अन्धे कुँओं में

यह एक अजीब सा सम्मोहन है
जिसकी तह में निराशा और ग्लानि है
यह जीत के बाद का ठहाका है जो ज़्यादा अय्याश हो गया है
कोई है, जिसने चेतावनियाँ देकर फेर ली हैं हमसे नज़रें
कोई है, जो तमाशा देखने के लिए
हाथों से पलकें खींचकर आँखें खोलकर
देर रात तक बैठा है
कोई है जो सो गया है
जिसे खींच खींचकर चीख चीखकर जगाते हैं हम
और रात बहुत है, अक्सर एक बजा है।

लम्बे रास्तों पर चलते हुए हमें छोटा होते जाना है
काली बिल्लियों सी होनी हैं रातें
और हमें दिमागों से बीमार होना है
खींचने हैं विकृत रेखाचित्र
दीवारें तोड़नी हैं और कहना है कि शोर है, तूफ़ान है।

हम जलते जलते सो जाते हैं।
चलते चलते गिर पड़ते हैं अन्धे कुँओं में धड़ाम।



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8 पाठकों का कहना है :

M Verma said...

दीवारें तोड़नी हैं और कहना है कि शोर है, तूफ़ान है।
bimbo kee apaar sambhavana nazar aati hai.

Prashant said...

ऐसे भी लोग हैं जिनके अक्सर ४ बजते हैं
तुम फिर भी ठीक हो :)

Gyan Darpan said...

बहुत खूब |

Science Bloggers Association said...

छोटी सी कविता में बडी गहरी बात कहदी आपने।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

अनिल कान्त said...

bahut gahri baatein karte ho bhai

sandhyagupta said...

Is arthpurn rachna ke liye badhai.

वेद रत्न शुक्ल said...

हर बार की तरह फिर यही कि उत्तम। ईश्वर आपको स्वस्थ्य और सानन्द रखें।

Shishir Mittal (शिशिर मित्तल) said...

बहुत दिनों बाद इधर आया | इतनी तल्खी! क्यूं इतने खफा हो दुनिया से भाई? इतना उम्दा लिखते हो और ऐसी निराशा... तीव्रता अपनी जगह है, आनंद अपनी जगह...
और वैसे भी तुम कुछ भी लिखो, अच्छा तो लगता ही है. प्रथम पंक्ति के कवि तो तुम हो ही!