पापा जल्दी घर आ जाओ

मार्च की बारह तारीख को उन दोनों की शादी हो गई। मार्च की बारह तारीख को बृहस्पतिवार था। मैं उदास था। मेरा मन नहीं लगता था। मैंने कोई नौकरी कर लेने की सोची। साथ ही मैंने सोचा कि नौकरी करके आज तक कोई करोड़पति नहीं बना इसलिए नौकरी वौकरी में कुछ नहीं रखा है। मेरा एक बार कश्मीर घूम आने का मन था, थोड़ी सी जल्दी भी थी। अख़बार में रोज युद्ध की संभावना की ख़बरें आती थीं और मैं कश्मीर के उस पार या आसमान के पार चले जाने से पहले उसे एक बार देख लेना चाहता था। मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पिता स्कूल मास्टर थे। वे ‘धरती का स्वर्ग’ नामक पाठ पढ़ाते हुए कश्मीर का बहुत अच्छा वर्णन करते थे लेकिन मुझे लगता था कि उन्होंने कभी कश्मीर के बारे में सोचा नहीं होगा। अशोका पास बुक्स वाले उन्हें हर कक्षा की एक ‘ऑल इन वन’ उपहार में दे जाते थे तो उन्हें बहुत खुशी होती थी। लेकिन वे जोर से नहीं हँसते थे। उनके पेट में दर्द रहने लगा था। जब हम छोटे थे तो वे कभी कभी गुस्से में बहुत चिल्लाते थे। माँ कहती थी कि उस चिल्लाने की वज़ह से ही उनके पेट में दर्द रहने लगा है। डॉक्टर उसे अल्सर बताते थे। डॉक्टरों को लगता था कि वे सब कुछ जानते हैं। माँ को भी अपने बारे में ऐसा ही लगता था।
डॉक्टर बनने के लिए बहुत सालों तक चश्मा नाक पर टिकाकर मोटी मोटी किताबें चाट डालनी पड़ती थीं। हमारे राज्य में उन दिनों पाँच मेडिकल कॉलेज थे जिनमें छ: सौ सीटें थीं। जनरल के लिए कितनी सीटें थीं, यह पता लगाने के लिए बहुत हिसाब किताब करना पड़ता था। अधिकांश लोग जनरल ही थे। बाकी लोगों में से कोई खुलकर अपनी जाति नहीं बताता था इसलिए भी ऐसा लगता होगा कि अधिकांश लोग जनरल ही थे। ब्राह्मण दोस्त के सामने कुम्हार दोस्त कुछ दबा सा रहता था लेकिन फिर भी अपना कुम्हार होना, अपने चमार होने जितना शर्मनाक नहीं लगता था। बनिया होना परीक्षा में मुश्किल से पास होना था लेकिन फिर भी बनिया होना खुलकर स्वीकार किया जाता था।
हमारे कस्बे में एक बहुत विश्वसनीय अफ़वाह थी कि उस परीक्षा की तैयारी करते करते एक लड़की पागल भी हो गई थी। उस लड़की का नाम किसी को नहीं पता था। किसी को पता होता तो मैं उससे एक बार मिलना चाहता था। वह लड़की किस जाति की थी, यह भी पता नहीं चल पाता था।
माँ कानों के हल्के से कुंडलों और चाँदी की घिसी हुई पायलों के अलावा कोई गहना नहीं पहनती थी। माँ को गहने न पहनने का शौक हो गया था। मुझे सिनेमा न जाने का शौक हुआ था और मेरी बहन लता को अचानक नए कपड़े न खरीदने का शौक हो गया था। उसकी उम्र तेईस साल थी। वह एम एस सी करके घर बैठी थी और ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही थी। कुछ न कुछ करते रहना एक ज़रूरी नियम था। वह पच्चीस तरह से साड़ी बाँधना सीख गई थी। मुझे एक ही तरह से पैंट पहननी आती थी। कभी कभी उसमें भी टाँगें देर तक फँसी रहती थीं। मैं बीएड कर चुका था और भाजपा की नई सरकार के इंतज़ार में था। मुझे उम्मीद थी कि नई सरकार आएगी तो थर्ड ग्रेड की खूब भर्तियाँ निकलेंगी। विधांनसभा चुनाव होने में एक साल बाकी था। मुझे लगता था कि पिताजी चाहते होंगे कि तब तक मैं किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा लूं लेकिन उन्होंने ऐसा कभी कहा नहीं था। माँ कहती थी कि भाजपा कर्मचारियों के हित की पार्टी है। माँ भी एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी जिसकी नीतियों में सरकार बदलने से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता था। माँ को अख़बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था लेकिन हमने घर में अख़बार नहीं लगवा रखा था। पिताजी कभी कभी स्कूल से पिछले दिन का अख़बार उठा लाते थे। उस शाम हम सब को बहुत अच्छा लगता था। हालांकि पिताजी के स्कूल में ‘राजस्थान पत्रिका’ आती थी और माँ को ‘भास्कर’ ज़्यादा पसंद था।
किसी किसी इतवार को मैं सुबह घूमकर लौटते हुए अड्डे से ‘भास्कर’ भी खरीद लाता था। बाकी दिन का डेढ़ रुपए का और शनिवार, इतवार का ढ़ाई रुपए का आता था। उन दो दिन साथ में चिकने कागज़ वाले चार रंगीन पन्ने होते थे।
माँ कभी कभी बहुत बोलती थी और कभी कभी बहुत चुप रहती थी। स्कूल के टाइम को छोड़कर माँ हमेशा घर में होती थी इसलिए घर में रहो तो माँ के होने का ध्यान नहीं रहता था। बाहर जाकर माँ की बहुत याद आती थी। मैं सोचता था कि आज घर लौटकर उसे बताऊँगा कि तेरी याद आई, लेकिन घर आने पर फिर उसके होने का ध्यान चला जाता था। रागिनी कहीं नहीं होती थी इसलिए उसकी याद दिन भर आती थी। मुझे लगता था कि वह भी घर में रहने लगती तो चार छ: महीने बाद उसकी याद भी बाहर आती और घर में उसे भूल जाया करता।
पिताजी बोर्ड की परीक्षा की खूब सारी कॉपियाँ मँगवाते थे। हर उत्तरपुस्तिका को जाँचने के दो रुपए मिलते थे। मई और जून में मैं, माँ और लता उनके साथ मिलकर पूरी दोपहर कॉपियाँ जाँचते थे। किसी किसी कॉपी में सिर्फ़ एक पत्र मिलता था जो जाँचने वाले अज्ञात गुरुजी के नाम होता था। अक्सर वह गाँव की किसी तथाकथित लड़की द्वारा लिखा गया होता था जो घरेलू कामों में फँसी रहने के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाई होती थी और जिसकी सगाई का सारा दारोमदार उसके दसवीं पास कर लेने पर ही होता था। आखिर में आदरणीय गुरुजी के पैर पकड़कर निवेदन किया गया होता था और कभी कभी दक्षिणास्वरूप पचास या सौ का नोट भी आलपिन से जोड़कर रखा होता था। माँ उन रुपयों को मंदिर में चढ़ा आती थी। मैं और लता ऐसी कॉपियों पर बहुत हँसते थे। पिताजी ऐसी पूरी खाली उत्तरपुस्तिकाओं में किसी पन्ने पर गोला मारकर अन्दर सत्रह लिख देते थे।
रागिनी एक दिन लाल किनारी वाली साड़ी में बाज़ार में दिखी थी। वह कार से उतरी थी। कार में उसका पति बैठा होगा। मैं काले शीशों के कारण उसे नहीं देख पाया। रागिनी ने मुझे देखा और उसकी नज़र एक क्षण के लिए भी मुझ पर नहीं ठहरी। ऐसा करने के लिए मानसिक रूप से बहुत मजबूत होने की आवश्यकता थी। मैं ऐसा कभी नहीं हो सकता था। फिर वह सुनार की दुकान में घुस गई। कार का नम्बर ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो चार था। मुझे बहुत दुख होता था। मुझे दुख का शौक हो गया लगता था। मैं भिंडी खरीद रहा था जिसका भाव सोलह रुपए किलो था। वह सोना खरीद रही थी जिसका भाव मुझे नहीं मालूम था। उसे भी भिंडी का भाव नहीं मालूम होगा। मैंने तराजू में से दो तीन खराब भिंडी छाँटकर अलग की और आधा किलो के सात रुपए दिए। सब्जी वाला बहुत मोटा आदमी था और उसकी एक आँख नहीं खुलती थी। वह हँसता भी नहीं था। रागिनी तुरंत ही बाहर निकल आई। शायद लॉकेट वगैरह बनना दिया होगा जो बना नहीं होगा। इस बार उसने मेरी ओर नहीं देखा। कार का दरवाजा खुला। ड्राइविंग सीट पर एक पीली टी शर्ट वाला आदमी दिखा। रागिनी उसकी बगल में ही बैठ गई थी। फिर उसने ऊपर लगा शीशा कुछ ठीक किया और दरवाजा बन्द कर लिया।
उस रात मुझे कई सपने दिखे। एक में मैं जादूगर था। मैं लड़की को बीच में से आधा काटने वाला जादू दिखाने ही वाला था कि लड़की मेरे हाथ से माइक छीनकर मेरे जादू की असलियत दर्शकों को बताने लगी। दर्शक एक एक करके उठकर चले गए और पूरा हॉल खाली हो गया। फिर वह लड़की जोर से हँसी। फिर उस लड़की में मुझे रागिनी का चेहरा दिखा, फिर कुछ देर बाद माँ का, फिर कुछ देर बाद लता का।
दूसरे सपने में मैं ट्रक ड्राइवर था। मेरी एक आठ नौ साल की बेटी थी। मैं रोज रात को देर से घर आता था। तब तक मेरी बेटी सो जाती थी। सुबह उसके उठने से पहले मैं निकल जाता था। कई बार बहुत दिन में घर आना होता था। बहुत दिन का सपना एक ही रात में एक साथ दिख गया था। मैं दिन भर बहुत गालियाँ देता था और बहुत गालियाँ खाता था। मेरा रोने का मन होता था तो हाइवे पर किसी ढाबे वाले को कहकर लड़की का इंतज़ाम करवा लेता था। लड़की हर दुख की दवा थी। मुझे मेरी बेटी की भी बहुत याद आती थी। उसकी आवाज सुने हफ़्तों बीत जाते थे। एक ही सपने में हफ़्ते भी दिख गए थे। एक दिन मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी ने मुझे एक कागज़ दिया जो रात को सोने से पहले मेरी बेटी ने उसे मेरे लिए दिया था। टूटी फूटी लिखाई में दो लाइनें लिखी थीं।
नदी किनारे बुलबुल बैठी, दाना चुगदी छल्ली दा।
पापा जल्दी घर आ जाओ, जी नहीं लगदा कल्ली दा।
फिर मैं बहुत रोया और जग गया। सच में रागिनी की बहुत याद आती थी। सोने का भाव दस हज़ार के आस पास कुछ था।



यह 'ब्लू फ़िल्म' नामक कहानी का दूसरा अंश है। पहला अंश 'जामुनी जादू' आप पहले ही पढ़ चुके हैं।



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7 पाठकों का कहना है :

PD said...

niruttar....

mehek said...

sach nishabdh kar diya lekh ne,kaisi ajeeb khamoshi hai,dimaag mein bahut hulchul hai magar,bahut hi badhai.

अनिल कान्त said...

yaar solanki bhai ...
You are the best!!

Koi deewana kehta hai, Koi Pagal Samjhta hai....Mere is dil ki bechaini ko bas .....samjhta hai
(Kahin suni thi ...tum par fit baithti hain) :) :)

Prashant said...

gajab hai ji.. gajab hai..
esi kahani pata nahi kab padhi hogi..
etna acha or sacha likhne ke liye kitna sochan padta hoga..

पुरुषोत्तम कुमार said...

गौरव जी, आपकी पूरी कहानी पढ़ी। बहुत अच्छा लिखते हैं आप। भाषा के स्तर पर इतनी सुगढ़ता बड़ी मुश्किल से मिलती है। लगातार लिखें। निरंतर नई उच्चाइयों की ओर बढ़े। इस शुभकामना के साथ।

Unknown said...

hindi mein apni ray likhni ho to kaise likhe?

Pragati said...

Bohot saral shabdon aur bhasha mein bohot kuch keh jaate hain, bohot maayne nikal aate hain unke...