शहर के जिस हिस्से में मैं अमर हुआ

यूँ हुआ कि आख़िरी बार आसमान
छत हो गया।
मैं जिस जहाज के नीचे दबने से मरा
वह एक बच्चे ने
रो रोकर अपने जन्मदिन पर खरीदवाया था।
जिस लाल रंग की तितली ने
मुझे फूल कहा
वह गले तक ख़ून में डूबकर आई थी,
सुबह बारिश थी और इन्द्रधनुष थे
और मैंने एक कौवे को
मेंढ़क की आँखें निकालकर चबाते हुए देखा।

मैंने चाहा कि मैं सुन्दर लगूं
और धूप में जलते हुए मैं छिला, गोरा हुआ
वे सब रास्ते,
जो स्वर्ग को जाते थे
उन पर लिखा था 'डाइवरजन अहेड'
पहली बार मैंने जब कहा प्रेम
तो मितली सी आ गई, मैंने खाई गोलियाँ
बहुत उत्साह के दिनों में
बहुत भूखा रहा मेरा एक दोस्त और फिर पढ़ाने लगा

शहर के जिस हिस्से में
मैं अमर हुआ
वहाँ बहुत से वादे करने के बाद
मैंने एक प्यारी लड़की से संभोग किया था।



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4 पाठकों का कहना है :

ओम आर्य said...

ITS AMAZING AGAIN >>>

कुश said...

गौरव.. थोडा रेगुलर रहो..
हमेशा की तरह फेंटास्टिक..

राहुल पाठक said...

क्या कहु गौरव भाई अद्भुत लेखन .....मैने कई 100 ब्लॉग पड़े...तुम जैसा कोई नही....

वो कहानी जो तुम लिख रहे थे"जमुनी जादू " का क्या हुआ.....पूरा करो भाई.....इंतजार मे

Nishant said...

ये है कविता.....गौरव सबसे पसंदीदा कविता हुई ये मेरी.....
तुम्हारी कहानी पढ़ी,जो तुमने मेल भेजी थी,मुझे लगता है की तुम्हारी कहानियों को अलग अलग पन्नों में लिखकर अलग रख दिया जाये, फिर भी तुम्हारा भाषाई रंग अलग समझ आता है. नहीं आज के साहित्यिक घोर वातावरण में अनेकों चहरे घूम रहे हैं, और वे इसके साथ खुश हैं, कि वे विभिन्न विधाओं में सक्रिय है. मगर तुम जो कविता और कहानी के बीच तारतम्य बनाते हो वो सक्रियता है, किसी विधा की नहीं साहित्य की उपस्तिथि मनवाने की.तुम्हारी सारी कहानियां मुझे अच्छी लगीं, और ये कविता तो है ही अद्भुत.लिखते रहो..


Nishant kaushik
kaushiknishant2@gmail.com

www.taaham.blogspot.com