एक लम्बी नदी के आख़िरी बेसुध किनारे पर हम तीन लोग हैं- बेचैन, भावुक और पराजित।
”हमें उन लड़कियों के लिए अपने आप को बर्बाद नहीं करना चाहिए था यार” - वह इस तरह मुझसे कहता है, जैसे अपने आप से कह रहा हो – “हमारे पास और भी ज़रूरी काम थे। हमें दुनिया बदलनी थी। ढेर सारी किताबें लिखनी थी, जिन्हें लोग अपनी नौकरियाँ छोड़ छोड़कर पढ़ते। ढेर सारी फ़िल्में बनानी थीं, जिन्हें देखने के बाद लोग अपनी छुट्टियों के एकांत में घंटों उदास रहते। कितना अच्छा होता कि हम उन्हें भोगते और भूल जाते और फिर दूसरी लड़कियाँ होती, जो कम हँसती।
नदी के इस किनारे पर, जहाँ से शहर नर्क जैसा दिखता है, हम तीन अकेले हैं। हम उस चक्रवात के इंतज़ार में हैं जो समुद्रों से होकर रेगिस्तान तक पहुँचेगा और सब कुछ डूब जाएगा, जैसे सिन्धु घाटी सभ्यता डूबी थी। कितना अच्छा रहे कि हमारा भी कोई अवशेष न बचे। हमारे देवता हमारे घमंडी शहरों के साथ चूर-चूर होकर बिखर जाएँ।
- हमने कितना बड़ा जीवन उस शहर में जिया है और अब हमें कुछ भी याद नहीं। याद है तो बस रफ़्तार, शोर और अलार्म घड़ियाँ।
- और लड़कियाँ..
- वे सब मज़बूर थीं। उन्हें माफ़ कर दो।
- मैं क्यों आज तक मज़बूर नहीं हो पाया? जब मेरी दोनों टाँगें कटकर मेरे शरीर से अलग हो गई थी, मैं तब भी मज़बूर नहीं था...और वे सब तब मज़बूर थीं, जब हँसती थी, नाचती थी और गोलगप्पे खाती थीं।
उसके पैर नहीं हैं मगर उसे विश्वास है कि वह हम तीनों में सबसे तेज दौड़ेगा। इसमें हमें भी कोई सन्देह नहीं है। मैं चुप हूँ क्योंकि मैं चिल्लाना चाहता हूँ। फिर वे दोनों रितेश देशमुख के किसी डायलॉग को याद कर देर तक हँसते हैं। हम सोचते हैं कि क्षितिज में सूरज डूबेगा तो सुबह होगी, जिसमें हम ज़मीन के नीचे की सड़कों पर से होते हुए भाग जाएँगे। वे मुस्कुराकर उठ खड़े होते हैं और नदी की ओर चले जाते हैं।
हम इंतज़ार करेंगे क्योंकि हमने जन्म लिया है और हम नास्तिक हैं। एक दिन हम हर उस दरवाज़े पर जाएँगे और उसे खरीद लेंगे, जहाँ से हमें धक्के मारकर बाहर निकाला गया है। हम अपने क्रोध पर गर्व करेंगे और सब कुछ याद रखेंगे। नदी के उसी तीसरे किनारे पर, जहाँ से अब भी वे दोनों जाते हुए दिखते हैं, मैं किसी नाव में बैठकर जाऊँगा और तीसरी कक्षा के बच्चे के से भोलेपन से उन्हें चिल्लाकर बताऊँगा कि वे लड़कियाँ, जो बहुत हँसती थीं, अचानक बहुत बूढ़ी हो गई हैं और वातानुकूलित घरों में, जहाँ सुविधाओं के सिवा बाकी सब कुछ जेल जैसा है, दिन भर बैठकर दीवारों में अपना अन्धा भविष्य पढ़ती हैं। मैं तब भी नहीं चाहूँगा कि वे उन्हें माफ़ करें।
आईसीआईसीआई की एक उदास लड़की मुझे फ़ोन करती है और बीमा करवाने का आग्रह करती है। उसे मार्च तक लक्ष्य पूरा करना है, नहीं तो उसकी नौकरी छूट जाएगी। वह उन लड़कियों की तरह घर में नहीं बैठना चाहती। मेरे पास बीमा करवाने के पैसे नहीं हैं। फ़ोन के लम्बे आशा भरे सन्नाटे के बीच हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में देर तक अकेले हैं। फिर वह रो पड़ती है।
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8 पाठकों का कहना है :
आत्मकत्थ्य मे रफ्तार है और विविधता के तो क्या कहने. बहुत सुन्दर
वे सब मज़बूर थीं। उन्हें माफ़ कर दो।
- मैं क्यों आज तक मज़बूर नहीं हो पाया? जब मेरी दोनों टाँगें कटकर मेरे शरीर से अलग हो गई थी, मैं तब भी मज़बूर नहीं था...और वे सब तब मज़बूर थीं, जब हँसती थी, नाचती थी और गोलगप्पे खाती थीं।
सही तो है, कोई कैसे मजबूर हो सकता है जबकि उसे हंसते, नाचते और गोलगप्पे खाते देखा गया हो। लेकिन इसी बात का विरोध करते हुए कोई ये भी तो कह सकता है-ओह मुझे इतना ही तो समझा गया बस, वो नज़र कहां मिली तुम्हें जो हंसने,गाने और गोलगप्पे खाने के परे देख पाती::
-वैसे बढि़या चल रहा है सब।
नोट-भाई तुम से मतलब तुम नहीं है।
आईसीआईसीआई की एक उदास लड़की मुझे फ़ोन करती है और बीमा करवाने का आग्रह करती है। उसे मार्च तक लक्ष्य पूरा करना है, नहीं तो उसकी नौकरी छूट जाएगी। वह उन लड़कियों की तरह घर में नहीं बैठना चाहती। मेरे पास बीमा करवाने के पैसे नहीं हैं। फ़ोन के लम्बे आशा भरे सन्नाटे के बीच हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में देर तक अकेले हैं। फिर वह रो पड़ती है।
achanak se chaunka sa diya aapne ant mein.. puri post ka matlab hi chnage ho gaya.. yun dekhein to har incident mein kuch na kuch seekhne ko chupa hi hota hai, par aapne ise behtar tarike se pesh karna ek kala hai, jo aapki last dono posts mein bahut jyada dikhi hai...
मैं क्यों आज तक मज़बूर नहीं हो पाया? जब मेरी दोनों टाँगें कटकर मेरे शरीर से अलग हो गई थी, मैं तब भी मज़बूर नहीं था...और वे सब तब मज़बूर थीं, जब हँसती थी, नाचती थी और गोलगप्पे खाती थीं।..............kyaa kahe shabd nahi mil rahe .........
"फ़ोन के लम्बे आशा भरे सन्नाटे के बीच हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में देर तक अकेले हैं। फिर वह रो पड़ती है।"......yah aap hi likh sakate ho...........
विडंबना... यही पहला शब्द आया जेहन में...
प्यार तो उसे भी था ना... पहल उसने क्यों नहीं की समाज में... क्या लिखा-पढ़ी है की पहल मैं ही करूँ... झूठ बोलूं तो धरती फट जाये... शादी के चार साल बाद भी क्या नहीं कपडे पसारने के बहाने कोई आशा नहीं नहीं है क्या ?
फिर साहिर की "तसव्वुरात में ... उभरती हैं"
यह अवसाद हमेशा अच्छे लगते रहेंगे.
bahut badiya......
अवसाद के .... असल जीवन में कई नाम है ....रोज इन्हें कई जगह चलते फिरते देखता हूं ... कभी कभी लिपस्टिक लगे होठ ...कभी झूठी हंसी
मुझे नफ़रत है दो मुहि विचारधारा से.... शायदा
जी चाहती हैं की औरतों को जितनी सत्वानाएं समझदार समाज से उनकी औकात से ज्यादा मिली है.. वो बरक़रार रहे, उनके हर जगह सुविधा के खिलाफ शब्द उन्हें कहाँ सुनना... दसियों हज़रियों या लाखों बार होते रहे बदनाम पुरुष, कभी कह दें अपने सवाल जिन्हें उन्होंने लाखो बार अपने आप से पूछा और झिजकते हुए आखिर सबके सामने रख ही दिया.. सहमती नारी से मुमकिन नहीं...चाहतीं हैं उन्हें ही जगत जननी कहो, कहो धरती का हर्ष.. फूल कहो, सात्वना की भूकी उनकी नज़रों को अटेंशन कोई कम करने की कोशिश करे तो इन्हें दिक्कत हो जाती है.. क्यों नहीं ये दिल जो मांगे मोर...
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