की कोरों में इतनी बेचैनी भरी पड़ी थी कि उन दिनों वे फ़िल्में न होती तो हम आत्महत्या कर लेते। उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा। वे फ़िल्में हमारी भगवान थीं।






आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)

7 पाठकों का कहना है :

डॉ .अनुराग said...

अलबत्ता संभवत नया ज्ञानोदय में इसे पढ़ चूका हूं .......पर टिपण्णी सिर्फ इसलिए कर रहा हूं के कभी कभी लेख महत्वपूर्ण होता है ..लेख की लम्बाई नहीं ....इसलिए आगे भी निसंकोच लम्बे लेख डालना
.

अपूर्व said...

गौरव साहब, आपके कई गद्यखण्ड पढ़े हैं आपके ब्लॉग पर..बल्कि आपका पूरा ब्लॉग ही पढ़ा है..आलमोस्ट!!..हाँ मगर यहाँ पर जिस तरीके से एक दृश्य मे उतरते हुए इतने सूक्ष्म और सजीव डिटेल्स दिये हैं आपने..वो आपकी रचनाओं मे पहले कम देखा है..यह दृश्य को सम्पूर्णता तो देता है..मगर कहीं पर उसकी इन्टेन्सिटी को प्रभावित करता है..मगर यह बस मेरी व्यक्तिगत फ़ीलिंग की प्रॉब्लम है शायद..
..और यहाँ पर एक कच्ची उम्र की असहायता की बेचैनी को उन विदेशी फ़िल्मों के नीलेपन मे डुबो देने का प्रतीक बड़ा सटीक और विचारणीय बन पड़ा है..मगर इस उम्र का यह इस्केपिज़्म (यही ना?) उस वक्त की मोनोटोनी की उपज है या परिस्थितियों की बिटरनेस का प्रारब्ध..विमर्श का विषय है..
और हाँ कृपया ब्लॉगजगत के बारे मे एजम्प्शन्स न बनाये..आप का भी एक समर्पित पाठक-वर्ग है..जो पोस्ट के लम्बे पन की परवाह नही करता..और एक कहानी को किश्तों मे पढ़ना..एक लम्बे अंतराल तक..एक यातनाप्रद प्रक्रिया है..आप जानते होंगे न :-)

राहुल पाठक said...

गौरव भाई मैने तुम्हारी रचनाओ को १ नही कई कई बार पड़ा है....और इस कहानी की कब से प्रतीक्षा कर रा था.
बहुत ही अद्भुत लेखन है....बधाई....

अतुल चौरसिया said...

वीसीआर-युग की एक पूरी पीढ़ी की मनोदशा का चित्रण. चोरी-छिपे नीली-हरी, ईस्टमैन फिल्मों की आस से उपजे लेख शानदार हैं.

राहुल पाठक said...

The great story….gourav bhai adbhut…maja aa gya……….bahut hi bark se bari chize likhte ho

Kahani kaie kahi jati hai tumse sikhna chahiye……….is sadi ke sarvshreshth kathakar….



Bhagvan tumhe saflta(sohrat aur paisa) de……..best wishes from my heart

गौरव सोलंकी said...

आप सबका बहुत धन्यवाद। अनुराग जी, यह 'तद्भव' में छपी थी। आपने इसे शायद वहाँ पढ़ा होगा। आप सब भरोसा दिला रहे हैं तो शायद अब लम्बे लेख डालते हुए कम हिचकूँगा।

Unknown said...

गौरव, आज भास्कर में अवसाद में डूबे आत्मकथ्य कहानी की शैली से मुग्ध होकर अपने आप को इस ब्लाग पर आने से नहीं रोक सका ।
शेष मेरा सामान को पूरा पढने के पश्चात........