छलती हुई स्त्रियों के ख़िलाफ़

भरभराकर टूटेगा विश्वास बार बार
और क्या हम ब्लू फ़िल्में
या कम से कम ‘नच बलिए’ देखकर
और इतवारी अख़बारों के रंगीन पन्ने बाँचकर
हर बार रोकेंगे रुलाई, बहलाएँगे जी को
या कमज़ोर चिट्ठियाँ लिखेंगे और पोस्ट कर आएँगे
उदास भीड़ से भरे पुराने डाकखानों के बाहर टँगे
अकेले लाल बक्सों में?

तमाम विषमताओं के बावज़ूद
हमें भगवान में आस्था
और प्रेम में पुरुष बचाकर रखना होगा
किसी भी तरह।
शरीरों के नाजुक क्षण में
और उसके बीतने के बाद के घंटों में
हमें निराश भावुकता को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा।
यह आवाज़ की मधुरता,
कला पर थोपी गई नैतिकता,
प्यार की बेवकूफ़ मासूमियत,
विवाह की बासी पवित्रता
और छलती हुई स्त्रियों के ख़िलाफ़ हमारी आग होगी
जिसमें हम उनकी आँखें नहीं
स्तन याद किया करेंगे।

दम घुटने से पहले
हमें पी जाना चाहिए साँस भर कमीनापन।



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6 पाठकों का कहना है :

अनिल कान्त said...

गौरव भाई गज़ब लिखा है .....आपकी कविता के भाव बहुत बेहतरीन होते हैं ....बेहतरीन रचना

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

संध्या आर्य said...

bahut hi behatarin hai aapaki abhiwyakati ........ab kuchh kahane ki jarurat nahi hai............

दिनेशराय द्विवेदी said...

गौरव, मुबारक हो! बहुत सुंदर कविता है।

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मन का साथ देते हुए अच्छी उड़ान भरते हो।सुन्दर रचना है।बधाई।

Anonymous said...

कला पर थोपी गई नैतिकता,
प्यार की बेवकूफ़ मासूमियत,
विवाह की बासी पवित्रता
और छलती हुई स्त्रियों के ख़िलाफ़ हमारी आग होगी
जिसमें हम उनकी आँखें नहीं
स्तन याद किया करेंगे।

दम घुटने से पहले
हमें पी जाना चाहिए साँस भर कमीनापन।

सुशील छौक्कर said...

गौरब भाई क्या कहूँ कहाँ से लाऊँ शब्द आपके लेखन की तारीफ के लिए। फिलहाल तो अद्भुत ही ध्यान आ रहा है। एक काम करो गौरव भाई एक हिंदी की डिक्शनरी ही भेज दो। जिससे शब्दों की कमी ना पडे। देरी के लिए माफी।