सृष्टि के सबसे मासूम कुत्ते
हमने गालियों में नष्ट कर दिए,
सबसे सुन्दर लड़कियाँ
फ़ेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों और प्रेम में,
सबसे ऊँचे पहाड़ों पर हमने बनाए मन्दिर
और इस तरह उन्हें
अपने बराबर ले आए,
सबसे गहरे कुँओं की गहराई को नष्ट किया
प्यास, रस्सी और बाल्टी ने।
सबसे भीषण दुख को
हम कविताएँ लिखकर भी न मिटा पाए।
उसे जलाने के लिए
नहीं थी हमारे पास पर्याप्त आग,
उसे दबा आने के लिए नहीं थी
कोई ज़मीन।
हमने पेड़ बोए,
चुम्बन लिए,
रात जागी
और फिर हुआ यूँ कि
एक चौकोर कमरे में हमने अकेले पाया
कि दरवाज़ा नहीं है।
कोई जाता था फल बेचता हुआ
और मैंने
तौलिए से पोंछ डाली भूख।
रात में जगा तो लगा
कि रो रहा था।
सपना था।
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12 पाठकों का कहना है :
हमेशा की तरह सशक्त रचना।
कोई जाता था फल बेचता हुआ
और मैंने
तौलिए से पोंछ डाली भूख।
कितना सशक्त सोच. कितनी गहराई. आपका फोटो देखकर तो नही लगता कि इतनी परिपक्वता है.
बहुत खूब
हमारा नाम अपने फेनों में लिख लीजिये जी.....
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
जादू है भई! पहली बार आया हूँ यहाँ (मिहिर के रस्ते) और पहली ही कविता पढी. ("यहाँ वहाँ कहाँ" पढ चुका हूँ पहले वैसे...उसमें छुपा पगलपन भी अच्छा लगा था).
"सृष्टि के सबसे मासूम कुत्ते
हमने गालियों में नष्ट कर दिए"
सिनेमा, फितरत, और चमत्कार को एक ही लिखित लाइन में डाल देना इतना आसान हो सकता है, ये सोचना ही मुश्किल है.
"सबसे गहरे कुँओं की गहराई को नष्ट किया
प्यास, रस्सी और बाल्टी ने।"
और इस लाइन को जितनी बार पढूँगा उतना खुश हूँगा. हालांकि इसके बाद कविता (मेरे हिसाब से) आगे नहीं बढती ज़्यादा...या मुझे नहीं ले गई. कहीं ऐसा लगा कि final pay-off, सपना था, सिर्फ एक literal explanation रह गया....कुछ ऐसा जो मेरे लिए उस मुकाम पर मायने भी नहीं रखता.
पर बडी और ज़्यादा ज़रूरी बात यही है कि मुझे तृप्ति मिल गई. उसके लिए शुक्रिया...और पहला सलाम भी!
सदैव की तरह उम््दा। लेकिन राजीव गांधी की तरह पेड़ मत बोइए। या तो पौधे रोपिए या तो पौधे(पेड़ नहीं) लगाइए।
आपकी एक अन््य कविता में 'मासूम लड़की से सम््भोग' वाली बात समझ में नहीं आई, समझ में भी आई तो उचित नहीं जान पड़ी। कोई जरूरत नहीं थी। वैसे माफ करेंगे, कविता कई बार उचितानुचित का ध््यान नहीं करती।
मेरा भी पहला सलाम कुबूल करो वरुण। मैंने भी मिहिर के रस्ते पीयूष मिश्रा वाला इंटरव्यू देखा था और मुझे लगा था कि हमारी बात होगी। यही मिहिर और मुझे, बात होने से पहले एक दूसरे के लिए लगता था।
मेरे साथ भी होता है कि किसी ज़गह बीच में खो जाऊँ, तो आगे की चीजें मायने नहीं रखती और रखें, तब भी फ़र्क नहीं पड़ता फिर। तुम्हें तृप्ति मिली तो बहुत है। और क्या चाहिए! :)
वेद, 'मासूम लड़की से सम्भोग' वाली बात मेरे लिए पिछले कुछ समय में लिखी बहुत ज़रूरी बातों में से एक थी। उसके दो अर्थ हैं मेरे लिए...और दोनों महत्त्वपूर्ण हैं।
सुन्दर अभिव्यक्ति है पर ......सपने पर आकर सबकुछ ख़त्म .....,सपना तो तब सपना है जब उसे देखने के
बाद जागें तो जागती आँखों में भी एक सपना हो .
vaah bahut achcha likha hai tumne
kafi time baad..
जब भी आपकी रचनाएँ पढ़ती हूँ अचम्भित होती हूँ ...
गौरव, ये सृष्टी के सबसे भीषण दुःख ही तो है जो हमारी संवेदनाओं को छू कर हमें मानवीय बनाते हैं. ये दुःख चाहे व्यक्तिगत हो या सार्वजनिक, इन दुखो को दूर करने के प्रयास और उनमे सफलता का सुख तथा असफलता की कसक ही तो हमें इंसान बनाये रखती है. वरना अभी की दुनिया में हैवान बनने में देर कितनी लगती है? मर्मस्पर्शी कविता!
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