शहीद होने की एक ज़रूरी सामाजिक प्रक्रिया में
मैं ग़ैरज़रूरी ढंग से फँस गया हूं
शर्मिन्दा हूं।
बिसलेरी की पुरानी बोतल की तरह,
जिसकी विप्लवी आत्मा को तुमने रैपर की तरह छीला है निरंतर बेवज़ह,
तुम मुझे बार बार खाली करती हो
बूंद बूंद टप टप
और किसी सीले हुए पहाड़ी स्टेशन की टोंटी पर से
फिर भर लेती हो।
या कि तुम्हारे लगातार बेघर होने की प्रक्रिया में
मैं घर हूं
तुम्हारे सरहद होने की प्रक्रिया में पाकिस्तान?
डर और अचरज मुझे
क्रमश: नींद और भूख की तरह होते हैं।
क्या मुझे चौंकते चौंकते
हो जाना है शहर की तरह कुत्ता
और दुम हिलानी है?
हर दुतकारे जाने के बाद करना है
पुचकारे जाने का इंतज़ार
और वे सब लम्बी रातें भुलाकर – सच जब मैं किसी अनजान ट्रेन में चढ़कर हो जाना
चाहता था लापता किसी लम्बी खदान में पत्थर तोड़ने को उम्र भर - कूं कूं करके खाने
हैं ब्रेड और बिस्किट
और तुम्हारी ट्यूबलाइट सी नंगी टाँगों पर टाँगें रखकर
बेताब बिस्तर पर साथ सोना है?
नींद भर अँधेरा है
और है राख में रेत
जिसमें मैं तुमसे कहता हूं कि घर है।
लौटेंगे।
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4 पाठकों का कहना है :
शानदार....अद्भुत लिखा है दोस्त....
दोस्त, तुम्हारी कविता में एक अजब सा आकर्षण है, एक अदभुत पकड है।
इसी तरह लिखते रहोगे, तो दूर तक जाओगे।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आपका बात कहने का अंदाज़ बहुत बेहतरीन होता है
बहुत बहुत बहुत बेहतरीन और अच्छा लिखा है
waakai kya baat kahi!
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