अपने दुखों की छाया में बैठकर
हम चरखा कातेंगे गांधीजी!
क्या आप देखते हैं?
उन्हें पहनकर खुश होंगे हमारे नंगे बच्चे
और मान लेंगे कि
वे और बच्चों की तरह
भव्यताओं की संतानें हैं,
हमारी असमर्थताओं की नहीं।
वे अंग्रेज़ी पढ़ेंगे और चहकेंगे।
नहीं पढ़ेंगे हमारी कवितायें।
पढ़ लेंगे तो मर नहीं जायेंगे क्या?
वे बच्चे हैं
और उन्हें ख़ुश रहना चाहिए।
छतों से कूदकर नहीं आती मृत्यु।
वह जीवनदायिनी स्त्रियों की आँखों में छिपकर बैठी होती है कहीं।
तुम्हारे हर झूठ से
मेरा एक हिस्सा अपाहिज हो जाता है।
तुमसे मोहब्बत
अधरंग से होते हुए
मेरी मौत पर ख़त्म होगी।
कहाँ हो हे ईश्वर?
क्या बीच का कोई रास्ता नहीं खोजा जा सकता
जिस पर हम एक दूसरे के रास्ते ना काटें
और रोटी खाएं, पानी पियें, रो लें और
सो जाएँ ठीक से हर रात।
मैं तुम्हारे गले लगूँ
और मर जाऊँ।
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छतों से कूदकर नहीं आती मृत्यु |
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बहुत दूर तक घेरकर मारते हैं पुराने सुख |
वे सब सवार होकर आते हैं
चमचमाती गाड़ियों पर,
हमारे सब दर्द और सुख,
वैभव और नंगापन,
हमारे दिमाग की गांठें,
ह्रदय के थक्के,
बांहों की शिथिलता,
उदास बचपन, ऊंची बांहों का लड़कपन,
माथे पर पसीना, धूप,
बैंगनी बालियाँ तुम्हारी
और प्रतीक्षा,
जिसका मैं सजायाफ्ता हूँ
और तुम लौटती हो हर शाम बस से।
कहाँ जाती हो और क्यों?
और क्या चाहिए तुम्हें?
सब कुछ छीने जाने के बाद की बेबस तड़प के अलावा
और क्या ही दे सकता है तुम्हें यह खुर्राट विश्व,
जब मैं हूँ तुम्हारे पास,
अपने दुःख को बोरी में लपेटकर
उस पर बैठा हुआ,
उसे खाता हुआ चप चप।
यह थकानों का शहर है
जिसके हर बच्चे को जीनी है
अपने अपने हिस्से की थकान।
हमें मैकडॉनाल्डों में बैठकर स्थगित करनी हैं
अपनी अपनी आत्महत्याएं।
जब हम टूटते हैं
और अन्दर एक वहशी अँधेरे की भूख के शिकार बन
काले होते जाते हैं,
तब हमें चित्रकथाएं लिखनी हैं
और गाने हैं हिन्दी फिल्मों के घटिया गाने।
वेक अप सिड!
यह उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं का समय है
जहां पहाड़ पर पहुँचने के लिए
तुम्हें लम्बे, भव्य, अंग्रेजी ढंग के गलियारों में
दाबने हैं कामुक बुजुर्गों के पैर,
जब तुम्हारी जीभ को
तीली दी जा रही हो तो
तुम्हें 'आ आ' कहते हुए
मुंह खोले रखना है।
यह शल्य चिकित्सकों का शहर भी है,
वे फाड़ते हैं तुम्हें
वज्जनबाई की ठुमरियां सुनते हुए
और जब तुम आतंकित हो,
हतप्रभ और क्रोधित
जैसे कॉलेज की रैगिंग में नंगे हो रहे हो
और यह हंसने की बात है,
हा हा हा हा!
नीचे घास है,
जिसे कुचलते हुए टूट टूट जाते हैं पैर
और तुम कहती हो
चार बूँद या टपाटप, मूसलाधार भी हो बारिश
तो नहाने, नाचने लगूँ।
माँ के हाथ का चूरमा
पेट में उतरता चला जाता है
आत्मा को छीलता हुआ।
बहुत दूर तक घेरकर मारते हैं
पुराने सुख।