मैं बता नहीं सकती कि अकेले रहना कैसा होता है। उस जितना तकलीफ़देह कुछ भी नहीं। प्रियजनों के मर जाने के बाद का दुख तो तो लगातार उठती उस टीस के सामने कहीं ठहरता ही नहीं। मुझे हफ़्ते में लगातार तीन दिन बिल्कुल अकेले रहना होता है। न कोई आता है, न कोई जाता है। कई बार मैं बेवज़ह ही भय या पीड़ा से काँपने लगती हूँ या चिल्ला चिल्लाकर शर्मनाक गालियाँ देने लगती हूँ। मुझे लगता है कि मैं पागल हो जाऊँगी। उन दिनों में कभी कूरियर या केबल वाला भी नहीं आता। मुझे महसूस होता है कि मैं अस्पताल में पड़ी हूँ। फिर वे जब चौथे दिन आते हैं तो इतने प्यार से बातें करते हैं, जैसे अब तक भी सब कुछ अच्छा ही चल रहा था। वे जानते तक नहीं कि मैं हर बार मृत्यु से गुज़रने के बाद उनसे मिलती हूँ। उन्हें लगता है कि टीवी देखते हुए या सोते हुए बहुत आसानी से अकेले दिन बिताए जा सकते हैं। कई बार वे कहते भी हैं कि उन्हें मेरी ज़िन्दगी से ईर्ष्या होती है। उन्हें छुट्टियों से बहुत प्रेम है और उन्हें महीनों तक एक भी छुट्टी नहीं मिल पाती। इतवार को भी दिन का खाना वे बाहर ही खाते हैं। वे मुझे जब बाहर के बारे में बताते हैं तो मुझे हमेशा लगता है कि इन दिनों सब कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है। वह बाहर मुझे लन्दन जितना पराया और सुन्दर लगता है। वे एक नौकरी करते हैं। ऐसी, जैसी करने की योग्यता और इच्छा मुझमें नहीं है। सोचने के अलावा मैं कोई भी काम सलीके से नहीं कर पाती और यह एक तरह की विकलांगता ही है, जो मेरी आँखों की लाइलाज़ बीमारी की तरह मुझसे चिपक गई है। यह एक तरह का कोढ़ है और मैं समझ नहीं पा रही कि मैं जब भी अपने बारे में बात करती हूँ तो मुझे बीमारियाँ ही क्यों याद आती हैं? इससे पहले मैं एक आशावादी स्त्री रही हूँ। मुझे वे दिन याद आते हैं, जब मैं कॉलेज जाती थी। मैं उस तरह का जीवन जी रही हूँ, जिससे अपने कॉलेज के दिनों में मैं सबसे ज़्यादा घृणा करती थी। ऐसा भी नहीं कि मुझ पर अब कोई बन्दिश हो। लेकिन मैं बाकी औरतों की तरह बिना किसी काम के बाज़ार में नहीं घूम सकती। मैं अब टीवी पर दुनिया बदलते हुए देखती हूँ। शहर में ज़्यादा बरसात से जब सड़कों और गलियों में पानी भर जाता है, तब उसे मैं अख़बार में तस्वीरें देखकर महसूस करती हूँ। उन दिनों ट्रैफ़िक में फँसकर वे देर से घर लौटते हैं। मैं उनसे कहना चाहती हूँ कि मेरा सपना है कि किसी दिन घंटों तक मैं जाम में फँसी रहूँ, आधी रात तक...और जब मैं घर लौटूँ, तब बिल्डिंग के सब लोग सो चुके हों, सबके घर की बत्तियाँ इस तरह बुझी हों जैसे बिजली चली गई है। मैं चाहती हूँ कि किसी दिन मैं पसीने से भीगे कपड़ों में घर आऊँ और मेरे सने हुए सैंडल देखकर कोई मुझसे कहे कि मैं अन्दर घुसने से पहले पैर धो लूँ। इस तरह साफ-सुथरी-सुन्दर घर में बैठे बैठे मैं एक दिन अचानक मर जाऊँगी।
वे जब लौटते हैं तो मैं उनसे बहुत सारा प्यार करना चाहती हूँ। चाहती हूँ कि उनकी गर्दन से झूल जाऊँ, उनके गालों को बेतहाशा चूमती रहूँ, लेकिन अकेलेपन में मैं कई दिनों तक ऐसे अवसाद से गुज़रती हूँ कि जब वे लौटते हैं तो मुझे उनसे नफ़रत हो चुकी होती है। यह उस मौत को देखने के बाद पैदा हुई नफ़रत है जो बेहद क़रीबी लोगों से ही हो सकती है और जो कभी ख़त्म नहीं होती। मैं बार बार उन्हें याद करती हूँ, रोती भी हूँ, लेकिन अब मैं उनसे प्यार नहीं करती। हाँ, यह सही है। अभी, जब मैं यह बता रही हूँ, तभी मैंने यह जाना है। जो आपको उस एकांत में छोड़ जाते हैं और बहत्तर घंटों तक सिर्फ़ एसएमएस या फ़ोन से ही आपकी सुध लेते हैं, उनसे आप चाहकर भी प्रेम नहीं कर सकते। उन तीन दिनों में आपको किसी नई चीज की भूख लगती है, आप बीमार होते हैं, आप उदास, बेचैन और पागल होते हैं और उन्हें फ़ोन करते हैं तो वे बहुत चिंता जताते हुए, प्यार की तुतलाई ज़ुबान में आपको अपना ख़याल रखने के लिए कहते हैं। वे कहते हैं कि वे हर क्षण आपके पास हैं और वे आपसे बहुत प्यार करते हैं। मगर यदि सच में ऐसा है तो ऐसी कौनसी ज़रूरी चीजें हैं, जिनमें वे लगातार फँसे रहते हैं? ऐसी कौनसी नौकरियाँ हैं, जिन्होंने उनकी अनिच्छा के बावज़ूद उन्हें इतना बाँध रखा है?
अपने दफ़्तर में वे और लोगों के साथ हँसते बतियाते हैं, खाते हैं, गाड़ी में किसी दूसरे शहर जाते हैं और रस्ते में अंताक्षरी भी खेलते हैं। जिन चार दिनों में वे शहर में होते हैं, तब भी वे सुबह का नाश्ता दफ़्तर में ही करते हैं। यानी हफ़्ते में वे चार दिन, रात का खाना घर में खाते हैं। यानी यदि मैं मानूँ कि हम हफ़्ते में इक्कीस वक़्त खाते हैं तो साथ में सिर्फ़ चार वक़्त खाते हैं। महीने में चार हफ़्ते मानो तो महीने में सोलह टाइम का खाना हम साथ खाते हैं।पाँच दिन के बराबर। साल में दो महीने के बराबर। यानी इन विषम परिस्थितियों में भी हम किसी तरह पूरा जीवन साथ बिताते हैं और मैं मानूँ कि मैं पचास साल और जियूँगी तो हम सौ महीने ही साथ खाना खाएँगे। मतलब सिर्फ़ आठ साल। क्या आप महसूस कर पा रहे हैं कि ‘पचास में से आठ साल ही हम साथ रहेंगे’, यह सोचकर मुझे कैसा लगता होगा?
अकेली रातों में मैं अक्सर भूखी ही सो जाती हूँ। एक अपशकुनी सी भूख मेरे चारों तरफ फैली हुई है और खाने की हर चीज देखकर मेरा जी घबराने लगता है। मैं असहनीय रूप से अकेली हूँ और मैं बहुत दिल से चाहती हूँ कि मेरी इन रातों के वीडियो बना लिए जाएँ और मौका मिले तो आप कभी इस उदास कमरे में मेरा काँपना, फ़र्श पर लेट जाना, दीवारें खरोंचना, किताबें फाड़ना, अपने हाथ की उंगलियाँ मरोड़ना, सिर पीटना, चिल्लाना और माँ को याद कर कर के कराहना देख सकें।
हमारे बीच में यदि कभी कोई प्रेम था तो मैं उसका पैसिव पक्ष हूँ। मैंने निश्चित तौर पर जान लिया है कि अभी या कुछ समय बाद की किसी रात में मैं आत्महत्या ही करूँगी। वे मेरी व्यग्रता से नाराज़ होकर कभी कभी घंटों तक मेरा फ़ोन ही नहीं उठाते। मैं नहीं चाहती कि मैं उनसे बात किए बिना ही मर जाऊँ। ऐसे में किसी रात मैं आपको फ़ोन करूँ और उनसे बात करवा देने का आग्रह करूँ तो क्या आप अपनी नींद और सुख में से एक कॉंन्फ्रेंस कॉल के लिए चन्द मिनट निकाल पाएँगे?