एक निर्दयी निर्लज्ज हँसी तैरती है
ज़मीन से आकाश तक,
शहर में शनिवार है
जिसे मुझ पर ज़ाया नहीं किया जा सकता,
आँखों में लाल मिर्च की झोंक सा दर्द
जागता है रात भर पहरेदार बनकर,
फिर भी रात में फ़्रिज़ खोलो तो
सूरज दिखता है।
मरते मरते भी लगेगा
कि जन्मा हूं अभी
और माँ है सुबह सुबह।
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रात में फ़्रिज |
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कि घर है |
शहीद होने की एक ज़रूरी सामाजिक प्रक्रिया में
मैं ग़ैरज़रूरी ढंग से फँस गया हूं
शर्मिन्दा हूं।
बिसलेरी की पुरानी बोतल की तरह,
जिसकी विप्लवी आत्मा को तुमने रैपर की तरह छीला है निरंतर बेवज़ह,
तुम मुझे बार बार खाली करती हो
बूंद बूंद टप टप
और किसी सीले हुए पहाड़ी स्टेशन की टोंटी पर से
फिर भर लेती हो।
या कि तुम्हारे लगातार बेघर होने की प्रक्रिया में
मैं घर हूं
तुम्हारे सरहद होने की प्रक्रिया में पाकिस्तान?
डर और अचरज मुझे
क्रमश: नींद और भूख की तरह होते हैं।
क्या मुझे चौंकते चौंकते
हो जाना है शहर की तरह कुत्ता
और दुम हिलानी है?
हर दुतकारे जाने के बाद करना है
पुचकारे जाने का इंतज़ार
और वे सब लम्बी रातें भुलाकर – सच जब मैं किसी अनजान ट्रेन में चढ़कर हो जाना
चाहता था लापता किसी लम्बी खदान में पत्थर तोड़ने को उम्र भर - कूं कूं करके खाने
हैं ब्रेड और बिस्किट
और तुम्हारी ट्यूबलाइट सी नंगी टाँगों पर टाँगें रखकर
बेताब बिस्तर पर साथ सोना है?
नींद भर अँधेरा है
और है राख में रेत
जिसमें मैं तुमसे कहता हूं कि घर है।
लौटेंगे।
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मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं |
आप कहानी में ज़रा देर से दाख़िल हुए हैं। न पढ़ा हो और मन हो तो इससे पहले के भाग जामुनी जादू और फिर पापा जल्दी घर आ जाओ पहले पढ़ सकते हैं और मन नहीं है तो यहीं से शुरु कर दीजिए। देखा जाएगा :-)
लता ने कहा - वहाँ देखो, कितने जाले लगे हैं।
और माँ दौड़कर मेज उठा लाई और उस पर चढ़कर फूलझाड़ू से जाले उतारने लगी।
मैंने कहा- मुझे और भूख लगी है।
माँ दौड़कर रसोई में गई और आटा छानकर गूंथने लगी।
पिताजी ने कहा- मैं आज खाना नहीं खाऊँगा।
माँ ने उनकी रोटियों पर थोड़ा ज़्यादा घी चुपड़ दिया। वैसे घी पश्चिमी चिकित्साशास्त्र का दुश्मन था, जो किसी भी रोग में सबसे पहले बन्द करवा दिया जाता था।
मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं, एक रोशनदान पर टँगी हुई, एक आटा छानती हुई, एक घी चुपड़ती हुई।
मैंने लता को दिखाया- देख लता। तीन तीन माँ।
- हाँ।
उसने भी देखा। मैं दौड़कर बरामदे में बैठे पिताजी के पास गया।
- देखो पिताजी, तीन तीन माँएं।
- हाँ।
उन्होंने भी देखा।
मैंने लता से पूछा- क्या टाइम हुआ है?
- साढ़े दस।
- फिर तो एक माँ स्कूल में भी गई होगी।
- यानी हमारी चार माँ हैं?
- और एक को सुबह मैंने कपड़े धोते हुए भी देखा था।
- मतलब पाँच हैं?
- हाँ।
- यानी घर में हम आठ लोग हैं?
पिताजी ने बीच में कहा- नहीं, चार ही हैं।
- पिताजी आपका पेट दर्द कैसा है?
पिताजी बीच में बोले तो मुझे याद आया।
- खाना खाने के बाद हल्का हल्का होता है। आजकल जी कुछ ठीक नहीं रहता।
पिताजी अपना पेट पकड़कर सहलाने लगे। लता उनके लिए पानी लाने चली गई। मैंने कहा कि मेरे भी सीने में बहुत दर्द रहता है। उन्होंने सुना नहीं। लता ने रसोई में से ही सुन लिया था। वह दो गिलास पानी लेकर आई। स्टेनलेस स्टील के गिलास थे जिनपर लता का नाम खुदा हुआ था।
मैंने उससे पूछा, “पानी पीने से दर्द ठीक हो जाता है?”
पिताजी ने कहा, “नहीं, दवा खाने से भी नहीं होता।”
मैंने कहा, “आजकल नकली दवाइयाँ बहुत बनने लगी हैं।” मेरी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम दोनों ने पानी पी लिया।
तकलीफ़ के बदले तकलीफ़ देना प्यार के बदले प्यार देने से ज़्यादा ज़रूरी लगता था। रागिनी एक लड़की का नाम था जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो वक्ष, एक नाक, एक माथा, एक सिर था। रागिनी पहली लड़की नहीं थी, जिससे मुझे प्यार हुआ, और न ही आखिरी थी। वह सब लड़कियों जैसी थी। अब मुझे लगता था कि वह बुरी थी। जिन जिन लड़कियों से मैंने प्यार किया था वे बेहद स्वार्थी लड़कियाँ थीं। उनमें और लड़कियों से अलग कुछ भी नहीं था इसलिए मुझे सब लड़कियाँ बुरी लगने लगी थीं। लेकिन ऐसा सबको नहीं लगता था। ऐसा सबको नहीं लगता था इसलिए इसे खुलकर कहना फ्रस्ट्रेशन कहा जाता। लेकिन ऐसा था। ऐसा था तो लता भी बुरी लड़की होगी। मेरी अच्छी बहन बुरी लड़की लता गिलास लेकर चली गई।
लता जाते जाते बोली- आज यस बॉस आएगी।
हम सबने अनसुना कर दिया। पिताजी अख़बार उठाकर पढ़ने लगे। मैं उठकर अपने जूते पॉलिश करने चल दिया। लता एक पुराना और एक कम पुराना गाना गुनगुनाने लगी। ऐसे जैसे कि गीत की किसी पंक्ति को गलत सुनकर ‘आज यस बॉस आएगी’ समझ लिया गया हो।
आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर...
और नया गाना चालू सा था। वह उसने कुछ मन्द आवाज़ में गाया।
आज अभी इसी वक़्त ही मुझको पता चला है...कि मुझे प्यार प्यार प्यार हो गया है...
हमारे घर में बुश कंपनी का एक पुराना टीवी था जिसमें चित्र कभी स्थिर नहीं रहते थे। वे ऊपर से नीचे नदी की तरह लगातार बहते रहते थे। टीवी पर आगे लगी चार घुंडियों में से एक पर वी. होल्ड लिखा हुआ था जिसका अर्थ हममें से किसी को नहीं पता था। उसको घुमाने से नदी का प्रवाह धीमा और तेज होता था और एक सीमा के बाद प्रवाह की दिशा भी उलट जाती थी। हम उसको झटके से लगातार दोनों तरफ ऐसे घुमाते थे जिससे पर्दे पर दृश्य लगभग स्थिर दिखता रहे। यह बहुत मेहनत और धैर्य का काम था। इसके लिए एक व्यक्ति को टीवी के बराबर में बैठे रहना पड़ता था। सब टीवी देख रहे होते थे तो मैं और लता बारी बारी से यह ज़िम्मेदारी संभालते थे। अकेले टीवी देखना बहुत मुश्किल काम लगता था। हम बड़े होते गए तो हमारा टीवी देखना कम होता गया। हमें टीवी न देखने का शौक हो गया था। ‘यस बॉस’ लता की फ़ेवरेट फ़िल्म थी जो उसने कभी नहीं देखी।
मैं और पिताजी शाम को घूमने गए। ऐसा कई सालों बाद हुआ था कि हम बिना काम के एक साथ घर से बाहर निकले हों। मैं लाल दरवाजा, रामनाथ पुल, श्रीकृष्ण मन्दिर, गोल बाज़ार, शहद की छतरी और शहर की और भी बहुत सारी जगहों से बचता था। जिन जिन जगहों पर रागिनी की यादें चिपकी हुई थीं, उन जगहों के पास जाते ही आत्महत्या के ख़याल आते थे। मूंगफली खाना भी मर जाने जैसा लगने लगा था। मुझे लगने लगा था कि मैंने एक बार और प्यार किया तो इस छोटे से शहर में मेरे जाने को कोई जगह नहीं बचेगी। मुझे लगता था कि इसीलिए ज़्यादातर लोग नौकरियों के बहाने से अपने बचपन और जवानी का शहर छोड़ देते होंगे। नए शहरों में नए प्रेम होते होंगे। फिर कुछ साल बाद पैसे देकर तबादला करवाना पड़ता होगा। जिनके पास तबादले के पैसे नहीं होते होंगे, उन्हें खुदकुशी के ख़याल के साथ जीना पड़ता होगा। मैंने अपने पिता की ओर देखा। वे बीस साल से इसी शहर में थे। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ रही थीं। वे और दुबले होते जा रहे थे।
- पिताजी आपने कभी कछुआ देखा है?
- नहीं।
- आप पढ़ाते तो थे कि बहुत धीरे धीरे चलता है कछुआ।
- रोज़गार समाचार देखता रहता है ना?
- हाँ पिताजी। हरियाणा में वेकेंसी निकली हैं।
- वहाँ तो पैसा चलता है बस।
- पैसा कैसे चलता होगा? कछुए की तरह धीरे धीरे तो नहीं ना?
उन्हें नहीं सुना।
आधी बातें बिना सुने भी जीवन उसी तरह जिया जा सकता था। वैसे भी हमारे शहर में सुनने को ज़्यादा बड़ी बातें नहीं होती थीं। दो पड़ोसी एक कीकर के पेड़ को लेकर सालों तक झगड़ते रहते थे और फिर अगली पीढ़ी जवान होकर लड़ने लगती थी। लड़के अनजान लड़कियों के लिए झगड़ बैठते थे और हॉकी स्टिक और लाठियाँ लेकर आ जाते थे। अनजान ‘बुरी’ लड़कियों को अक्सर ख़बर भी नहीं होती थी और ख़बर हो जाती थी तो यह गर्व का विषय होता था। लड़के बसों की यात्रा मुफ़्त करवाने के लिए कभी कभार स्कूल कॉलेजों में दस बीस दिन की हड़ताल भी कर देते थे। किसी दिन सरकारी स्कूल का कोई शिक्षक अपने ही छात्रों के हाथों पिट भी जाता था। बसें और सिनेमाहॉल जी भर के तोड़े जाते थे। कोल्ड ड्रिंक की बोतलें उठाकर भाग जाना होता था। पुलिस आँसू गैस छोड़ती थी। आँसू गैस नाइट्रस ऑक्साइड नहीं थी। नाइट्रस ऑक्साइड हँसाने वाली गैस थी लेकिन कुछ भी करवाने वाली गैस का नाम पूछा जाए तो नाइट्रस ऑक्साइड का नाम ही दिमाग में सबसे पहले आता था। नाइट्रस ऑक्साइड की दुनिया में भारी कमी हो गई लगती थी। पुलिस हँसाने वाली गैस छोड़ती तो शायद दुनिया ज़्यादा बेहतर बन सकती थी।
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मैं ईश्वर |
दुखों के बीहड़ में
मैं अपने साथ तुम्हारी आत्महत्या करना चाहता हूँ
मुझे तुम्हारी आंखों के रंग का दृष्टिभ्रम होता है
नाखूनों से अँधेरा खुरचता हुआ
तुम्हारी देह की सड़क में टटोलता हूँ दसों दिशाएं
और ग्यारहवां घर,
मैं अपनी सघन कुंठाओं से
तुम्हें बनाना और तोड़ देना चाहता हूँ
रात के तीसरे पहर में
मैं ईश्वर हूँ