वे सब सवार होकर आते हैं
चमचमाती गाड़ियों पर,
हमारे सब दर्द और सुख,
वैभव और नंगापन,
हमारे दिमाग की गांठें,
ह्रदय के थक्के,
बांहों की शिथिलता,
उदास बचपन, ऊंची बांहों का लड़कपन,
माथे पर पसीना, धूप,
बैंगनी बालियाँ तुम्हारी
और प्रतीक्षा,
जिसका मैं सजायाफ्ता हूँ
और तुम लौटती हो हर शाम बस से।
कहाँ जाती हो और क्यों?
और क्या चाहिए तुम्हें?
सब कुछ छीने जाने के बाद की बेबस तड़प के अलावा
और क्या ही दे सकता है तुम्हें यह खुर्राट विश्व,
जब मैं हूँ तुम्हारे पास,
अपने दुःख को बोरी में लपेटकर
उस पर बैठा हुआ,
उसे खाता हुआ चप चप।
यह थकानों का शहर है
जिसके हर बच्चे को जीनी है
अपने अपने हिस्से की थकान।
हमें मैकडॉनाल्डों में बैठकर स्थगित करनी हैं
अपनी अपनी आत्महत्याएं।
जब हम टूटते हैं
और अन्दर एक वहशी अँधेरे की भूख के शिकार बन
काले होते जाते हैं,
तब हमें चित्रकथाएं लिखनी हैं
और गाने हैं हिन्दी फिल्मों के घटिया गाने।
वेक अप सिड!
यह उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं का समय है
जहां पहाड़ पर पहुँचने के लिए
तुम्हें लम्बे, भव्य, अंग्रेजी ढंग के गलियारों में
दाबने हैं कामुक बुजुर्गों के पैर,
जब तुम्हारी जीभ को
तीली दी जा रही हो तो
तुम्हें 'आ आ' कहते हुए
मुंह खोले रखना है।
यह शल्य चिकित्सकों का शहर भी है,
वे फाड़ते हैं तुम्हें
वज्जनबाई की ठुमरियां सुनते हुए
और जब तुम आतंकित हो,
हतप्रभ और क्रोधित
जैसे कॉलेज की रैगिंग में नंगे हो रहे हो
और यह हंसने की बात है,
हा हा हा हा!
नीचे घास है,
जिसे कुचलते हुए टूट टूट जाते हैं पैर
और तुम कहती हो
चार बूँद या टपाटप, मूसलाधार भी हो बारिश
तो नहाने, नाचने लगूँ।
माँ के हाथ का चूरमा
पेट में उतरता चला जाता है
आत्मा को छीलता हुआ।
बहुत दूर तक घेरकर मारते हैं
पुराने सुख।
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8 पाठकों का कहना है :
बहुत दूर तक घेरकर मारते हैं पुराने सुख
..किसे?..हम खुद अपने आप को उन सुखों की पैनी दाढ़ों के हवाले कर देते हैं जिस पल हम स्वीकार करते हैं उनको..
काली मिर्च सी तीखी रचना..बधाई!
tumhari ye baatein ek din mere andar ekdum pet mein sama jayengi....bilkul andar tak...goli ki tarah
बढ़िया लगा मां का चूरमा....
यह थकानों का शहर है
जिसके हर बच्चे को जीनी है
अपने अपने हिस्से की थकान।
हमें मैकडॉनाल्डों में बैठकर स्थगित करनी हैं
अपनी अपनी आत्महत्याएं।
जब हम टूटते हैं
तब हमें चित्रकथाएं लिखनी हैं
और गाने हैं हिन्दी फिल्मों के घटिया गाने।
वाह यार क्या बात है, मुंह की बात छीन लिया आपने.... दर्द का यह रूप बहुत पसंद आया... अब ऐसे ही दर्दों का ज़माना है... वैश्विक जैसा...
कहाँ से लाते हो ये कल्पना ......
अपने दुःख को बोरी में लपेटकर
उस पर बैठा हुआ,
उसे खाता हुआ चप चप।
ओर ये शब्द .......
हमें मैकडॉनाल्डों में बैठकर स्थगित करनी हैं
अपनी अपनी आत्महत्याएं।
ओर ये शायद सबसे बेहतर है .....
यह शल्य चिकित्सकों का शहर भी है,
वे फाड़ते हैं तुम्हें
वज्जनबाई की ठुमरियां सुनते हुए
शायद आज दिन भर के ब्लोगों की शायद सबसे सर्वश्रेष्ट रचना .....
सुन्दर है ... भावपूर्ण रचना... चूरमा तुम्हे याद है अच्छी बात है ... शुभाशीर्वाद
हमें मैकडॉनाल्डों में बैठकर स्थगित करनी हैं
अपनी अपनी आत्महत्याएं।
जहां पहाड़ पर पहुँचने के लिए
तुम्हें लम्बे, भव्य, अंग्रेजी ढंग के गलियारों में
दाबने हैं कामुक बुजुर्गों के पैर,
बढ़िया लगा.
बहुत दिनों बाद मिले हो--
हिन्दयुग्म से लगभग गायब ही हो गये हो--
तुम्हारी कविताएँ इस देश की युवा पीढ़ी के भीतर जल रही आग का सफल चित्रण करती हैं।
मैं मंत्रमुग्ध सा इन्हे पढ़ना पंसद करता हूँ।
तुम्हारा प्रंशसक
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