अंतहीन सन्नाटा है
जिसमें घड़ी की टिकटिक,
मक्खियों की भिनभिनाहट
और मेरी साँसों के अलावा कुछ भी नहीं।
तो वह कौन है
जो मुझे डराता है बार बार?
इस कमरे के बाहर
कहीं नहीं है दुनिया।
नहीं हैं चाँद, तारे, समुद्र और बम्बई कहीं भी।
मुझे यकीन है।
मैं सोते ही मर जाऊँगा।
कोई नहीं है कहीं
जिसे ख़बर की जा सके,
जिसे किया जा सके सचेत या आश्वस्त।
उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं
कमरे की मक्खियाँ।
और मुनादियों, लाउड स्पीकरों या ऑर्केस्ट्रा में कहीं,
मैं कहीं शोर में मरना चाहता हूं।
आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)
10 पाठकों का कहना है :
sunder abhivyakti hai bhai is sannate se bahar aaeeye
आपकी अभिव्यक्ति को सलाम ....अच्छा लिखा है गौरव भाई ....
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
और मुनादियों, लाउड स्पीकरों या ऑर्केस्ट्रा में कहीं,
मैं कहीं शोर में मरना चाहता हूं।
बहुत अच्छे दोस्त....तुम्हारा लिखे में एक ख़ास बात है
बहुत सुंदर कविता ...कभी कभी एकांत स्वयं डरने लगता है...सुंदर अभिव्यक्ति.
लगता है आप किसी न्यूज़ चैनल का भुतहा सीरियल देख लिए हैं. वैसे डरने की कौनो बात नहीं है. हम हैं न!
gr kabhi likhna chod diya tumne th bahut kuch kho denge......naa sirf tum....balki main bhi.......................
बधाई! बेहतरीन कविता के लिये……
बेहतरीन...बहुत खूब...सुंदर...वाह...अब मैं ये शब्द नहीं लिखना चाहता...तुम्हारी कविता और मेरे भाव...अब इन शब्दों के बाहर की बात हैं...अब मैं चाहता हूं, तुम समझो, मेरी मौन प्रशंसा।
क्षणिकाएं nahi likhte aaj kal..
kya baat hai..
yeh sansar ek mela hain...phir bhi har koi kitna akela hain....sundar kavita...
Post a Comment